Saturday, October 20, 2007

राष्ट्रभाषा के उद्‍गार

(स्व. श्री हरिप्रसाद अवधिया रचित कविता)

मैं राष्ट्रभाषा हूँ -
इसी देश की राष्ट्रभाषा, भारत की राष्ट्रभाषा

संविधान-जनित, सीमित संविधान में,
अड़तिस वर्षों से रौंदी एक निराशा
मैं इसी देश की राष्ट्रभाषा।
तुलसी, सूर, कबीर, जायसी,
मीरा के भजनों की भाषा,
भारत की संस्कृति का स्पन्दन,
मैं इसी देश की राष्ट्रभाषा।

स्वाधीन देश की मैं परिभाषा-
पर पूछ रही हूँ जन जन से-
वर्तमान में किस हिन्दुस्तानी
की हूँ मैं अभिलाषा?
मैं इसी देश की राष्ट्रभाषा।

चले गये गौरांग देश से,
पर गौरांगी छोड़ गये
अंग्रेजी गौरांगी के चक्कर में,
भारत का मन मोड़ गये
मैं अंग्रेजी के शिविर की बन्दिनी
अपने ही घर में एक दुराशा
मैं इसी देश की राष्ट्रभाषा।

मान लिया अंग्रेजी के शब्द अनेकों,
राष्ट्रव्यापी बन रुके हुये हैं,
पर क्या शब्दों से भाषा निर्मित होती है?
तब क्यों अंग्रेजी के प्रति हम झुके हये हैं?
ले लो अंग्रेजी के शब्दों को-
और मिला दो मुझमें,
पर वाक्य-विन्यास रखो हिन्दी का,
तो, वो राष्ट्र! आयेगा गौरव तुझमें।

'वी हायस्ट नेशनल फ्लैग एण्ड सिंग
नेशनल सांग के बदले
अगर बोलो और लिखो कि
हम नेशनल फ्लैग फहराते-
और नेशनल एन्थीम गाते हैं-
तो भी मै ही होउँगी-
नये रूप में भारत की राष्ट्रभाषा
मैं इसी देश की राष्ट्रभाषा।

मैं हूँ राष्ट्रभाषा
मैं इसी देश की राष्ट्रभाषा।

(रचना तिथिः गुरुवार 15-08-1985)

Friday, October 19, 2007

जय दुर्गे मैया

(स्व. श्री हरिप्रसाद अवधिया रचित कविता)

जय अम्बे मैया,
जय दुर्गे मैया,
जय काली,
जय खप्पर वाली।

वरदान यही दे दो माता,
शक्ति-भक्ति से भर जावें;
जीवन में कुछ कर पावें,
तुझको ही शीश झुकावें।

तू ही नाव खेवइया,
जै अम्बे मैया।

सिंह वाहिनी माता,
दुष्ट संहारिणि माता;
जो तेरे गुण गाता,
पल में भव तर जाता।

तू ही लाज रखैया,
जय अम्बे मैया।

महिषासुर मर्दिनि,
सुख-सम्पति वर्द्धिनि;
जगदम्बा तू न्यारी,
तेरी महिमा भारी।

तू ही कष्ट हरैया,
जय अम्बे मैया।

(रचना तिथिः रविवार 12-10-1980)

Thursday, October 18, 2007

हाल्ट! हुकम सदर

(स्व. श्री हरिप्रसाद अवधिया रचित कहानी)

3

सुजान सिंह राम सिंह को अपने साथ शहर में ले आया। प्रेमा भी साथ ही वापस आई। रामसिंह की माता और भाई को जब सुजान सिंह ने सूचित किया कि वे अपनी पुत्री को उनकी बहू बनाना चाहते हैं तब उन दोनों की खुशी का ठिकाना न रहा। लेन-देन की कल्पना तक से दोनों पक्षों को हृदय से चिढ़ थी ‍- घृणा थी।

