Tuesday, September 25, 2007

धान के देश में - 17

लेखक स्व. श्री हरिप्रसाद अवधिया
(छत्तीसगढ़ के जन-जीवन पर आधारित प्रथम आंचलिक उपन्यास)

- 17 -
कार्तिक पूर्णिमा के पहले चौदस की रात को छकड़ों में बैठ कर दीन दयाल को छोड़ सभी ने रायपुर के लिये प्रस्थान किया। आगे की गाड़ी में एक नौकर के साथ सुमित्रा और महेन्द्र थे। पीछे की गाड़ी में राजवती, श्यामवती और सदाराम थे। सदाराम गाड़ी हाँक रहा था। चाँदनी रात थी। दूर तक फैले हुये मैदान पर मानो चाँदी की चादर बिछा दी गई थी। इधर-उधर के इक्के-दुक्के पेड़ों के पत्तों पर चन्द्र-किरणें बिछल रही थीं। पीछे छूटने वाले और आगे आने वाले गाँवों के छोटे-छोटे घर दूर से ऐसे लगते थे मानो चाँदनी में पत्थर के टीले रखें हों। अपने-अपने छकड़े में बैठे हुये श्यामवती और महेन्द्र एक दूसरे के विषय में सोच रहे थे।
गाड़ियाँ सबेरे खारुन नदी के किनारे महादेव घाट पहुँचीं। चारों ओर तम्बू तने थे। दूकानें लगी थीं। चारों ओर चहल-पहल थी। घाट में स्नान करने वालों की अपार भीड़ थी। कमर तक जल में प्रवेश कर असंख्य व्यक्ति "हर हर महादेव" कह कर स्नान करे रहे थे। नदी-तट पर मेला लगा था। गाड़ी पर से महेन्द्र ने देखा कि मेले में इतने लोग एकत्र हैं जैसे किसी पीपल के वृक्ष में असंख्य पत्ते लगे हों।
नदी पार कर मेले में एक किनारे गाड़ियाँ खड़ी कर दी गईं। सब लोग स्नान करने चले गये। स्नान के बाद नदी किनारे स्थित अत्यन्त ही प्राचीन शिव मन्दिर में दर्शन करने गये। उन लोगों ने मन्दिर के भीतरी कक्ष में जाकर शिव-लिंग को जल चढ़ा कर पूजा की। यद्यपि दर्शकों की भीड़ अभी कम थी तो भी भक्तिभाव से भगवान शंकर को अर्पित किये गये नारियलों की मन्दिर के एक कोने में बड़ा सा ढेर बन गया था। मन्दिर से निकल कर वे सब मेले में घूमने चले गये। कार्तिक पूर्णिमा के दिन रायपुर से चार मील दूर खारुन नदी के किनारे महादेव घाट का यह मेला भगवान शंकर के द्वारा त्रिपुरासुर के वध किये जाने के उपलक्ष में भरता है। लगभग दो लाख लोग इस मेले में एकत्र हो जाते हैं।
मिठाई खरीद कर श्यामवती, महेन्द्र और सदाराम घाट पर पहुँचे। यह घाट वास्तव में श्मशान-भूमि है। घाट का दृश्य बड़ा रमणीक है। सामने कल कल करती हुई नदी बहती है। घाट में पत्थर की कई सीढ़ियाँ बनी हैं जिनके दोनों छोरों पर दो गोलाकार बुर्ज हैं। बायीं ओर सफेद चट्टानें हैं। चट्टानों के पीछे एक के ऊपर एक रख कर पत्थरों का बाँध बनाया गया है जिसके बीचोंबीच खुली जगह है और वहाँ से नदी का प्रवाह बड़ा ही तेज और कोलाहलमय हो जाता है। सीढ़ियों और बुर्जों पर बैठ कर कुछ आदमी खा पी रहे थे। श्यमवती, महेन्द्र और सदाराम भी वहीं बैठ कर मिठाई खाने लगे। कुछ देर बाद महेन्द्र ने चुटकी ली और कहा, "आज की मिठाई में सरोना की मिठाई जैसा स्वाद नहीं है।"
सुन कर श्यामवती का मुख लज्जा से लाल हो गया। मेले में सब अपने आप में मस्त थे। कोलाहल क्षण प्रति क्षण बढ़ता जा रहा था। नदी किनारे के चारों ओर की पगडण्डियों और रास्तों में आने वालों की अविरल कतारें दिखाई दे रही थीं।
(क्रमशः)

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