Saturday, September 8, 2007

कलंक का अंत 3

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अठारह वर्ष का समय बीत गया दिलेर सिंह को गायब हुये।

बम्बई के कालेज का वातावरण रोमांस और चहल-पहल से मुस्कुरा रहा था। कॉलेज-बिल्डिंग के सामने बगीचे में एक नव-युवती के साथ एक एक युवक बातें करता हुआ बैठा था।

"श्यामा, हमें पिताजी से साफ-साफ कह देना चाहिये" युवक ने कहा।

"सतीश, तुम भी बहुत बुद्धू हो। इतना भी नहीं जानते कि मैंने पिताजी से अगर कहा तो वे सुनते ही गुस्से से लाल-पीले होकर मेरा हाथ किसी और के हाथ में दे देंगे। मेरे हाथ पीले हो जावेंगे और तुम हाथ मलते ही रह जावोगे" श्यामा ने मीठी चुटकी ली।

"मैं तो काम की बात कर रहा हूँ और तुम्हें मजाक सूझा है।" सतीश झुँझला कर कहता ही गया, "ऐसा ही था तो मुझे अपनी ओर खींचा क्यों और मेरी ओर खिची क्यों? मैं नहीं जानता था कि हम दोनों के प्रेम के बीच तुम्हारे पिता काँटा बनकर अपनी मूर्खता प्रकट करेंगे।"

"देखो जी, न मेरे पिता मूर्ख हैं और न तुम्हारे पिता ही। इसलिये आज ही घर जाकर तुम अपने पिता से और मैं अपने पिता से साफ-साफ कह दें" श्यामा हँसती हुई बोली।

"कह तो दें पर आगे क्या होगा?" सतीश ने सिर खुजलाते हुये कहा।

"आगे क्या होगा। हम दोनों की शादी। और क्या होगा।" श्यामा ने शरारत भरे स्वर में कहा।
यह तो ठीक है, लेकिन..."

"लेकिन क्या? श्यामा गम्भीर हो गई।

"लेकिन शादी-ब्याह के नियम के अनुसार-"

सतीश की बात काटकर श्यामा तुरन्त बोली, "यही न कि तुम्हारे पिता मेरे पिता के पास लड़की माँगने आवेंगे।"

"नहीं श्यामा, मेरे पिता ऐसा कभी नहीं करेंगे।"

"अच्छा तो मेरे पिता ही तुम्हारे पिता के पास लड़की देने ले लिये आवेंगे। इसमें फर्क ही कौन सा पड़ता है? आखिर हम दोनों के पिता ही तो मिलकर हमारा ब्याह तय करेंगे। अब तो ठीक है न?" कहकर श्यामा मुस्कुराने लगी।

"हाँ, यह ठीक है।" कहते हुये सतीश भी हँसने लगा।

निश्चय यही किया गया कि श्यामा के पिता दूसरे दिन ही सतीश के पिता से मिलें। दोनों उठे। पास ही के एक पौधे से खिला हुआ फूल तोड़कर सतीश ने श्यामा के बालों में खोंस दिया। श्यामा ने भी एक फूल तोड़कर सतीश के कोट में लगा दिया। उन दोनों को ऐसा लग रहा था मानो फूल लमुस्कुरा रहे हों। अपनी भीनी सुगंध से समस्त संसार को बेसुध-से कर रहे हों और उनके जीवन में एक अपूर्व बहार आ गई हो।

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पूर्व निश्चित योजना के अनुसार श्यामा ने अपने पिता को सतीश के घर भेजा। जैसे ही वे पहुँचे दरवाजे पर सतीश मिल गया। वह उन्हें ड्राइंग रूम में बैठाकर अपने पिता को सूचना देने के लिये चला गया।
श्यामा के पिता करमे की एक-एक चीज को ध्यान से देखने लगे। कमरा खूब सजा हुआ था। आधुनिक ढंग के 'फर्नीचर' सुशोभित थे। दीवाल पर कुछ चित्र टंगे थे जो काफी कीमते और कला का उत्कृष्ट नमूना थे। उचित ढंग से सजे हुये 'कोच' थे और एक कोने में पियानो रखा था।
सहसा उनकी नजर छोटी टेबल पर रखे हुये फोटोग्राफ पर पड़ी और अटक कर रह गई। वह सतीश के पिता का चित्र था। नीचे लिखा था - 'भगवानदास'। श्यामा के पिता को बताया गया था कि बम्बई के इने-गने रईसों में से एक भगवानदास ही सतीश के पिता हैं। चित्र को गौर से देखत-देखते श्यामा के पिता के चेहरे का रंग बदलने लगा। पहले वे कुछ गम्भीर हुये। फिर त्यौरियाँ बदलीं, आँखें ऐसी हो गईं मानो चिन्गारियाँ फेंक रही हों किन्तु क्षण भर में ही मुख-मुद्रा संयम के बन्धन में बँध कर सामान्य हो गई।

ठीक इसी समय सतीश के पिता ने कमरे में प्रवेश किया। दरवाजे पर ही वह ऐसा ठिठक गया मानो उसे काठ मार गया हो। दोनों की आँखें एक दूसरे से मिलीं और तभी श्यामा का पिता बोल उठा, " नमस्ते समधी साहब। आपको भगवानदास कहूँ या दिलेर सिंह?"