अब प्रेमा और रामसिंह को एक साथ रहने का अवसर मिला। जैसे अशान्त सागर की क्षुब्ध लहरें शान्त हो जावें और अथाह जल स्पष्ट ही झलकने लगे वैसे ही उन दोनों के प्रेम के उफान में गहरी शान्ति भीतर ही भीतर गम्भीर हो गई। और दोनों की मुद्रा और हाव-भाव में उनकी गम्भीरता स्पष्ट ही प्रकट हो रही थी। किन्तु प्रेमा और रामसिंह अधिक समय तक एक साथ एक ही घर में नहीं रह सके। रामसिंह को अलग एक क्वार्टर में रहना पड़ा क्योंकि सुजान सिंह ने उस पुलिस की नौकरी दिलाने का प्रबन्ध जो कर दिया था।

स्वाभाविक ही है कि जो जिस व्यसाय या नौकरी में होता है वह उसे ही उत्तम समझता है और उसकी हार्दिक कामना होती है कि उसकी सन्तान तथा आत्मीय रिश्तेदार भी सरलता से उसी में लग जावें। यही दशा सुजान सिंह की भी थी। उन्होंने सोचा रामसिंह भी उसी विभाग में काम कर ले तो अच्छा होगा जिसमे वे स्वयं नौकर थे। रामसिंह भी पढ़ने-लिखने के मामले में बड़ा शून्य था। सुजान सिंह के प्रयत्न से रामसिंह रंगरूटों में भर्ती कर लिया गया और उसके रहने के लिये अलग क्वार्टर का प्रबन्ध हो गया।

रामसिंह के कुछ दिन परेड की कठोरता और पुलिस कार्य के अध्ययन की बारीकी में बीते। यह समय उसके लिये कड़े से कड़े परिश्रम का था। परिश्रम की कठोरता में प्रेमा के लिये उसके हृदय में रहने वाली कोमल भावनायें प्रायः सुप्त सी रहीं। उधर प्रेमा आकुल सी मन मसोस कर रह जाती थी। जब कभी उसका युवा मन भड़क उठता था तब वह धीरज की लोरी सुना सुना कर सुलाने के प्रयत्न में अशान्त हो जाती थी। फिर भी दोनों के हृदय में सन्तोष था कि विवाह बन्धन में बँध कर वे शीघ्र ही एक हो जावेंगे। सुजान सिंह ने भी निश्चय कर लिया था कि पक्के ढंग से नौकरी मिल जाने पर ही वे रामसिंह के साथ प्रेमा का ब्याह करेंगे।

और रामसिंह की नौकरी पक्की हो गई। मुहूर्त आया और प्रेमा के साथ उसका ब्याह हो गया। दोनों ऐसे सुखी थे मानो स्वर्ग का साम्राज्य ही उन्हें मिल गया हो। विवाह के बाद के प्रथम कुछ दिन श्रृंगार विलास के होते ही हैं। प्रेमा की सभी सुषुप्त भावनायें उभार की चोटी की ओर कदम कदम बढ़ती जा रही थीं। किन्तु गार्हस्थ्य जीवन के केवल बारह दिनों के बाद ही रामसिंह का एक गाँव में तबादला हो गया। कठोर कर्तव्य से भरी हुई पुलिस की नौकरी जो ठहरी। प्रेमा ऐसे सूख गई जैसे दो दिनों की रिमझिम बरसात से लहलहाई हुई लता बाद में पड़ने वाली तीखी गर्मी से झुलस जाती है। सुजान सिंह की चिन्ता भी घबरा उठी। उसके प्रबन्ध के अनुसार रामसिंह तो गाँव के थाने चला गया पर आहों से भरी गरम श्वाँस लिये प्रेमा घर में ही रह गई क्योंकि सुजान सिंह शीघ्र ही अपने दामाद रामसिंह की बदली गाँव से अपने शहर में कराने के प्रयत्न में एड़ी-चोटी का पसीना एक करने लगे थे। उनके प्रयत्न का परिणाम सामने आया भी। सुजान सिंह को कप्तान साहब ने आश्वासन दिया कि रामसिंह फिर शहर बुला लिया जावेगा। अतः प्रश्न ही नहीं उठा कि प्रेमा गाँव जाकर रामसिंह के साथ रहे।

