Saturday, September 15, 2007

धान के देश में - 7

लेखक स्व. श्री हरिप्रसाद अवधिया
(छत्तीसगढ़ के जन-जीवन पर आधारित प्रथम आंचलिक उपन्यास)

- 7 -

दीन दयाल बूढ़े हो चुके थे। वे अपने आँगन में आराम कुर्सी पर बैठे हाथ में एक रजिस्टर लिये उसे खोल कर चश्मे के काँच में से हिसाब देख रहे थे। साथ ही उनका ध्यान आँगन में काम करते हुये नौकरों की ओर भी था। काँवड़ों में भर-भर कर नौकर खलिहान से धान लाकर आँगन में उंडेल रहे थे। दूसरे नौकर टोकरों में धान भर-भर कर बाँस की सीढ़ी से ऊपर चढ़ा कोठे में भर रहे थे। कोठे के निचले भाग में पुल के मेहराब के समान कई सुरंगें थीं। जिन पर कोठे का धान रखने का निचला भाग था। ऊपर दरवाजा था। ऊपर से ही कोठे में धान रखा और बाहर निकाला जाता था

दीनदयाल का पोता महेन्द्र उसके पास ही खेल रहा था उसकी अवस्था भी सदाराम की अवस्था के बराबर थी सुबह के नौ बज चुके थे गर्मी की तेज धूप आंगन को सता रही थी दीनदयाल को प्यास का अनुभव हो रहा था उन्होनें पुकारा, "बहू, पानी तो ले आवो"

तीस‍‍‍‌ बत्तीस साल की सुकुमारी बहू ने पानी लाकर सामने रख दिया उसे देखकर दीनदयाल की आँखे डबडबा गई पानी रखकर बहू चुपचाप भीतर जाने लगी दीनदयाल एकटक उसी की ओर देखते और गहरी सांस लेते रहे! चांद सा चेहरा था पर बहुत ही कुम्हलाया हुआ! बदन पर सफेद साड़ी थी मांग सूनी और हाथो मे चांदी के पटे (कंगन नुमा आभूषण) थे एक लड़के को जन्म देने के बाद दीनदयाल की बहू का सुहाग भरी जवानी मे मिट गया था दीनदयाल का जवान बेटा श्यामलाल उसकी आंखो के सामने ही चल बसा था पुत्र शोक का वज्राघात उन्हें सहना पड़ा और कभी न बुझने वाली पुत्र शोक की आग उनके हृदय में सदा के लिये धधक उठी !

विधवा बहू की सुंदर पर करुण मूर्ति देखकर श्यामलाल की आंखो के सामने पिछली घटनायें चलचित्र की तरह घूमने लगी श्यामलाल अपनी शादी के बाद भी पढ़ ही रहा था उसे केवल पुस्तको और सैर सपाटे से ही मतलब था श्यामलाल अपने पिता की तरह दयालु, उदार और होनहार था गाँव मे भीषण रुप से महामारी फैली। उन दिनों उपेक्षित छत्तीसगढ़ में अस्पताल और चिकित्सा की उचित व्यवस्था नहीं थी। एक दिन तो कै दस्त से मरने वालो की संख्या 28 तक पँहुच गई! मुर्दा ढ़ोना ही बचे खुचे लोगो का काम हो गया एक मुर्दा श्मशान पहुँचा कर आते न आते दूसरा मुर्दा तैयार मिलता। कहीं कहीं तो खुली गाडियो मे पाँच सात मुर्दे एक साथ ही भरकर खेतो मे फेंक दिये गये ऐसे अवसरों पर छत्तीसगढ़ मे अंधविश्वास भयानक रुप से प्रबल हो उठता है। विशूचिका का सम्बन्ध लोग टोनहियों (डायनों) से जोड़ते हैं। इसलिये जिन औरतों पर टोनही होने का शक होता था उन्हें लोग तरह-तरह से सताते थे। रात को दूर लालटेन की टिमटिमाती रोशनी भी दिख जाती तो लोग 'टोनही टोनही' चिल्लते हुये बेतहाशा दौड़ पड़ते थे। श्यामलाल को भी हैजा हो गया। कै-दस्त से पस्त होकर उसने आँखें मूँद लीं। उसकी माता सुनीता वह वज्रपात नहीं सह सकी। साथ ही वह भी हैजे की चपेट में आ कर दीनदयाल, जवान विधवा बहू और श्यामलाल के छोटे से पुत्र महेन्द्र को छोड़ कर सदा के लिये चली गई।

दीनदयाल के पास वही बच्चा खेल रहा था। खेलते-खेलते वह गिर गया और रोने लगा। पर दीनदयाल तो अतीत की यादों में खोये थे।

"अरे, अरे, गिर गया रे महेन्दर। चुप हो जा। मत रो बेटे।" सहसा किसी ने पुचकारते हुये कहा।
दीनदयाल रजिस्टर पर से आँखें उठा कर देखा तो राजवती महेन्द्र को बाहों में लिये चुप करा रही थी।
"कब आई राजो? न खबर थी और न तुम्हारे आने की आशा ही। सब कुशल तो है?" दीनदयाल ने पूछा।
"हाँ काका, सब ठीक है पर बात ही कुछ ऐसी आ गई कि आपके पास आना पड़ा।" राजो ने उत्तर देते हुये महेन्द्र को नीचे उतारा।

"सदाराम और श्यामवती कहाँ हैं?" दीनदयाल ने पूछा।

"उन्हें भी साथ लाई हूँ। अरे अभी तो यहीं थे।" कहकर राजवती ने इधर-उधर देखा।

"और महेन्द्र! वह शैतान भी कहाँ गया?" दीनदयाल ने भर्राये और घबराये स्वर में कहा।

राजवती और दीनदयाल की आँखें तीनों बच्चों को ढँढने लगीं। आखिर राजवती ने उन्हें ढूँढ ही निकाला। वे तीनों दीनदयाल की पीठ की ओर कुर्सी के पिछले भाग में छिप गये थे और महेन्द्र उचक कर दीनदयाल की चुटिया खींचने के प्रयत्न में था।

"अरे, ये तीनों तो यहाँ तुम्हारी पीठ के पीछे छिपे हैं और इस बन्दर महेन्द्र को तो देखो, आपकी चुटिया खींचने की तैयारी में है।" राजवती हँसती हुई बोली।

"ऐसा क्या। शैतान कहीं के। इधर आओ तुम तीनों।" दीनदयाल ने बनावटी क्रोध का प्रदर्शन करते हुये कहा। मगर दीनदयाल के आने के बदले तीनों बच्चे भाग गये।

उनके चले जाने पर गम्भीर होते हुये दीनदयाल ने कहा, "हाँ, तो क्या बात हो गई बिटिया?"

"मैने सिकोला सदा के लिये छोड़ दिया है काका" कहते-कहते राजो की बड़ी बड़ी आँखों से झर झर आँसू बहने लगे।

"रो मत बेटी, बता तो सही आखिर हुआ क्या?" दीनदयाल ने आश्वासन देते हुये पूछा।

"बात ही कुछ ऐसी है जो मेरे स्वभाव के विपरीत-" राजो अपना वाक्य पूरा नहीं कर पाई थी कि दरवाजे पर किसी का कठोर स्वर सुनाई दिया, "चल तो मालगुजार के पास। बताता हूँ सब कुछ।"

दीनदयाल और राजवती की आँखें दरवाजे की ओर लग गईं। दोनों ने देखा कि अगनू अपनी स्त्री रधिया को बाल पकड़ कर धमकी देता खींचता ला रहा था। साथ में भगवानी भी था जो बड़बड़ा रहा था, "चलो, चलो, मालगुजार हमारे जातीय मामले में वही सलाह और न्याय देंगे जो हममें चलता है। वे हमसे हमारे रिवाज को तो अलग नहीं कर देंगे।"

उन तीनों के साथ गाँव के बहुत से छोटे-बड़े लोग भी थे। सब दीनदयाल के पास आ पहुँचे। दीनदयाल ने राजो से कहा, "बेटी, तू भीतर अपनी भाभी के पास जा। मैं देखता हूँ बात क्या है।"

"काका, मैं भी तो इसी गाँव की बेटी हूँ। मैं भी देखूँगी क्या झगड़ा है।" कह कर राजो वहीं खड़ी रही। राजो ने देखा कि रधिया के बाल बिखर गये थे, चेहरा तमतमाया था और दो-तीन चूड़ियाँ फूट गईं थी जिनके टुकड़ों के गड़ जाने से कलाई से खून बह रहा था। राजो समझ गई कि मामला कुछ टेढ़ा और गम्भीर है।

"क्या है रे अगनू, क्या हुआ?" दीनदयाल के ईस प्रश्न पर अगनू कुछ शर्मा गया और उत्तर न दे सका। नीची निगाह किये खड़ा रहा।

