Thursday, September 27, 2007

धान के देश में - 19

लेखक स्व. श्री हरिप्रसाद अवधिया
(छत्तीसगढ़ के जन-जीवन पर आधारित प्रथम आंचलिक उपन्यास)

- 19 -
भोला ने अपने नये जीवन में प्रवेश किया। श्यामवती का हृदय यद्यपि दुःखी था तो भी वह हमेशा भोला को प्रसन्न रखने की कोशिश करती थी। वह अपने ससुर दुर्गाप्रसाद का भी विशेष ध्यान रखती थी। भोला की उद्दण्डता प्रायः मिट-सी गई थी। अब न तो वह तालाब के किनारे 'ददरिया' गा कर औरतों से छेड़छाड़ करता था और न जुआ खेलने वाले साथियों से ही मिलता था। प्रायः घर में ही रहता और श्यामवती के साथ अपने जीवन को सुखी मानता।
भोला की आदतें सुधरती देख दुर्गाप्रसाद को सन्तोष होता था। राजवती के लिये उसके हृदय में बड़ी कृतज्ञता थी क्योंकि उसने अपने वचन का पालन कर उसके घर को सुखी बनाया था।
मनुष्य के स्वभाव की गति बड़ी ही न्यारी होती है। आदतों पर विजय पा कर उन पर राज्य करने से ही मनुष्य देवता बन जाता है पर आदतें भी इतनी प्रबल होती हैं कि उन पर विजय पाना हँसी-खेल नहीं है। भोला को नया जीवन कुछ महीने तो बड़ा ही अच्छा लगा पर उसके बाद उसकी पुरानी आदतें उभरने के लिये छटपटाने लगीं। उसे ऐसा लगता था कि स्वच्छन्द रहने वाला जंगली पक्षी पिंजड़े में बन्द कर दिया गया है। अब वर्तमान जीवन नीरस और काँटे-सा लगने लगा। जो श्यामवती उसके लिये आकर्षण का केन्द्र थी और विवाह के बाद के प्रारम्भिक दिनों में जिसके बिना वह क्षण भर भी नहीं रह सकता था वही अब कठोर बन्धन मालूम होने लगी। जब उसके जुआड़ी दोस्त उसे बुलाने आते थे तब वह कहला देता था कि वह घर में नहीं है और उनके चले जाने के बाद श्यामवती के साथ रंगरेलियों में खो जाता था। जब उन जुआड़ियों ने आना बन्द कर दिया तब भोला का हृदय उन लोगों से मिलने के लिये तड़पने लगा।
उस दिन वह गाँव से लगे हुये बगीचे के पास से जा रहा था। उसने देखा उसके पुराने जुआड़ी दोस्त जमे हुये हैं और दाँव पर दाँव लगाये जा रहे हैं। उसकी भी प्रबल इच्छा हुई कि वह उन लोगों के साथ बैठ कर केवल एक दाँव लगा ले पर उस समूह तक जाने का उसका साहस नहीं हो पा रहा था। उसने उन्हीं दोस्तों को फटकार दिया था। अब कैसे उन्हें मुँह दिखाये। पर लगी लत बहुत बुरी होती है। उसमें आत्म-सम्मान की रक्षा करना कठिन होता है। भोला दो-चार कदम अपने उन दोस्तों की ओर विवश और मंत्र-मुग्ध-सा हो कर बढ़ा पर ठिठक गया। उस गिरोह में सभी खेल में व्यस्त थे। किसी को किसी का ध्यान नहीं था। अचानक एक की नजर भोला पर पड़ गई और उसने पुकारा, "अरे भोला, आवो भाई आवो। आज कैसे भूल पड़े इधर। आवो, एक दाँव हो जाये।" भोला में अभी भी साहस नहीं था कि वह उन लोगों में सम्मिलित हो जाता। उसकी प्रबल इच्छा हुई कि वह वहाँ से बेतहाशा भाग जाये पर दूसरी प्रबल लालसा भी अँगड़ाई लेकर जाग उठी कि थोड़ी देर तक खेल ही क्यों न ले। इसमें हर्ज ही क्या है। वह इन्हीं दोनों इच्छाओं के बीच अचल खड़ा रहा।
"अरे आवो भी यार! क्या खड़े खड़े शरमा रहे हो। क्या तुमने कभी खेला नहीं है?" कह कर दूसरा दोस्त उठकर भोला के पास गया और प्रेम से उसका हाथ पकड़ कर उस समूह में ले आया। अब भोला की हिचक पूरी तरह से जाती रही। वह उस फड़ में बैठ गया और दाँव लगाने लगा। उसने उस गिरोह में एक नये आदमी को देखा जिसे पहले कभी नहीं देखा था। दोस्तों ने उसका परिचय दिया। उसका नाम परसादी था। परसादी साफ-सुथरे कपड़े पहने हुये था। कान में सोने की 'लुरकी' कहलाने वाली बालियाँ, गले में सोने का चेन और उँगलियों में सोने की अँगूठियाँ उसके सम्पन्नता को प्रदर्शित कर रहीं थीं। वह सभी लोगों से अलग-सा था। गाँव का होते हुये भी गाँव वालों से भिन्न था। उसका ध्यान जुये में अधिक नहीं था। ऐसा मालूम होता था कि वह केवल दूसरे साथियों का मन रखने के लिये ही अनमने मन से खेल रहा था। भोला को परसादी अच्छा आदमी लगा और बातों ही बातों में वह उससे घुल-मिल गया - दोनों दोस्त हो गये।
भोला परसादी के घर आने जाने लगा और परसादी भी उसके घर आता था। परसादी की स्त्री सिर से पाव तक गहनों से लदी थी। परसादी 'काली माटी' में काम करता था और कुछ दिनों की छुट्टी लेकर गाँव आया था। छत्तीसगढ़ में टाटानगर को 'काली माटी' कहते हैं। टाटा के लोहे के कारखाने में छत्तीसगढ़ के बहुत से लोग जा कर काम करते हैं। उन मजदूरों की वहाँ अलग बस्ती ही है। परसादी के कुटुम्ब में उसकी पत्नी और उसके सिवाय तीसरा कोई नहीं था। पति-पत्नी दोनों काम करते थे। आवश्यकता से अधिक आमदनी थी। खर्च कम था। परसादी को ऐसा कोई दुर्व्यसन नहीं लगा था जिससे उसके पैसे व्यर्थ ही खर्च होते। बचत को उन दोनों ने गहनों के रूप में शरीर पर लाद रखा था।
छुट्टी खत्म होने के पहले ही परसादी अपनी पत्नी के साथ टाटानगर वापस चला गया।
(क्रमशः)

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