प्रेमा को रामसिंह का वियोग बहुत ही खलता था। उसकी सहेलियाँ अब भी उससे मिलती थी, एक-दो बार वह उनके साथ सिनेमा भी देखने गई पर इससे उसके मन की अशान्ति गई नहीं उल्टे कुछ अधिक ही हो गई।

पन्द्रह दिनों के प्रयत्न के बाद सोलहवें दिन सुजान सिंह ने प्रेमा को सबेरे बताया कि आज शाम रामसिंह वापस आ रहा है - वह शहर में ही तैनात कर दिया गया है। सुन कर प्रेमा के हृदय में आनन्द का उफान बड़े वेग से उमड़ उठा पर पिता के सामने वह शान्त सी बनी रही। सुजान सिंह बाहर चले गये।

दिन का एक एक पल प्रेमा के लिये पहाड़-सा बीत रहा था। कभी वह शिथिल होकर लेट जाती तो कभी अंगड़ाई लेकर उठती और कमरे में बड़ी बेचैनी से टहलने लगती। उसे ऐसा लग रहा था कि आज शाम होगी ही नहीं। उसका एक एक अंग टूटता हुआ-सा मालूम हो रहा था। बीसों बार वह घड़ी देख चुकी थी कि कब शाम हो।

और शाम को लगभग साढ़े छः बजे सुजान सिंह अकेले ही घर आये। आते ही प्रेमा से बोले, "बेटी, रामसिंह गाँव से वापस आ तो गया है पर खजाने में बहुत ही जरूरी काम पड़ जाने से वह रात वहीं रहेगा और सबेर ही घर आयेगा। पुलिस की नौकरी ऐसी है जिसमें घर की ममता के लिये कोई स्थान नहीं।" सुन कर प्रेमा चुप रही पर उसकी आँखों के आगे अंधेरा सा छा रहा था। मन मार कर वह घर के कामों में लग गई। भोजन कर लगभग साढ़े नौ बजे सुजान सिंह अपनी ड्यूटी पर चले गये। घर में रह गई अकेली प्रेमा।

प्रेमा पलंग पर लेटी हुई थी पर उसकी आँखों में नींद के बदले अनमना जागरण और जलन थी। उसके विचारों में बवण्डर उठ रहा था। तालाब के पास ही जल से बाहर रह कर मछली तड़पती रहे तो उसकी आकुलता का क्या ठिकाना। रात का कुछ भाग प्रेमा ने आँखों में ही काटा और तभी उसने घड़ी देखी जो रात के साढ़े ग्यारह बजा चुकी थी। उसके मन में तीव्रतम भावना आई कि क्यों न अभी ही पति से मिल कर दो बातें ही कर ली जाय। वे खजाने में ही तो हैं और खजाना घर से केवल दो-तीन सो गज की दूरी पर ही तो है। इस भावना के पैनेपन के सामने प्रेमा का विवेक जवाब दे गया। वह चुपचाप उठी और सावधानी से घर के सब दरवाजे बंद कर बाहर सड़क पर थी - खजाने की ओर। उसकी आतुरता और सहनशीलता का अभाव उसे खींचे लिये जा रहा था। एक बार उसके मन में यह विचार अवश्य ही उठा कि कहीं रामसिंह के साथ दूसरे लोग भी हुये तो। लतो क्या - क्या वह अपने पति को उनसे अलग बुलाकर बात भी करने का अधिकार नहीं रखती। दूसरा विचार यह भी आया कि कहीं इसी बीच पिता जी घर आ गये तो। उसे घर में न पाकर क्या समझेंगे। किन्तु रात ड्यूटी में आज तक तो बीच में वे घर कभी नहीं आये - आज कैसे आ जावेंगे। प्रेमा मिलन की उत्कट अभिलाषा की आंधी में उड़ती हुई कदम कदम खजाने की इमारत की ओर जा रही थी।