"यह क्या बतायेगा मालिक। इसमें दम ही क्या है।" भगवती कहता गया, "इसकी स्त्री रधिया मेरे घर "पैठू" ("पैठू" संस्कृत के 'प्रविष्ट' शब्द का बिगड़ा हुआ रूप है। जब कोई विधवा या सुहागिन दूसरे मर्द के घर उसकी पत्नी के रहते या न रहते उसकी राजी खुशी से घुस आती है तब उसे पैठू कहते हैं।) घुस गई है। अगनू इसे वापस ले जाना चाहता है। पर यह जाना नहीं चाहती। इसलिये इसने मेरे घर घुस कर रधिया को मारा और घसीटता हुआ आपके पास ले आया। मैं चाहता तो अगनू की लाश गिरा देता पर मैं सब कुछ रधिया के ऊपर छोड़ता हूँ। उसकी इच्छा हो तो वह अगनू के साथ अपने पुराने घर को चली जाय।"

दीनदयाल और राजवती की समझ में अब बातें आ गईं। रधिया की यह चाल देख कर राजवती को गहरा ठेस लगा। दीन दयाल के कुछ कहने से पहले ही राजवती बोली, "मै तुमसे एक बात पूछती हूँ भगवानी।"

"क्या पूछती हो राजो?" भगवानी बोला।

"यही कि तुम्हारी तो पत्नी है न?"

"हाँ है तो। लेकिन रधिया के ऊपर सब कुछ है। अगर वह मेरे धर आना चाहती है तो दोनों को चला लूँगा।" भगवानी ने गर्व से छाती फुलाते हुये कहा।

"तो मैं देखती हूँ कि इसमें रधिया का नहीं पर तुम्हारा बहुत ज्यादा हाथ है। रधिया का क्या। वह तो औरत ठहरी। इस तरह से तुम्हारी ओर से बढ़ावा न मिले तो क्या उसका साहस बढ़ सकता है? और फिर यह कुछ अच्छा है क्या? मान लिया कि हमारे गाँवों में ऐसा होता है। तो क्या इसीलिये ऐसा करना ही चाहिये या खराब बातों को दूर करनी चाहिये?" फटकारती हुई राजवती बोली।

अब तक अगनू चुप था। अब उसका भी साहस बढ़ा और वह बोला, "राजो बहिन का कहना बिल्कुल ठीक है। इन्हीं सब बातों से तो हम न पनप सके हैं और न पनप सकेंगे।"

वाह रे निखट्टू। राजो से साहस पा कर बड़बड़ाने लगा। जा नहीं जाती तेरे घर। क्या कर लेगा मेरा।" अगनू से रधिया ने फुँफकारते हुये कहा।

"रधिया, तू ही जब ऐसा कह और कर रही है तब तो हो चुका। ऐसे से औरत जात की मरजादा कहाँ रह जायेगी। राजवती ने रधिया को समझाया पर रधिया के मन में उसकी बात उसी प्रकार नहीं जमी जैसे औंधे घड़े में पानी की एक बूँद भी नहीं जाती। रधिया ने राजवती से केवल इतना ही कहा, "राजो, मैं तुम्हारे हाथ जोड़ती हूँ। हम लोगों के बीच में मत पड़।"

राजवती चुप हो गई। समझ गई कि रधिया के मन पर सदियों का जो मैल जमा है उससे वह अन्धी हो रही है। वह किसी हालत से भी नहीं मानेगी। चुप रह जाना ही अच्छा है। उसे ठेस लगी। उसका हृदय तिलमिला रहा था वह जिन बातों को अपनी जन्मभूमि से - अपने गाँवों से - मिटी हुई देखना चाहती थी वे ही बातें उसकी आँखों के सामने हो रही थीं।

अभी तक दीनदयाल बड़े आश्चर्य से सब कुछ चुपचाप देख-सुन रहे थे और राजो के विचारों को समझ कर अचरज कर रहे थे। गर्व से उनकी चाती फूल रही थी। उनसे न रहा गया और वे बोले, "राजो, इनको तो इस समय शायद भगवान भी नहीं समझा सकेंगे, तेरी क्या बिसात है। जाने दे। मरने दे इन लोगों को। अभी हमारे छत्तीसगढ़ का ऐसा भाग्य ही कहाँ जो लोग अच्छी बातों को समझ सकें।" फिर उन्होंने आय हुये लोगों के सामने अपना विवश निर्णय देते हुये कहा, "भाइयों, सचमुच इस मामले में मैं बहुत दुःखी हुँ। हम लोगों में ऐसा नहीं होता। यदि हमारे समाज में कोई स्त्री ऐसा करे जीते जी उसका मुँह ही न देखें। मेरी चले तो मैं रधिया को अगनू का घर न छोड़ने के लिये ही कहूँ पर, विवश मन से ही सही, कहना पड़ता है कि जब तुम लोगों में ऐसा होता है तो मैं क्या कर सकता हूँ। अगनू, तुम अपने रिवाज या कायदे के मुताबिक भगवानी से अपनी शादी का खर्च ले लो। जब तुम्हारी ब्याहता रधिया ही नहीं मानती तब सिवाय इसके तुम कर भी क्या सकते हो।"

दीनदयाल के द्वारा यह निर्णय सुन कर सब संतोष के साथ चले गये। तब दीनदयाल ने राजो से पूछा, "हाँ, तो राजो, अब बतावो क्या हुआ?"

"क्या बताऊँ काका, हममें जो प्रथायें चली हैं उनसे मैं परेशान हूँ। सिकोला में दुर्गाप्रसाद ने मुझे तंग कर रखा था। कहता था - 'मेरे घर चलो। मेरा हाथ पकड़ लो।' पर मुझे इन सब बातों से बड़ी चिढ़ है।" राजो ने निर्भीकता, दृढ़ता और शान्ति से उत्तर दिया।

"लेकिन वहाँ के घर-द्वार, खेती-बाड़ी का क्या होगा?" दीनदयाल ने प्रश्न किया।

"आपके रहते क्या उन सबका प्रबन्ध नहीं हो जावेगा। पहले मैंने उन सबको बेच देने के लिये सोचा पर बात मुझे ही नहीं जँची। उनकी और सास-ससुर की जमीन-जायदाद बिगाड़ना मैंने अच्छा नहीं समझा। किसी दिन बच्चे बड़े होंगे तो उन्हें सिकोला में भी पैर रखने की गुंजाइश तो रहेगी।" कहते कहते राजवती का गला रुँध गया, आँखें भर आईं। सिकोला उसका निजी घर हो चुका था। वहाँ उसके जीवन का दीर्घ समय बीता था। "और फिर काका," राजो कुछ उत्तेजित-सी होकर परन्तु संयम का साथ कहती गई, "आप ही लोगों के मुँह से सुना है कि मायके से ससुराल गई हुई स्त्री की अर्थी वहीं से निकलनी चाहिये। इस विचार से भी मैंने सिकोला से पूरा सम्बन्ध नहीं तोड़ा है कि भगवान ने चाहा तो मेरी मौत वहीं हो।"

राजवती की बातें सुनकर दीनदयाल को गर्व का अनुभव हुआ। उन्हें लगा मानो आज सचमुच ही राजो उनकी सगी सन्तान है। उन्होंने राजो को अपनी सगी बेटी की तरह कभी न माना हो ऐसी बात नहीं थी किन्तु आज तक उनकी यह भावना प्रबलतम हो उठी। उनकी आँखों की कोरों में हर्ष के कारण आँसू छलकने वाला था पर उन्होंने बल पूर्वक उसे रोक रखा, राजो भाँप न सकी।

दीनदयाल ने उल्लस भरे शब्दों में कहा, "अच्छा ही किया बिटिया तूने। अब किसी बात की चिन्ता मत कर। अभी तेरे इस बूढ़े काका में भीमसेन के समान काम करने की ताकत है। मैं सब सम्भाल लूँगा। जा तू अपनी भाभी के पास। भविष्य में क्या करना होगा इसे मैं सोच कर सब ठीक कर लूँगा।
राजो भीतर बहू के पास चली गई। दीनदयाल की बहू का नाम सुमित्रा देवी था। वह रसोई घर से आड़ में छिप कर सब कुछ सुन रही थी। जैसे ही राजो उसके पास पहुँची, सुमित्रा ने चुटकी लेते हुये कहा, "क्यों री राजो, चली क्यों नहीं जाती दुर्गाप्रसाद के घर उसका हाथ पकड़ कर। दो महीना पहले तेरे काका के पास वह आया था तो मैंने उसे देखा था। वह तो पूरा साँड़ है साँड़।"

"वाह सुमित्रा भाभी, तुम्हीं न चली जावो उस साँड़ के साथ।" राजवती ने तुरन्त ही उत्तर दिया।