और सचमुच दिलेर सिंह ही दुनिया की आँखों में डाकू पर अब सतीश के पिता बम्बई का रईस भगवानदास था।

दिलेर सिंह के ओठों पर मुसकान की सरलता झलक उठी और वह बोला, "आपका स्वागत है ठाकुर संग्राम सिंह जी। मैं डाकू दिलेर सिंह भगवानदास के रूप में तुम्हारे सामने हूँ। आप मुझे गिरफ्तार कर सकते हैं।"

और किसी समय दिलेर सिंह को पकड़ने की उमंग में उन्मत्त इंस्पेक्टर संग्राम सिंह श्यामा का पिता था। वह बड़े असमंजस में पड़ गया। उसके सामने दो बातें थीं - पहली यह कि अठारह वर्षों तक गायब रहने के बाद अचानक ही संयोग से मिल जाने वाले दिलेर सिंह को गिरफ्तार कर लेना और दूसरी यह कि अपनी बेटी श्यामा का ब्याह सतीश के साथ कर उसे सदा के लिये आत्मीयता के बन्धन में बाँध लेना। कर्तव्य और पुत्री के प्रति ममता की रस्साकशी के बीच उलझा हुआ संग्राम सिंह विचारों की आँधी में तिनके की तरह उड़ने लगा। उसने सोच विचार कर अपना मार्ग निश्चित किया और बोला, "गिरफ्तारी की बात तो दूर है दिलेर सिंह। यदि तुम चाहो, अर्थात् डाकू दिलेर सिंह चाहे, तो इंस्पेक्टर संग्राम सिंह को अपने घर में अकेला पा कर, जान से मार सकते हो और मैं सदा के लिये तुम्हारे रास्ते से हटाया जा सकता हूँ।"

"किन्तु भगवानदास, सतीश का पिता, ऐसा कभी नहीं करेगा।" दिलेर सिंह ने गम्भीर होकर कहा।
"तो श्यामा का पिता भी अपने होने वाले समधी को कभी गिरफ्तार नहीं कर सकता।" संग्राम सिंह ने कहा।

"देखो संग्राम सिंह, कानून के लिये मुझे अवश्य ही गिरफ्तार कर लो पर सतीश को न मालूम होने पाये कि उसका पिता डाकू है। उसी की नन्ही सी तीन वर्ष की अवस्था ने मुझ में यह परिवर्तन कर दिया जो तुम देख रहे हो। वह डाकू पुत्र होने के कलंक को कभी सहन नहीं कर सकेगा।" कहते-कहते भगवानदास की मुद्रा पर स्पष्ट झलकने लगा कि उसमें समाकर डाकू दिलेर सिंह अब नया और उज्वल जीवन पा चुका है।

"नहीं दिलेर सिंह मैं तुम्हे गिरफ्तार नहीं करूँगा।"

"क्या इससे तुम्हें कलंक नहीं लगेगा? क्या तुम स्वयं कानून भंग नहीं करोगे?" दिलेर सिंह ने आश्चर्य से पूछा।

"नहीं लगेगा। दिलेर सिंह की फाइल एक जमाने से बंद हो चुकी है और इस संसार में बहुत से लोगों की शक्लें एक दूसरे से मिलती हैं। फिर कानून अन्धा और कठोर होता है, उसे मनुष्य हृदय की भावनाओं के चढ़ाव-उतार से कोई सरोकार नहीं। कानून कभी नहीं देखेगा कि तुम क्या थे, किस परिस्थिति में डाकू बने और अब क्या हो।"

दूसरे ही क्षण दिलेर सिंह और संग्राम सिंह एक दूसरे से गले मिल रहे थे। उनकी आँखें प्रेम के आँसुओं से गीली थीं। जान पड़ता था कि डाकू कानून का नहीं अपितु दो पिता हृदय की कोमलता एक दूसरे का आलिंगन कर रही थीं।

सतीश और श्यामा का ब्याह हो गया। किसी पर भी कोई अशुभ छाया नहीं पड़ी। कलंक का अन्त हो चुका था।