यद्यपि चाँदनी रात थी तो भी चौथ की तिथि होने के कारण चन्द्रमा पश्चिमी क्षितज में अस्त हो चुका था। सब ओर एक धुंधलापन छाया हुआ था जिसमें चीजें और आकृति दीख तो जाती थीं पर एकाएक पहचानी नहीं जा सकती थीं। प्रेमा कपड़े में सिमटी हुई मुँह पर घूँघट डाली हुई थी। अब वह खजाने से केवल पचास गज ही दूर थी। उसके मन में विचारों का मेला सा लगा हुआ था। 'मुझे देखकर वे कितने खुश होंगे......"

"हाल्ट! हुकम सदर"

पहरेदार की कर्कश ध्वनि करक उठी पर प्रेमा के लिये वह दूर से आती हुई गड़गड़ाहट से अधिक मतलब नहीं रखती थी। न वह उसका मतलब ही समझती थी और न उसके कदम ही रुके। पहरेदार भी नहीं जानता था कि ये शब्द अशुद्ध हैं और 'हाल्ट! हू कम्स देयर!' (रुको! कौन आ रहा है!) के स्थान पर वह कह रहा है 'हाल्ट! हुकुम सदर' - जिसका मतलब वह इस तरह से समझता था कि 'सदर का हुकुम है कि रुक जावो।' इधर प्रेमा की आँखों के सामने उसकी कल्पना के पर्दे पर रामसिंह की सौम्य मूर्ति उसे बुलाती सी दिख रही थी। 'मैं कमरे की खिड़की के बाहर से झाँक कर देखूँगी। मुझे देखे ही उनकी खुशी आसमान छूने लगेगी।' विचारों का प्रवाह और प्रेमा सुध-बुध के साथ प्रायः अपने आपको भी भूलती सी जा रही थी।

"हाल्ट! हुकुम सदर"

दूसरी बार की चेतावनी थी और अबकी बार पहरेदार का हाथ बन्दूक सम्भाल चुका था। पर प्रेमा को इसका ध्यान ही कब था। उसने फिर कदम बढ़ाये और तीसरी बार "हाल्ट! हुकुम सदर" के साथ ही 'धाँय' के साथ बन्दूक से छर्रे की गोलियाँ सनसनाती हुई आईं और प्रेमा के पैरों में लगीं। वह चीख कर गिर पड़ी और सामने पड़े हुये बड़े से पत्थर पर उसका सिर टकरा कर फट गया - खून का फव्वारा चलने लगा।

"प्रेमा.......!" चीखकर पहरेदार उससे लिपट गया। वह और कोई नहीं रामसिंह ही था। उस दिन खजाने में पहरे पर रहने वाला सिपाही ठीक उसी समय अनिवार्य काम से छुट्टी लेकर चला गया था जिस समय रामसिंह गाँव से वापस आया और दूसरे आदमी के अभाव में प्रबन्ध किया गया था कि आज रात खजाने के पहरे पर रामसिंह की ड्यूटी रहे।

प्रेमा का गला रुंध गया था। शारीरिक और मानसिक आघात सहन करना असम्भव था। उसकी आँखों की टकटकी रामसिंह के चेहरे पर लग गई। ओंठ कुछ कहने के लिये कष्ट से फड़क-फड़क कर रह गये - प्रेमा ने दम तोड़ दिया।

xxxxxxx
वही खजाने की इमारत है। पास का वही पेड़ - पेड़ के पास वही पत्थर दिन के बाद रात और रात के बाद दिन आता है। संसार का काम ज्यों का त्यों चल रहा है पर उस पत्थर पर एक आदमी दिन भर बैठा रहता है। उसे न किसी से मतलब है और न वह किसी कुछ बोलता ही है। रात को पास ही लेट जाता है। सिर के बाल बेहद बढ़ गये हैं। दाढ़ी-मूँछ अस्त-व्यस्त रूप से बढ़ गई है। फटे कपड़े। मैला शरीर। वीभत्स हाव-भाव। कभी खिलखिला कर हँस उठता है तो कभी आर्तनाद कर रो पड़ता है। बीच बीच में फटे स्वर से चिल्ला उठता है - 'हाल्ट! हुकुम सदर"। बड़ी कठिनाई से पहचाना जा सकता है कि वह अभागा रामसिंह ही है।