"हममें ऐसा रिवाज होता तो जरूर चली जाती।" सुमित्रा ने हँसते हुये कहा।

"भाभी, पहले तो तुम लोगों में न तो यह रिवाज है और न होगा। अगर हो भी जाये तो भी मैं तुम्हें अच्छी तरह जानती हूँ, तुम मुझसे भी अधिक अड़ियल हो। तुम या तो उस रिवाज को ही मिटा देतीं या खुद मर मिटती।" राजो ने विनोद के वातावरण में गम्भीरता का संचार किया।

अपनी सच्ची आलोचना सुनकर सुमित्रा को अपने चारों ओर स्वर्ग-सुख बिखरा हुआ जान पड़ा। उसे लगा कि श्यामलाल की आत्मा उसकी अन्तरात्मा से तिल भर भी दूर नहीं है। श्यामलाल मानो उससे कह रहा है 'मैं तुम्हारी बाट जोहता रहूँगा चाहे तुम पृथ्वी से सौ साल बाद ही क्यों न मेरे पास आवो।"

(क्रमशः)

Friday, September 14, 2007

धान के देश में - 6

लेखक स्व. श्री हरिप्रसाद अवधिया

(छत्तीसगढ़ के जन-जीवन पर आधारित प्रथम आंचलिक उपन्यास)

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सिकोला पहुँच कर राजवती ने नये जीवन में पैर रखे। उसने अपने आपको ससुराल के योग्य बना लिया। घर में सास, ससुर और श्यामलाल के सिवाय और कोई नहीं था। घर सम्पन्न था तथा किसी भी प्रकार का कष्ट नहीं था। सास ससुर बहुत दिनों तक जीते रहे किन्तु उनके जीते जी राजवती को कोई सन्तान नहीं हुई। पर उन दोनों ने इसके लिये न तो कभी कोसा और न ही कभी मंशाराम के दूसरे ब्याह की बात की। सास-ससुर का देहांत होने तक राजवती सत्ताइस-अट्ठाइस वर्ष की हो चुकी थी।
राजवती के सास-ससुर की मृत्यु की घटना भी बड़ी अपूर्व थी। दोनों बहुत दिनों से बीमार थे और उसके सास की मृत्यु के दिन दस मिनट बाद ही ससुर की भी मृत्यु हो गई। गाँव के रिवाज के अनुसार खटिया उल्टी की गई और उस पर उन दोनों की लाशें एक साथ रखकर गाँव के पास नाले के किनारे स्थित श्मशान में पहुँचाई गई। वहाँ मिट्टी के टीले गाँव के दिवंगत व्यक्तियों की याद दिला रहे थे। कहीं टूटी खाट पड़ी थी तो कहीं खाट की टूटी रस्सियाँ। एक ही गढ़ा खोद कर दोनों की लाशे दफना दी गईं।

अब घर गृहस्थी का पूरा भार मंशाराम पर आ पड़ा। वह मनमौजी तबियत का आदमी था। राजवती को वह कुछ भी कष्ट नहीं देता था बल्कि अपनी राजो को वह राजरानी बना कर रखता था। उसके मनमौजी होने के कारण गृहस्थी का बोझ यथार्थ में राजवती के सिर पड़ा जिसे उसने बड़ी धीरता और चतुराई से संभाला। इधर उसके मायके खुड़मुड़ी में उसके माता-पिता भी स्वर्ग सिधार चुके थे। वहाँ की थोड़ी-सी पैतृक खेती उसे ही मिली थी जिसकी देखभाल वह समय-समय पर वहाँ जाकर खुद करती थी। सास-ससुर के मरने के सालभर बाद ही सदाराम का जन्म हुआ और उसके जन्म के दो साल बाद श्यामवती का जन्म हुआ। मंशाराम अब मूछों पर ताव देता फिरता था। राजवती के लिये उसका प्रेम चौगुना हो गया था और दोनों बच्चों को प्राणों से भी बढ़ कर चाहता था। पर उसके मनमौजी स्वभाव में कोई अन्तर नहीं पड़ा। सिकोला के लोग कहते थे कि श्यामवती और सदाराम के रूप में राजो के सास-ससुर ने ही फिर से जन्म लिया है।

उन्हीं दिनों गाँव में एक साधु आया। साँप पकड़ने के मंत्र में वह सिद्ध था। उसने मंत्रों से कई विषधर पकड़े और लोगों को आमंत्रित किया कि वे भी साँप पकड़ने का मंत्र सीख लें। और तो कोई नहीं पर मंशाराम ने साधु की बड़ी सेवा की और मंत्र सीख लिया। साधु रमता जोगी थे। वे चले गये।
बरसात के दिन थे। भादो का महीना। घनघोर घटा छाई हुई थी। मूसलाधार वर्षा हो रही थी। दिन के बारह बजे होंगे पर काली घटाओं के कारण ऐसा मालूम हो रहा था कि शाम के सात बज गये हों! मंशाराम खेत से लौट रहा था। चौपाल तक आते-आते उसे सुनाई दिया, "साँप साँप"। कुछ ही दूरी पर कुछ लोग जुड़े हुये थे और एक काला नाग सनसनाता हुआ खेत की ओर चला जा रहा था। मंशाराम अकड़ता हुआ भीड़ के पास गया और लोगों को पीछे हटाते हुये कड़क कर बोला, "हट जाओ और अब मेरी करामात देखो।"

उसने मंत्र बुदबुदाते हुये साँप को सिर के पास दबा कर उठा लिया। साँप ने मंशाराम के हाथ को पूरी तरह से जकड़ रखा था। मंशाराम गर्व से छाती फुलाये चला। उसके पीछे हँसती-उछलती भीड़ भी चली। दस कदम ही चलने पर "आह" कह कर गिर पड़ा। मंशाराम के उँगलियों के बंधन में कुछ शिथिलता होने पर अवसर पाकर साँप ने काट दिया था। लोगों में सनसनी फैल गई। क्षण भर में ही यह दुर्घटना सबको मालूम हो गई और लोग दौड़ कर वहाँ इकट्ठे हो गये। मंशाराम के गिरते ही साँप मंशाराम के हाथ को छोड़ कर खेतों की ओर सरकने लगा। बहुत देर तक जकड़े रहने के कारण वह शिथिल हो गया था और जल्दी भाग नहीं पा रहा था। तुरन्त ही लोगों ने उसे लाठियों और पत्थरों से मार डाला। मंशाराम अचेत हो गया। झाड़-फूँक करने और जहर उतारने वाले बुलाये गये। किन्तु मंशाराम फिर कभी नहीं उठा। राजवती रोती-चिल्लाती पछाड़ खाकर लाश पर गिर पड़ी। अंततः मंशाराम की स्याह पड़ी हुई लाश को दफना दिया गया।

राजवती अपने दोनों बच्चों का पालन-पोष करती हुई दुःख के दिन बिताने लगी। घर में काम करने वाला कोई मर्द नहीं रह गया था और वह स्वयं बच्चों के कारण काम के लिये बहुत कम समय निकाल पाती थी। धीरे-धीरे खेत के टुकड़े बिकते गये और सम्पन्नता समाप्त होती गई। इस प्रकार सदाराम सात वर्ष का और श्यामवती पाँच वर्ष की हो गई। वैसे तो गाँव के सभी लोग राजवती के उजड़े परिवार से सहानुभूति रखते थे पर दुर्गाप्रसाद उसके प्रति विशेष प्रेम रखता था और प्रथा के अनुसार उसे 'चूड़ी पहना' कर अपनी पत्नी बना लेना चाहता था पर उस दिन राजो का अंतिम उत्तर सुनकर उसे घोर निराशा हुई।

जिस शाम को दुर्गाप्रसाद निराश होकर राजवती के घर से चला गया उस रात वह सो न सकी। मंशाराम के मरने के बाद उसने किसी के साथ सम्बंध न जोड़ने का निश्चय कर लिया था। आज उसका वही निश्चय घोर विपत्ति में था। दुर्गाप्रसाद की बातों पर बड़ी देर तक सोचने के बाद राजो ने अपने निश्चय पर टिके रहने का दृढ़ संकल्प किया़ उसे ऐसा जान पड़ा मानो उसका घर, गाँव, यहाँ तक कि समस्त संसार उससे दूर जाकर धुँधला होता हुआ अदृश्य हो गया है। पर उसके मुखमण्डल पर दिव्य ज्योति थी।

(क्रमशः)

Thursday, September 13, 2007

धान के देश में - 5

लेखक स्व. श्री हरिप्रसाद अवधिया
(छत्तीसगढ़ के जन-जीवन पर आधारित प्रथम आंचलिक उपन्यास)