(तीन किश्तों में से अंतिम किश्त)

Wednesday, October 17, 2007

हाल्ट! हुकम सदर

(स्व. श्री हरिप्रसाद अवधिया रचित कहानी)

2

राधा के साथ गाँव पहुँच कर प्रेमा ने प्रकृति के बीच जहाँ शान्ति का अनुभव किया वहीं प्रकृति की मादकता और उत्तेजक शक्ति रह रह कर उसे अशांत भी कर देती थी। उसे सूना सूना सा लगता था। वसन्त का सुहावना समय था। चारों ओर सुन्दर फूल खिले थे। इधर उधर अंगारों जैसे लाल लाल टेसू मन में उत्साह और उत्तेजना भर रहे थे। दिन भर बासन्ती बयार बहती थी। अमराई में कोयल की कूक संगीत के पंचम स्वर के सुरीलेपन को भी लज्जित कर देती थी। प्रेमा को गाँव में कोई विशेष काम तो था नहीं। वह प्रकृति की शोभा निरखने में अपने आपको खोकर आँखें बिछा देती थी। जहाँ एक ओर वह प्रकृति को निरख कर आनन्द का अनुभव करती वहीं उसे अपने भीतर ही भीतर एक अजीब सी कसक और अजीब सी निराशा का भी अनुभव होता था। उसे यह तक पता नहीं था कि यह उसकी अवस्था का प्रभाव है।

प्रातःकाल की सुहावनी बेला में प्रेमा तालाब के घाट में अकेली स्नान कर रही थी। उसके ठीक बाजू के पत्थर पर स्नान करने के लिये चढ़ती हुई उमर का एक तरुण आ बैठा। वह तरुणाई और युवावस्था की वयःसन्धि में था। मूछों की रेख फूट चली थी। ललाट के चौड़ेपन में निश्चिन्तता थी। चेहरे पर रोब, रौनक और आकर्षण लहरा रहा था। भुजायें मांसल व फड़कती हुई थीं। प्रेमा की दृष्टि से यह सब छिप न सका। गाँव आने के बाद इस तरुण को उसने पहली ही बार देखा और तरुण भी पहली ही बार इस अनिंद्य सुन्दरी को अपने गाँव में देख कर हृदय में हलचल का अनुभव करने लगा। तालाब में और लोग भी स्नान कर रहे थे पर वे कुछ दूर के घाट में थे।

प्रेमा और तरुण पहले तो एक दूसरे को कनखियों से देखते रहे। फिर प्रेमा ने अपनी निगाह फेर ली पर वह मुग्ध तरुण अब खुले रूप में बार बार अतृप्त नयनों से रह रह कर प्रेमा प्रेमा के रूप लावण्य को निहार लेता था। यह देख कर प्रेमा को उसकी बेचैनी पर हँसी-सी आ रही थी पर वह केवल हल्की मुस्कान से ही उसके हृदय में तीर चला कर रह गई। उसे मन्द मन्द हँसती देखकर तरुण सहसा झेंप सा गया और साथ ही साथ उसके साहस में कुछ लहरियाँ भी उठीं। साहस उसका प्रबल हो उठा - वह बोला, "तुम मुझे देख कर हँस क्यों रही हो?" इस प्रश्न का उत्तर प्रेमा क्या देती। यदि स्पष्ट कह देती कि तुम्हारी चंचल गति से मुझे हँसी आ गई तो यह एक प्रकार से उसे ठेस पहुँचाना ही हो जाता। चुप रहती तो उस तरुण की उलझन उलझती ही जाती। प्रेमा को क्रोध तो था नहीं, प्रसन्नता की एक धुंधली सी झलक का ही उसके हृदय में स्फुरण हो रहा था।