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राजवती के ब्याह के समय दीनदयाल का बेटा श्यामलाल भी लगभग दस वर्ष का ही था। उसने प्रायमरी पास कर अंग्रेजी पाठशाला में पैर रखा था। तब रायपुर शिक्षा का केन्द्र नहीं था। रायपुर क्या पूरा छत्तीसगढ़ शिक्षा के क्षेत्र में बहुत पिछड़ा हुआ था। जिसके पास पैसों की सुविधा होती वह अंग्रेजी पढ़ पाता था। लोग अंग्रेजी पढ़ना बड़े ही सौभाग्य की बात मानते थे और अंग्रेजी जानने वालों का बड़ा सम्मान होता था। दीनदयाल श्यामलाल को ऊँची से ऊँची शिक्षा दिलाना चाहते थे।

माता-पिता की प्रबल इच्छा यही होती है कि उनकी सन्तान सदैव सुखी रहे। इसके साथ ही वे अपने पुत्र या पुत्री का विवाह भी अपने सामने कर देना चाहते हैं। श्यामलाल की माता भी इसी सुख के लिये बहुत उत्सुक थी। दीनदयाल सुधारवादी थे। वे बाल-विवाह का विरोध करते थे। उनका विचार श्यामलाल के वयस्क हो जाने के बाद ही उसका विवाह करने का था। पर धर्मपत्नी के आगे उनकी एक न चली और कम उम्र में ही श्यामलाल का ब्याह करने के लिये उन्हें विवश होना पड़ा। फिर भी अपनी पत्नी को इस बात के लिये राजी कर लिये कि जब वर-वधू सयाने हो जावेंगे तभी गौना किया जावेगा। उन दिनों एक प्रथा यह भी थी कि यदि लड़की और लड़का बड़े होते तो उनका विवाह और गौना साथ साथ हो जाता था पर यदि दोनों की उम्र छोटी रहती तो विवाह के तीन या चार या पाँच साल बाद गौना और छः-सात साल बाद ही दूसरा गौना कर दिया जाता था। श्यामलाल के लिये इसी प्रथा का पालन किया जाने वाला था।

श्यामलाल का विवाह विन्ध्य प्रदेश में स्थित अनूपपुर में निश्चित हुआ। श्यामलाल की माता की खुशी का ठिकाना नहीं था। लग्न हुआ, सगाई (फलदान या तिलक) हुई। बारात निकलने के तीन दिन पहले दीनदयाल के रायपुर वाले घर के आँगन में 'मड़वा' (मंडप) गाड़ दिया गया और वर को 'तेल-हल्दी' लगाने का नेग शुरू हुआ। उसी दिन से ही 'मड़वा-नेवता' का भी आरम्भ हुआ जिसमें दीनदयाल के रिश्तेदार तथा सहभोजी बारात निकलने के दिन तक भोजन करते रहे। तीसरे दिन बारात जाने की तैयारी हुई। स्त्रियाँ गुड़ियों की तरह रंग-बिरंगे कपड़ों और गहनों में सज-धज कर उल्लास फैलाती हुईं इधर से उधर व्यस्त थीं। कुछ औरतों की प्रसन्नता गीत बन कर गूँज रही थी -

घेरी बेरी बरजेंवँ दुलरू दमाद राय,
दूर खेलन मत जाव हो।
दूर खेलत सुवना एक पायेव,
लइ लानेव बहियाँ चढ़ाय हो।
बारे दुलरुवा के हरदी चढ़त हय,
सुवना करत किलकोर हो।
तुम तो जाथव बाबा गौरी बिहाये,
हमहु क ले लौ बरात हो।
अइसन दुलरू मैं कबहुँ नहिं देखेंव,
सुवना ला लाये बरात हो।

उन दिनों आजकल जैसे बस, मिनीबस आदि की सुविधा रायपुर में उपलब्ध नहीं थी अतः बारात की भीड़ रात के समय रेल्वे स्टेशन पहुँची। छोटे-बड़े सभी मिला कर कोई दो सौ आदमी रहे होंगे। प्लेटफॉर्म पर कुछ बाराती इधर-उधर घूमते हुये और अधिकांश श्यामलाल और दीनदयाल के साथ अपने बिस्तरों और पेटियों के बाजू से बैठे थे। कुछ अधेड़ और बूढ़े बाराती बंद कालर का लंबा कोट, रेशमी धोती, पैरों में मोजे-जूते पहने और सिर पर पगड़ी बाँधे हुये थे। युवकों ने साफ धुली हुई धोती और कमीज से अपना श्रृंगार कर रखा था। उनमें से प्रायः प्रत्येक के सिर पर टोपी थी। बिरला ही एकाध बाराती बिना टोपी का रहा होता। उन दिनों बारात में कोट-पतलून-टाई से सुसज्जित होकर जाना अशुभ, भद्दा और अनुचित माना जाता था।

समय पर पैसेंजर गाड़ी आई। प्लेटफॉर्म पर हो-हल्ला मच गया। उतरने और चढ़ने वाले यात्रियों की भीड़ की हलचल से प्लेटफॉर्म एक छोटा-सा संसार ही बन गया था। दो डब्बों में बारातियों ने अपना कब्जा ऐसा जमाया मानो वे उनके मालिक ही हों। इस तरह से कहकहे लगाते, हा-हू के आलम में खोये सभी लोग अनूपपुर पहुँचे। वहाँ पर बारात की शानदार अगुवानी हुई। कन्या-पक्ष वालों ने विशेष सतर्कता इस बात के लिये दिखाई कि बारातयों को तिल भर भी कष्ट न हो। वहाँ घोड़े पर बैठकर बैण्ड के साथ श्यामलाल की बारात घुमाई गई, बारात के परम्परायें पूरी होने पर रात्रि भोजन का प्रबंध था जिसमें लोग खाते-खाते छक गये पर कन्या-पक्ष वाले श्रद्धापूर्वक खिलाते हुये नहीं थके। दूसरे दिन शुभ लग्न में श्यामलाल का पाणिग्रहण-संस्कार पण्डित जी के द्वारा वेद मंत्रों के उच्चारण के साथ वैदि पद्धित से सम्पन्न कराया गया। सम्मान और स्नेह पा कर बारात लौट आई।

परम्परा के अनुसार श्यामलाल की बहू ने 'चौथिया-नेवता' में समस्त रिश्तेदारों तथा सहभोजियों को खिचड़ी परसा। दो-चार दिनों के पश्चात् बहू को मायके भेज दिया गया।

(क्रमशः)

Wednesday, September 12, 2007

धान के देश में - 4

लेखक स्व. श्री हरिप्रसाद अवधिया

(छत्तीसगढ़ के जन-जीवन पर आधारित प्रथम आंचलिक उपन्यास)

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देखते-देखते सात-आठ साल बीत गये। राजवती गाँव में स्वच्छंद घूमती थी। गाँव में लड़कियाँ छोटी उमर से ही अपने घर का काम-काज संभाल लेती हैं। राजवती इस नियम का अपवाद नहीं थी। गाय का कोठा साफ करना, तालाब में खूब नहाना, गोबर इकट्ठा कर उपले पाथना, धान कटाई के दिनों में 'सीला बीनना' (खेत से कटे हुये धान को खलिहान तक ले जाने में जो धान की बालियाँ गिर जाती हैं उसे इकट्ठा करना), दोपहर में पिता के लिये "बासी-चटनी-प्याज" लेकर जाना, कुछ समय हमजोली लड़कियों के साथ खेलना उसकी दिनचर्या का अनिवार्य अंग था। इतनी सी उम्र में ही गाय-भैंस दुहने का अच्छा अभ्यास हो गया था।

प्रायः रोज ही राजवती दीनदयाल के घर जाकर झाड़ने-बुहारने, बर्तन मांजने, पानी भरने आदि कामों में अपनी माँ की सहायता किया करती थी। दीनदयाल और सुनीता का भी राजवती के प्रति स्नेह था। राजवती उन्हें 'काका-काकी' संबोधित करती थी। सुनीता श्यामलाल के साथ राजवती को भी खाने के लिये मावे की मिठाई, जिसका निर्माण घर में ही कर लिया जाता था, दे दिया करती थी। गाँव में बुधवार के दिन हाट लगती थी। उस दिन श्यामलाल के साथ राजवती को भी एकाध पैसे अवश्य मिलते थे और वह मनचाही चीजें खरीद कर प्रसन्न हो जाती थी।

नित्य रात्रि को दीनदयाल के घर रामायण की कथा होती थी। दीनदयाल रामायण के दोहे तथा चौपाइयों का बड़ा ही सरल और भावुक अर्थ करते थे जिसे सुन कर गाँव के अनपढ़ लोगों के हृदय भी भावुक और आनन्द-विभोर हो जाते थे। रामायण प्रारम्भ होने के पहले लोग एक-एक कर दीनदयाल के घर अपनी लाठियाँ लिये आते, दरवाजे पर अपनी 'भंदइ' (स्थानीय चप्पलें) उतारकर तथा लाठियाँ किनारे रख कर बैठक में बैठते जाते थे। राजवती भी अपने पिता के साथ रोज ही रामकथा सुनने आती थी। अनपढ़ होते हुये भी वह अत्यंत कुशाग्र-बुद्धि थी। रामायण के दोहे और चौपाइयाँ अर्थ सहित उसे याद हो गईं थीं। सीता माता के किसी भी प्रसंग पर उसके कोमल हृदय में शान्ति, दृढ़ता, आदर्श और सहनशीलता के भाव उठते और अपने अमिट संस्कार छोड़ जाते थे।

राजवती अब दस बरस की हो गई थी। छत्तीसगढ़ में उन दिनों बाल-विवाह का चलन था और चार-पाँच साल के लड़के-लड़कियों का ब्याह हो जाता था। राजवती को भी माँगने के लिये तीन-चार साल पहले लोग आ चुके थे किन्तु दीनदयाल की बात मान कर बिरझू ने उसकी शादी नहीं की। पर जाति की परंपरा के अनुसार अब राजवती का विवाह अनिवार्य हो गया था।

एक दिन बिरझू गायें चराता हुआ खुड़मुड़ी की सीमा से लगे सिकोला गाँव की सीमा तक जा पहुँचा। वहाँ उसकी भेंट सिकोला के रामप्रसाद से हो गई। दोनों ने एक दूसरे को "राम राम" कहा और एक पेड़ की छाया में बैठ कर बातें करने लगे। कुछ देर तक इधर उधर की बातें करने के बाद रामप्रसाद ने कहा, "सुनो बिरझू, मैंने तुम्हारे गाँव के हाट में तुम्हारी लड़की को देखा है और मेरे विचार से वह मेरी बहू बनने के योग्य है। क्या तुम उसे मेरे लड़के के लिये देने के लिये राजी हो?"
बिरझू रामप्रसाद की अच्छी स्थिति के विषय में पूरी तरह से जानता था इसलिये दो-तीन मिनट सोचने के बाद उसने जवाब दिया, "मैं राजी हूँ। आज से हम तुम समधी हुये। अब यह बताइये कि आप लगन ले कर कब आ रहे हैं?" रामप्रसाद ने चार दिन बाद सोमवार को लगन लेकर आने का वादा कर दिया।
और सोमवार को रामप्रसाद 'अरसा' (एक छत्तीसगढ़ी व्यंजन) लेकर लगन के लिये पहुँच गया। बिरझू ने ब्राह्मण बुलाकर लगन करवाया और विवाह के अगले कार्यक्रम निश्चित हो गये।

अपने ब्याह की बात सुन कर राजवती को कौतूहल हुआ जिसमें खुशी का अंश भी मिला हुआ था। उसने कई लड़कियों के विवाह होते देखे थे। वह इतना अवश्य जानती थी कि ब्याह के बाद लड़कियाँ माँ-बाप का घर छोड़ कर ससुराल चली जाती हैं। उनमें से कई लड़कियों को कुछ दिन या महीने बाद माँ-बाप के घर वापस आते तथा कुछ दिन रहने के बाद किसी और के घर जाते भी देखा था। ऐसे मौकों पर वह देखती थी कि पंचायते होतीं और लड़की की इच्छा पर उसका सम्बंध उसकी ससुराल से तोड़ नये पति और नये घर से जोड़ दिया जाता था। लड़की का नया पति उसके पुराने पति को ब्याह का खर्च देकर हर्जाना भरता और 'बिहाता तोड़ने' का रिवाज पूरा करता था। लोगों को न्यौता दिया जाता था और वे खा-पी कर मस्त हो जाते थे। किन्तु न जाने क्यूँ राजवती को यह सब कभी भी अच्छा नहीं लगा।

निश्चित समय पर सिकोला से बारात खुड़मुड़ी आई। बाराती छकड़ों पर सवार थे। एक गाड़ी में लगभग चौदह-पन्द्रह वर्ष का मंशाराम दूल्हा बना बैठा था - सिर पर मौर, आँखों में काजल की मोटी-सी काली रेखा, पीला कुरता और पीली धोती पहने। छकड़ों में फँदे बैलों की घंटियाँ छनछना उठीं। बारात गाँव के तालाब के किनारे रुकी। धमाधम बाजे बजे। और बिरादरी की प्रथा के अनुसार राजवती का ब्याह मंशाराम से हो गया।

विदा कराने के बाद जब बारात लौट रही थी तब पीले कपड़ों से सजी राजवती और उसका पति मंशाराम एक ही छकड़े पर बैठे हुये जा रहे थे। मंशाराम अकचका कर अपनी नई साथिन को देख रहा था और राजवती आँखें नीचे की ओर गड़ाये थी। दोनों के सिर पर मौर बँधे थे। जब छकड़ा गाँव के तालाब के पास से निकला तब राजवती के हृदय में होश संभालने से ले कर अब तक की स्मृतियाँ उभर आईं। कितनी बार वह इस तालाब में तैर-तैर कर नहा चुकी थी। कमल के फूल और पत्ते तोड़े थे। किनारे पर प्रतिष्ठित शिव-मूर्ति पर जल चढ़ाया था। गाँव की सीमा पर के पीपल के तीनों वृक्ष योगियों की भाँति तपस्या करते हुये और उसे सांत्वना तथा आशीर्वाद देते हुये से दिखाई दिये। राजवती ने मन ही मन उन्हें प्रणाम किया मन भारी हो रहा था। आँखें उमड़ रही थीं। जागती हुई भी मानो वह अपने माता-पिता, दीनदयाल, सुनीता और गाँव की एक-एक परिचित वस्तु का स्वप्न देख रही थी।
इस प्रकार राजवती मायका छोड़ कर ससुराल चली गई - खुड़मुड़ी से सिकोला।

(क्रमशः)

Tuesday, September 11, 2007

धान के देश में - 3

लेखक स्व. श्री हरिप्रसाद अवाधिया

(छत्तीसगढ़ के जन-जीवन पर आधारित प्रथम आंचलिक उपन्यास)

-3 -

बिरझू था तो दीनदयाल का नौकर। पर उसके कुटुम्ब के प्रति दीनदयाल एवं उनके कुटुम्ब का व्यवार अत्यंत सहृदयतापूर्ण था। जिस समय राजवती का जन्म हुआ उस समय दीनदयाल की पत्नी सुनीता भी गर्भवती थी। प्रसव के पहले बिरझू की पत्नी दीनदयाल के घर का प्रायः सभी काम-काज कर अपनी मालकिन को अधिक से अधिक आराम पहुँचाती थी। यद्यपि अपने प्रसवकाल के के अन्तिम कुछ दिनों में उसने काम पर आना बंद कर दिया था किन्तु राजवती के जन्म के केवल कुछ ही दिनों के बाद उसने काम पर आना शुरू कर दिया।

खुड़मुड़ी गाँव का मालगुजार होने के नाते अवश्य ही दीनदयाल का एक घर गाँव में था किन्तु उनका वास्तविक घर रायपुर में था, जहाँ उनके बिरादरी के सभी लोग रहते थे। राजवती के जन्म के चार माह बाद सुनीता के गर्भ के आठ महीने पूरे हुये और नवाँ लगा। प्रसव पूर्व के सारे नेग-चार बिरादरी वालों के बीच होना था इसलिये सुनीता को रायपुर लाने की व्यवस्था की गई। दोपहर के दो-तीन बजे दीनदयाल के घर के सामने बिरझू ने बैलगाड़ी लाकर खड़ा कर दिया जिसमें बड़ी-बड़ी सींगों वाले सुंदर सफेद बैल जुते हुये थे। बैठने वाली जगह पर पहले बहुत सारा पैरा (पुआल) डाला गया था, फिर उस पर गद्दे तथा चादर डाल दिये गये थे। दीनदयाल तथा सुनीता के उस पर बैठ जाने पर बिरझू ने बैलों को हाँक दिया और गाड़ी चलने लगी। गाँव के दैहान को पार करने के बाद 'नरवा' (नाला) पड़ता था और उसके बाद खेतों का सिलसिला शुरू हो जाता था।