प्रेमा की शरारत जाग उठी। उसके प्रश्न का उत्तर देने के बदले वह बनावटी खीझ और झुँझलाहट के स्वर में बोली, "तुम यहाँ क्यों आ बैठे जी? तुम्हें तो उधर नहाना था जहाँ और सब लोग नहा रहे हेँ। देखते नहीं मैं अकेली ही यहाँ पर नहा रही हूँ।" सुनकर युवक सकपका सा गया और अपने गीले कपड़े घाट पर के पत्थर से उठा कर चुपचाप भीगी बिल्ली की तरह वहाँ से खिसक जाने की तैयारी में लग गया। यह देख कर प्रेमा ने कहा, "अब कहाँ जा रहे हो? देखने वाले क्या समझेंगे? जब नहाना शुरू किया है तो नहा ही लो।" युवक ने फिर से पत्थर पर अपने गीले कपड़े रख दिये और नहाने लगा। उसे लगा कि यदि वह कुछ पूछे तो युवती नाराज नहीं होगी। उसने प्रेमा से सरल सा प्रश्न किया, "तुम तो इस गाँव की नहीं हो। कहीं बाहर से आई हो क्या?"

"हाँ, मैं अपनी बुआ राधा के घर आई हूँ।"

"क्या नाम है तुम्हारा?"

"प्रेमा। और तुम्हारा?"

"मैं रामसिंह हूँ। रहने वाला तो यहीं का हूँ पर बाहर गया हुआ था। कल ही वापस आया हूँ। यहाँ अपनी माँ के साथ खेती की देखभाल करने के लिये। बड़े भाई शहर में नौकरी करते हैं। उन्हीं के पास गया था। तुम्हारी राधा बुआ से तो हमारा दूर का रिश्ता है।" एक साँस में ही रामसिंह ने अपना पूरा परिचय दे दिया।

बातचीत के बीच दोनों ही अपना हृदय एक दूसरे को देते जा रहे थे।

उस दिन से प्रेमा और रामसिंह की घनिष्ठता बढ़ती ही गई। रामसिंह अधिकतर राधा के घर आ बैठता। वहाँ उसे प्रेमा से मिलने और बातें करने का अवसर सरलता से मिल जाता था। राधा न तो उसे कुछ कह ही सकती थी और न रोक ही सकती थे - राधा की ससुराल की ओर से उससे दूर का रिश्ता जो ठहरा। पर राधा दोनों पर पैनी दृष्टि अवश्य ही रखती। लड़की वालों को बड़ी सावधानी से व्यवहार करना पड़ता है। यदि राधा रामसिंह को घर आने से रोक देती या उसका प्रेमा से मिलना-जुलना और बात करना एकाएक बन्द कर देती तो गाँव के अनपढ़ वातावरण में न जाने लोग क्या क्या सोचने लग जाते। अन्ततः प्रेमा के प्रति कोई लांछन ही लग जाता तो। परिस्थिति जटिल होती जा रही थी। प्रेमा और रामसिंह अब घर के बाहर भी मिल लेते थे। यदा-कदा दोनों साथ साथ इधर-उधर घूम भी आते थे। राधा हैरान थी कि वह क्या करे, क्या न करे। उसने कई बार यह भी सोचा कि प्रेमा को वापस भेज आवे पर उसके हृदय के किसी कोने से यह भाव भी उठता था कि ऐसा करने पर प्रेमा के हृदय पर आघात न पहुँचे। अन्त में जब परिस्थिति उसके नियन्त्रण के बाहर हो चुकी तब उसने अपने भाई और प्रेमा के पिता सुजानसिंह को कहला भेजा कि वह आकर अपनी प्रेमा को स्वयं ही संभाले।

घबराहट में फँसकर दो दिनों की छुट्टी ले सुजान सिंह आ पहुँचे।

आते ही उन्होंने राधा से पूछा, "क्या बात है राधा? ऐसा क्या हो गया जो तुमने मुझे उलझन और घबराहट में डाल दिया। प्रेमा कहा हैं?"