नरवा पार करके बैलगाड़ी मंथर गति से खेतों के बीच 'गाड़ी-रावन' (बैलगाड़ी के दोनों चक्कों से बनी पगडंडी) पर चली जा रही थी। धान काटने के बाद किसानों ने खेतों तथा उसके मेढ़ों में अलसी, सरसों और तिवरा के बीज छींट दिये थे। अलसी के बैंगनी तथा सरसों पीले फूलों और तिवरा की हरी हरी फलियों का दृश्य अत्यंत मनमोहक था। लगता था जैसे हरे मखमल पर बैंगनी तथा पीले रंगों की कसीदाकारी कर दी गई हो। इस प्रकार एक गाँव से दूसरे गाँव और दूसरे गाँव से तीसरे गाँव को पार करते हुये बैलगाड़ी चली जा रही थी। बिरझू ने देखा कि एक खेत में केवल तिवरा ही बोये गये थे और उनके पौधों में खूब सारी फलियाँ लगीं हुईं थीं। उसने गाड़ी रोक दिया और खेत में घुसकर तिवरा के फलियों से लटे कुछ पौधों को उखाड़ लिया। फिर गाड़ी में बिछे पैरा में से खूब सारा पैरा निकाल कर पास ही के एक पेड़ के नीचे उसे जलाया और उसमें तिवरा के उन पौधों को डाल कर 'होर्रा' (भुना हुआ तिवरा या चना) बनाया। जब होर्रा तैयार हो गया तो उसे लाकर दीनदयाल को देते हुये बोला, "लीजिये मालिक, आप और मालकिन इसका आनन्द लीजिये।"

शाम होते होते गाड़ी खारून नदी के किनारे पहुँच गई। वहाँ पर हाथ-मुँह धोकर और पानी पीकर तथा नदी को पार करके वे आगे बढ़े। यहाँ से रायपुर पहुँचने में अभी उन्हें लगभग आधा घंटा और लगना था। ठंड का मौसम तथा छोटे दिन होने के कारण अंधेरा अभी से गहरा गया था। बिरझू ने बैलगाड़ी में टँगी कंदील जला लिया था। जब वे शहर के भीतर पहुँच गये तो बिरझू ने कंदील बुझा दिया क्योंकि सड़कों में नगरपालिका के मिट्टीतेल से जलने वाले कंदील के खभों का प्रकाश पर्याप्त था। बिरझू ने दीनदयाल के घर के सामने लाकर गाड़ी खड़ी कर दी।

सुनीता को 'सधौरी' खिलाने का आयोजन किया गया। सधौरी के दिन बिरादरी में सभी को निमंत्रण दे दिया गया। बिरादरी के सारे लोग एक ही मुहल्ले में निवास करते थे अतः सुबह से ही सुहासिनें और सुहागिनें दीनदयाल के घर एकत्रित हो गईं। उन्होंने सुनीता के केश को बेसन से धोया और उसे 'उबटन' लगाकर नहलाया और पहनने के लिये 'पियरी' (पीले रंग की साड़ी) दिया। सुनीता के पियरी पहन लेने पर नाइन ने उसके पैरों में महावर लगाया। पीले रंग की साड़ी और उबटन के स्नान ने सुनीता के रूप-सौन्दर्य को इतना निखार दिया था कि वह साक्षात् अन्नपूर्णा लगने लगी थी। अब उसे सधौरी खिलाने की बारी थी। उसे पीढ़े पर बिठाने के बाद खाने के लिये चाँदी की थाल में खीर, पूरी तथा अनेकों प्रकार के मिष्ठान्न परसा गया। सुनीता के भोजन कर लेने के बाद आमंत्रित लोगों को उमंग और उत्साह के साथ 'सपथ' भोजन कराया गया।

दिन पूरे होने पर सुनीता को 'सुइन' और अनुभवी सयानी औरतों की देख-रेख में लड़का उत्पन्न हुआ। बिरादरी की औरतें पहले से ही जमा थीं। लड़का पैदा होने की सूचना पाकर उनके बीच आनन्द, उत्साह और उल्लास की तुमुल ध्वनि होने लगी। वे घेरा बना कर बैठ गईं और ढोलक के ताल के साथ 'सोहर' गाने लगीं -

सतहे मास जब लागै तौ अठहे जनाय हो ललना
अठहे मास जब लागै तौ सधौरी खवाय हो ललना
नवे मासे जब लागै तो कंसासुर जानय हो ललना
जड़ि दिहिन हाथे हथकड़ियाँ पावें बेलिया तो ललना
भादो निसि अँधियरिया तौ रोहिणी नछत्र भये हो ललना
श्री कृष्ण जी लिहिन अवतार दैत्य सब सोय गये हो ललना

इस प्रकार सोहर के पदों में ललनाओं ने बालक की श्री कृष्ण से तुलना कर उसके यश की कामना प्रकट की।

लड़के के जन्म से दीनदयाल की खुशी की सीमा न रही। पाँचवे दिन उन्होंने अत्यंत उत्साह के साथ 'छठी' करवाया। छठी में शामिल होने के लिये मुहल्ले भर के लोगों को बुलौवा दिया गया था। बैठक वाले कमरे में बिछायत बिछा दी गई थी। सात नाई लोगों की हजामत बनाने में लगे थे। शेष लोग आपसी बातचीत में व्यस्त होकर अपनी बारी की प्रतीक्षा कर रहे थे। बाहर शहनाई और बैण्ड बज रहे थे। बैठक के बीच में एक बड़ा सा कटोरा रखा था जिसमें सिर में लगाने के लिये तेल, जिसमें महँकता हुआ गुलाब का एक बड़ा से फूल तैर रहा था, भरा था। बाल बन जाने के बाद प्रत्येक आदमी कटोरे का तेल अपने सिर के बालों में लगा कर विदा होता था। दोपहर तक छठी का कार्यक्रम चला। फिर शाम को सभी लोगों को बड़े प्रेम के साथ 'काँके' पिलाया गया। (काँके एक प्रकार की लकड़ी होती है जिसे पानी में डालकर उबालते हैं। उबलने पर उसका लाल अर्क-सा निकल आता है जिसे, लौंग और गुड़ डाल कर, पिलाया जाता है।

अगले अर्थात् छठवें दिन रात को 'आँखी अंजौनी' का समारोह हुआ जिसमें सुआसिनें तथा रिश्ते की अन्य औरतों को बुलाया गया। फिर सभी को, उनकी मर्यादा के अनुसार चाँदी या काँसे की, थालियाँ दी गईं। उन्होंने घी के दिये जलाकर उन पर थालियों को इस प्रकार से रख दिया कि दिये का काजल उन पर जमने लगे। फिर वे सोहर गाने के लिये बैठ गईं। बहुत देर तक वे सब सोहर गाती रहीं। सोहर समाप्त होने तक सभी थालियों की सतह में काजल जम चुका था। अपनी-अपनी थालियों से उन्होंने शिशु की आँखों में अंजन आंजा। नेग के रूप में उन्हें वे थालियाँ दे दी गईं। बारहवें दिन 'बरही' की गई। शिशु के नामकरण के लिये कुल के पुरोहित और विद्वान ब्राह्मणों को बुलाया गया पुरोहित ने शिशु की जन्म पत्रिका बना कर उसका नाम श्यामलाल रख दिया।

कुछ दिनों रायपुर में रहकर दीनदयाल वापस खुड़मुड़ी आ गये।

(क्रमशः)

Monday, September 10, 2007

धान के देश में - 2

- 2 -
छत्तीसगढ़ के दुर्ग जिले के दक्षिण-पूर्वी भाग में पाटन का इलाका है। छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर और कस्बा पाटन के बीच, रायपुर से सात-आठ मील दूर किंतु पाटन से डेढ़-सो मील पहले, खुड़मुड़ी गाँव है। गाँव का वातावरण बहुत रम्य है। गाँव के पूर्व, उत्तर-पूर्व और उत्तर की ओर गाँव की बाहरी सीमा में पीपल के तीन बड़े-बड़े पेड़ हैं जिनके असंख्य पत्ते बारहों माह हहराते रहते हैं। उत्तर वाला पेड़ 'पीपर बँधिया', उत्तर-पूर्व वाला पेड़ 'बाई रूख' और पूर्व वाला पेड़ 'सेरहा' के नाम से जाना जाता है। गाँव के लोग उन वृक्षों को पवित्र मानकर उनकी पूजा किया करते हैं।
अक्षय तृतीया, जिस दिन भगवान परशुराम का जन्म हुआ था, को इस भू-भाग में 'अकती' त्यौहार के रूप में मनाते हैं। इसी दिन से खेती-किसानी का वर्ष प्रारम्भ होता है। इसी दिन पूरे वर्ष भर के लिये नौकर लगाये जाते हैं। शाम के समय हर घर की कुँआरी लड़कियाँ आँगन में मण्डप गाड़कर गुड्डे-गुड्डियों का ब्याह रचाती हैं।
अकती त्यौहार के इस शुभ अवसर में खुड़मुड़ी गाँव में रात्रि को 'बाँस-गीत' का विशेष आयोजन किया गया था। 'दैहान' (गाँव का मैदान) में मण्डप तान दिया गया था। उसके भीतर-बाहर रंग-बिरंगे कागजों का तोरण और झण्डियाँ बाँधी गई थीं। रात को लगभग साढ़े नौ या दस बजे से मण्डप में लोगों का जमाव शुरू हुआ। मालगुजार दीनदयाल के घर से गैसबत्ती लाकर जलाई गई थी जिसके उजाले में पूरा मण्डप जगमगा रहा था। मण्डप में एक ओर गाँव की स्त्रियाँ बैठी थीं जिनमें सुहागिने, विधवा, बच्चियाँ सभी थीं। रंग-बिरंगी साड़ियाँ पहने सुहागिनों के मांग में सिंदूर की मोटी नारंगी रंग की रेखायें थीं और हाथों में चूड़ियाँ। विभिन्न गहनों से उन्होंने अपना श्रृंगार कर रखा था - कानों में 'खिनवा', बाहों में 'बँहुटे' या 'नागमोरी', कमर में चांदी के 'करधन' और पावों में काँसे या चांदी की 'पैरियाँ'। विधवायें सफेद रंग की साड़ियाँ पहने थीं और किसी-किसी के हाथ में चांदी का 'चुरुवा' था क्योंकि इस क्षेत्र के रिवाज के अनुसार वे चुरुवा के सिवा अन्य कोई गहना नहीं पहनतीं।
वहाँ उपस्थित सारे लोग बाँस-गीत सुनने के लिये उतावले हो रहे थे और मालगुजार दीनदयाल का इंतिजार कर रहे थे। इसी समय दीनदयाल मण्डप में आये। उनके लिये मण्डप के बीचो-बीच आसन की व्यवस्था की गई थी। कार्यक्रम के आयोजकों ने उनकी अगुआनी की और आदरपूर्वक उन्हें आसन पर बिठा दिया। उनके आसन ग्रहण करने पर 'बाँस-गीत' टोली ने अपनी तैयारी की। लाखन और पचकौड़ अपनी बाँस की बनी तीन साढ़े-तीन फुट लम्बी 'बाँस बाजा' लेकर तैयार बैठ गये। रंजन और मिलउ गाने के लिये और अमोली बीच-बीच में 'हुँकार' करने के लिये संभल कर बैठ गये। इन पाँचों की टोली खुड़मुड़ी और उसके आस-पास के सभी गाँवों में 'बाँस-गीत' के लिये प्रसिद्ध थी।
रंजन और मिलउ ने एक स्वर में गाना शुरू किया -
दाई तो गये मोर दूध बेचन बर ददा गये दरबार,
भइया तो गये भउजी लेवाये बर, दउड़व नोनी भेड़ा गोहार।
नदिया भीतर के बारु-कुधरी, पैरी खवोसत चले जाय,
चूरा अउ पैरी ला ओली में धर लव, दउड़व नोनी भेड़ा गोहार॥
पद समाप्त होते ही अमोली ने जोर से मधुर हुँकार भरी - 'हुँ-हुँ-हुँ-होऽऽऽ-'। हुँकार के साथ ही लाखन और पचकौड़ ने एक साथ ही बाँस-बाजा को ऊपर-नीचे करते हुये, गाल फुलाकर जोरों से फूँकना शुरू किया। बाँस-बाजा से भारी किन्तु मधुर स्वर में उपरोक्त पद से मेल खाती हुई ध्वनि निकल कर पूरे मण्डप में गूँजने लगी। लोग तन्मय होकर बाँस-गीत को सुनने तथा उन गीतों में निहित कथाओं का आनंद लेने लगे। क्रम से एक के बाद एक कई कथानक सुनाये गये। दीनदयाल भी बाँस-गीत का आनन्द लेने लगे। वे लोगों में इतने घुलमिल गये थे कि कोई कह नहीं सकता था वे गाँव के मालगुजार हैं और शेष लोग साधारण किसान। एक कथा और दूसरे कथा के बीच थोड़ी देर का, 'चिलम' और 'चोंगी' पीने के लिये, विश्रामकाल होता था।
ऐसे ही एक विश्रामकाल के समय दीनदयाल का नौकर बिरझू दौड़ता-हाँफता आया और उनके पैरों को छूते हुये बोला, "मालिक, मेरी लड़की हुई है।" खुशी से उसका चेहरा चमक रहा था। शाम से ही उसकी स्त्री की प्रसव-पीड़ा शुरू हो गई थी और 'सुइन' (गाँव में जजकी कराने वाली दाई) को बुला लिया गया था पर लड़की पैदा हुई रात्रि के लगभग साढ़े-ग्यारह बजे। बिरझू बाँस-गीत के आयोजन में न आकर अपने घर में ही था और लड़की उत्पन्न होने की सूचना अपने मालिक को देने के लिये वहाँ आया था। इस सूचना से सभी को बेहद खुशी हुई। बिरझू दीनदयाल का पुराना नौकर था और उनकी उस पर विशेष ममता थी, क्योंकि बिरझू की पीढ़ी-दर-पीढ़ी दीनदयाल के पीढ़ी-दर-पीढ़ी की सेवा करते आये थे।
"तुमने बहुत अच्छी सूचना दी बिरझू। आज तो बड़ा अच्छा मुहूर्त है। एक तो अकती का त्यौहार, दूसरे बाँस-गीत का आयोजन और तीसरे तुम्हारे घर लड़की पैदा हुई।" दीनदयाल ने प्रसन्न होकर हँसते हुये कहा। फिर पूछा, "तो लड़की का नाम क्या रखोगे?"
"जो नाम आप बतायें मालिक। हम लोग तो 'ढेला', 'टेटकी', 'खोरबहरिन', 'अभरन' कुछ भी नाम रख लेते हैं।" बिरझू ने उत्तर दिया।
थोड़ी देर तक दीनदयाल सोचते रहे। फिर बोले, "लड़की का नाम राजवती रख दे।" फिर उन्होंने आयोजन समाप्ति की घोषणा की। समवयस्क लोगों ने "राम राम मालिक" और छोटों ने "पालागन मालिक" कह कर उन्हें विदा किया। फिर सभी लोग आपस में "राम राम", "जयरामजी की", "जोहार ले" कहकर अपने अपने घर चले गये।
और बिरझू ने अपनी लड़की का नाम राजवती रख दिया। गाँव के वातावरण में राजवती 'राजो' बन गई। उपन्यास के आरम्भ में जिस घटना का वर्णन किया गया है वह इस आयोजन से लगभग सैंतीस वर्ष बाद की थी तथा वह यही राजो थी।
खुड़मुड़ी में उस दिन बिरझू रावत सबसे अधिक प्रसन्न था।

Sunday, September 9, 2007

धान के देश में -1

लेखकः स्व. श्री हरिप्रसाद अवधिया

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"राजो! क्या कर रही हो?"

किसी पुरुष कण्ठ की ध्वनि थी।

"कौन हो भाई? दरवाजा खुला हुआ है, धकेल कर भीतर आ जाओ", रमणी के कण्ठ का मधुर उत्तर था।
संध्या की सुनहरी किरणे अभी पेड़ों के पत्तों पर बिछल रही थीं। खेतों से झुण्ड के झुण्ड गायों को घेर कर लाते हुये ग्वाले अपनी बाँस की बाँसुरी पर सुरीली तान छेड़ रहे थे। पश्चिमी क्षितिज में डूबते हुये सूर्य की लालिमा को उड़ती हुई धूल ने ऐसा ढँक दिया था कि मानो लाल रंग के परदर्शी मलमल से परदा कर दिया गया हो।

गाँव के अंतिम छोर पर मिट्टी का छोटा सा घर था। लाल खपरैल की जगह घास की छत थी। दीवालें नीचे से आधी दूर तक गोबर से लिपी हुई थीं। शेष आधा भाग गेरू से पुता था। घर में एक ही दरवाजा था और एक ही खिड़की। घर तथा दरवाजे के मध्य छोटा सा साफ-सुथरा लिपा-पुता आँगन था जिसके बीचोबीच तुलसी चौरा (एक छोटे से चबूतरे पर बोया गया तुलसी का पौधा) था। आँगन के एक कोने में धनिया और मिर्च के पौधे संध्या की बिखरती हुई कालिमा में उनींदे हो रहे थे। दूसरे कोने में एक गैया कोठा था जिसमें एक देसी गाय बँधी थी जिसके पास ही बँधा बछड़ा रह-रह कर रँभा उठता था - शायद दिन भर के बाद इस समय तक उसे जोरों से भूख लग आई थी।

घर के भीतर से लगभग छत्तीस-सैंतीस वर्ष की एक स्त्री हाथ में टिमटिमाता हुआ दिया लेकर आँगन में आई। क्षीण ज्योति चारों ओर बिखर गई। उसी दिये से उसने तुलसी के पौधे की आरती की और श्रद्धापूर्वक सिर नवाकर प्रणाम करके दिये को तुलसी चौरे पर रख दिया। फिर उसने अपेक्षाकृत कुछ ऊँचे स्वर में आवाज लगाई, "सदाराम, श्यामवती, तुम लोग भी आँगन में आ जाओ। शाम के समय घर में मत घुसे रहो। मैं जरा गाय दुह लेती हूँ। बछड़ा बहत चिल्ला रहा है।"