और प्रेमा सचमुच उस समय घर में नहीं थी।

"हमारी प्रेमा ने ऐसा कदम उठाया है जो गलत रास्ते पर पड़ सकता है," बिना किसी भूमिका के ही राधा बोली।

राधा के शब्दों ने सुजान सिंह की मुद्रा को कठोर बना दिया। आँखें लाल हो गईं। उसका सारा शरीर
एकबारगी काँप उठा। वे कर्कश स्वर में चीख उठे, "यह बतावो कि वह है कहाँ?"

"कहाँ होगी। दो-चार बार तो मैनें स्वयं ही उसे गाँव के छोकरे रामसिंह के साथ तालाब के बाजू वाली अमराई में बैठे बातें करते देखा है। अभी भी वहीं होगी।" राधा ने स्पष्ट सूचना दी।

सुजान सिंह कराल-काल से बन कर हाथ में कुल्हाड़ी लेकर चल पड़े अमराई की ओर। उबलते हुये हृदय के झकोरे खा कर पैर उनके सीधे नहीं पड़ रहे थे। घर से अमराई कोई दो फर्लांग ही दूर रही होगी किन्तु सुजान सिंह को लगा कि वह दूरी दो हजार मील से भी अधिक की हो। श्वाँस तेज हो चली थी उनकी। आँखों में खून उतर आया था और मस्तिष्क में गुस्से का भूत ताण्डव कर रहा था। ज्यों ज्यों अमराई नजदीक आती जाती थी त्यों त्यों सुजान सिंह का क्रोध बढ़ रहा था। किन्तु विवेक ने अभी भी साथ नहीं छोड़ा था इसलिये अमराई के बाहरी भाग में पहुँचने पर सुजान सिंह वास्तविकता का पता लगाने के उद्देश्य से एक ओर छिप गये।

स्पष्ट सुना सुजान सिंह ने -

"और यदि हम दोनों का ब्याह नहीं हो सका तो।" प्रेमा के शब्द थे। स्वर में कम्पन, कम्पन में चिन्ता और चिन्ता में व्यग्रता थी। वह रामसिंह के बाजू में पर उससे अलग बैठी थी। उसके चेहरे की प्रसन्नता पर उदासी के हल्के से बादल छा रहे थे।

तो क्या। हम दोनों एक दूसरे को याद करते हुये मन मसोस कर जीवन बिता देंगे।" रामसिंह ने हँसते हुये उत्तर दिया।

"पर मेरी शादी किसी दूसरे के साथ हो जाने पर पति के होते हुये मैं तुम्हारी याद कैसे कर सकूँगी? यह तो पाप होगा। प्रेमा की सरलता ही शब्द बन कर व्यक्त हुई। उसे लग रहा था कि उसके आँसू अब ढले - अब ढले।

प्रेमा की बात सुन कर रामसिंह के ओंठों में हँसी का सूखापन झलक गया। चेहरा गम्भीर हो उठा। हृदय में लहराती हुई सचाई उसके शब्दों में फूट पड़ी, वह बोला, "प्रेमा, नियम अवश्य ही बनाया गया है कि जिसके साथ अग्नि को साक्षी देकर सात फेरे पड़ जावें वही उस स्त्री का पति होता है और उसके सिवाय दूसरे की याद करना तक पाप माना गया है। साथ ही इस नियम को धर्म का रूप दे दिया गया है, किन्तु सोचो, जब एक स्त्री किसी और को चाहती है और उसका प्रेमी भी उसे प्राणों से बढ़ कर चाहता है तब ऐसी दशा में, अग्नि देव की साक्षी देकर उसका हाथ किसी और को दे देना अग्नि देव का अपमान नहीं है? यह तो उनका खिलवाड़ है, उन्हें झुठलाना है। क्या अग्नि देव इतना भी नहीं जानते कि अदालत के झूठे गवाह की तरह उनका दुरुपयोग किया जा रहा है।"