"आते हैं माँ!" कहते हुये श्यामवती और सदाराम दोनों आँगन में आ गये। ये दोनों उस स्त्री के पुत्र-पुत्री थे। सदाराम लगभग छः-सात वर्ष का था और श्यामवती चार वर्ष की। चड्डी के अतिरिक्त, दोनों के बदन पर कपड़े का कोई अन्य टुकड़ा तक नहीं था। दोनों के बाल रूखे, हाथ-पैर दुबले, छाती धँसी हुई और पेट फूले हुये थे। सदाराम की नाक भी बह रही थी। वे दोनों आँगन में पड़ी हुई खाट पर बैठ गये। यद्यपि ये बच्चे दुर्बल और रोगीले-से थे, फिर भी वे उस स्त्री के प्राणों के स्पंदन थे। स्त्री ने बछड़े को खूँटे से छोर दिया। बछड़ा अपनी माँ की ओर ताबड़तोड़ उछलता हुआ भागा और थनों में से एक को मुँह में भर कर दूध पीने लगा। दो-तीन मिनट बाद ही स्त्री ने बछड़े को खींच कर गाय की अगली टाँग से बाँध दिया और दूध दुहने लगी। बछड़ा ललचाई और विवश आँखों से थन की ओर देख रहा था।

इसी समय पुरुष-कण्ठ की वह ध्वनि सुनाई पड़ी जिसका उल्लेख आरंभ में किया जा चुका है। पाठक परिचित हो चुके हैं कि किसी ने आवाज दी थी, "राजो, क्या कर रही हो?" साथ ही इस प्रश्न के उत्तर से भी। उस स्त्री का नाम राजवती था। गाँव के अनपढ़ वातावरण में 'राजवती' राजो बन गई थी।
दरवाजा धकेल कर एक अधेड़ आदमी ने बेखटके आँगन में प्रवेश किया। गाँव में व्यर्थ के परदे तथा लज्जा के लिये कोई स्थान नहीं रहता। वहाँ की उन्मुक्त प्रकृति और वातावरण वहाँ के लोगों को सरल और उदार बना देते हैं। दूध दुहते राजवती ने कनखियों से उस आदमी को भीतर आते देखा और बोली, "अच्छा तुम हो दुर्गा प्रसाद! आओ, आओ बैठो खटिया पर। अच्छा किया जो आ गये।"

आगंतुक दुर्गा प्रसाद बिना कुछ कहे खाट पर बैठ गया। श्यामवती को उस ने बड़े प्रेम से अपनी गोद में बैठा लिये और सदाराम के सिर पर हाथ फेरते हुये बोला, "क्यों रे सदवा! क्या खाया? श्यामवती बिटिया, तूने भी कुछ खाया या अभी तक भूखी ही है? तुम्हारी माँ तुम लोगों का कुछ ध्यान भी रखती है या नहीं?" कहते-कहते दुर्गा प्रसाद ने राजवती के चेहरे पर प्रेम की नजर डाली।

"हम लोगों ने सबेरे भात खाया था और अभी शाम को 'बोरे' (सुबह के बने चाँवल में पानी डाल कर रख दिया जाये तो उसे छत्तीसगढ़ में 'बोरे' कहा जाता है और यदि वह दूसरे दिन तक भी बचा रह जाये तो 'बासी' कहलता है) भी खाया है।" सदाराम का उत्तर था।

दूध दुह चुकने पर राजवती ने बछड़े को खोल दिया और उसने लपक कर गाय के एक थन को मुँह में भर लिया तथा दुहा जाने के बाद बचे दूध को तृप्तिपूर्वक पीने लगा। राजवती ने आँगन में कंडो को गोलाकार में जमाकर 'अधरा' बनाया और उस पर थोड़ी सी मिट्टी तेल डाल कर माचिस दिखा दिया। मिट्टी तेल जल जाने तथा कंडों के सुलग जाने पर दूध से भरी मिट्टी की छोटी हाँडी को उसके ऊपर रख दिया। फिर खाट से कुछ ही दूर जमीन पर बैठ गई।

दुर्गा प्रसाद ने श्यामवती को गोद से उतार दिया और संभल कर बैठ गया। दोनों बच्चे आँगन में कभी बछड़े को छू कर सहलाते और कभी खेलने लगते थे।

दुर्गा प्रसाद बोला, "राजो! संझा हुई। मैं खेत से लौट रहा था। सोचा तुमसे मिलता चलूँ।"

"गाँव में तुम्हीं तो एक मेरा ध्यान रखते हो। दिन में, संझा तक तुम रोज एकाध बार आ ही जाते हो तो मुझे भी ढाढ़स रहता है", राजवती ने निश्छल भाव से कहा।

दुर्गा प्रसाद ने शिष्टाचार के वातावरण को बदलते हुये, कुछ अधीर होकर, पूछा, "तो क्या निश्चय किया तुमने राजो?"

"किस बात का निश्चय?" राजो का सरल स्वर था।

"मेरे हाथ पकड़ने की बात का। अभी परसों ही तो मैंने तुमसे कहा था क्या भूल गई?" दुर्गा प्रसाद ने निःसंकोच कहा।

राजवती बोली, "मैंने तो उसे ठठ्ठा समझा था पर तुम यदि वास्तव में गंभीर हो तो मैं कहूँगी कि मैं उसके लिये राजी नहीं हूँ।"

"क्यो? आखिर तुम्हें अड़चन किस बात की है? तुम्हारा कोई देवर तो है नहीं जिसके होते यदि तुम मेरा हाथ पकड़ती तो हमारे समाज को ऐतराज होता। आखिर किसी न किसी का हाथ पकड़ोगी ही। पहाड़ जैसी जिंदगी कब तक ऐसी ही गुजारोगी। तो मेरे साथ सम्बंध करने में तुम्हें क्या आपत्ति है?" कुछ नरमाहट भरे स्वर में दुर्गा प्रसाद ने कहा।

"तुम ठीक कहते हो लेकिन - "

"लेकिन क्या?" राजवती की बात को बीच में ही काटते हुये दुर्गा प्रसाद बोल उठा, "देखो राजो! मेरे घर में मेरे लड़के भोला और मेरे सिवा तीसरा और कोई नहीं है। भगवान की दया से लक्ष्मी की भी कमी नहीं है। हर साल चार नौकर लगते हैं। पचीस एकड़ खेती है। और फिर भोला भी तो तुम्हारे बच्चों की उमर का ही है। यही श्यामा से तीन-चार बरस बड़ा होगा। तीनों साथ रहेंगे। तुम्हारी श्यामा को भी मैं अपने भोला के लिये माँगता हूँ।"

"तुम्हारी आखरी बात को मैं मानती हूँ दुर्गा प्रसाद। समय आने पर मैं अपनी श्यामवती का ब्याह तुम्हारे भोला से जरूर कर दूँगी पर तुम्हारा हाथ पकड़ कर मैं तुम्हारे घर नहीं जाउँगी", दृढ़ता के साथ राजवती ने कहा।

राजवती के इस जवाब से दुर्गा प्रसाद के चेहरे से परेशानी झलकने लगी। कुछ पल चुप रहने के बाद वह परेशानी भरे स्वर में बोला, "लेकिन क्यो? क्या तुम मुझे अपने लायक नहीं समझती या फिर तुम्हें कोई दूसरा पसंद आ गया है?"

"देखो दुर्गा प्रसाद, तुम्हारी दोनों ही बातें गलत हैं। तुम सब प्रकार से योग्य हो और मैंने किसी दूसरे के बारे में सोचा तक नहीं है। पर मैं तुम्हारा हाथ नहीं पकड़ूँगी।" राजवती के स्वर में अभी भी वही दृढ़ता विद्यमान थी।

राजवती का उत्तर सुनकर दुर्गा प्रसाद बोला, "देखो राजो, वैसे तो मैं किसी भी दूसरी स्त्री को अपना हाथ पकड़ने के लिये राजी कर सकता हूँ, पर तुम मुझे भा गई हो। मैं तुम्हारे लिये इंतजार कर सकता हूँ। तुम और भी सोच लेना। जब भी तुम्हारा निश्चय बदल जाये, मुझे बता देना। अभी तो मैं जा रहा हूँ।" इतना कहकर दुर्गा प्रसाद उठा और चला गया।

दुर्गा प्रसाद के जाते ही राजवती ने सदाराम और श्यामवती को हृदय से लगा लिया।

(क्रमशः)