"मैं यह सब कुछ नहीं जानती। सिर्फ इतना ही मुझे पता है कि यदि तुमसे मेरी शादी नहीं हुई तो मैं जीते जी मर जाउँगी या फिर ब्याह के पहले ही आत्महत्या कर लूँगी।"

प्रेमा की अन्तिम बात से सुजान सिंह का हृदय काँप उठा।

"पगली! आत्महत्या तो सबसे बड़ा पाप है। धीरज रखो। ईश्वर अन्यायी नहीं है।" रामसिंह ने कहा और प्रेमा का हाथ थाम लिया। उस रमणी का सिर रामसिंह के वक्ष में सन्तोष, शान्ति और रक्षा का अनुभव कर रहा था।

"तुम दोनों का यह साहस कैसे हुआ?" सुजान सिंह का कड़कता हुआ स्वर सुन कर दोनों सम्भल कर अलग हो गये किन्तु उनके चेहरे पर घबराहट और डर की हल्की सी रेखा तक नहीं थी। दोनों की मुख-मुद्रा शान्त और अलौकिक दमक से मन को खींच लेने वाली थी।

आड़ से निकल कर सुजान सिंह दोनों के सामने थे।

अब पिता को सामने देख कर प्रेमा के हृदय की धड़कन में तीव्र गति आ गई। उसने सिर नीचा कर लिया।

"क्यों, तुम्हें अपनी जान प्यारी नहीं हे क्या? देखते नहीं मेरे हाथ में यह कुल्हाड़ी।" सुजान सिंह का एक एक शब्द वज्र की भाँति कठोर था। किन्तु रामसिंह ज्यों का त्यों बिना कुछ कहे खड़ा ही रहा।
"चुपचाप क्या खड़ा है! ये ले।" कहने के साथ ही सुजान सिंह ने दोनों हाथों से पकड़ कर रामसिंह के सिर के ऊपर कुल्हाड़ी उठाई कि प्रेमा चीख कर रामसिंह से लिपट गई और उसके मुँह से केवल निकला, "बापू......"

सुजान सिंह ने कुल्हाड़ी नीचे फेंक दी और प्रेमा से स्नेहयुक्त स्वर में कहा, "बेटी, तू समझती है कि मैं कुल्हाड़ी चला देता। मैं तो इसके साहस और तुम्हारे प्रेम की परीक्षा ले रहा था। मैं तुम दोनों का ब्याह कर दूँगा।"

"बापू...." प्रेमा के स्वर की एक एक झनकार में उल्लास थिरक रहा था।

रामसिंह अभी भी शान्त था किन्तु उसकी आँखें सुजान सिंह को कृतज्ञता और श्रद्धा से देख रही थीं।

(तीन किश्तों में से द्वितीय किश्त)

Tuesday, October 16, 2007

हाल्ट! हुकम सदर

(स्व. श्री हरिप्रसाद अवधिया रचित कहानी)

1

यह सोचना सच नहीं होगा कि कठोर कर्तव्य वाली नौकरी में रात-दिन उलझे रहने के कारण पुलिस वालों में कोमल भावनायें नहीं होतीं। उनके पास भी हृदय होता है और हृदय में कम से कम अपनों के लिये तो दया, क्षमा, सहानुभूति, ममता और स्नेह की कोमल भावनायें रहती ही हैं। पुलिस वालों के भी कुटुम्ब होते हैं जिनमें पत्नी, पुत्र-पुत्री, माता-पिता, भाई-बहन रहते हैं जिनके प्रति वे कठोर कैसे हो सकते हैं। पुलिस विभाग में काम करने वाले हवलदार सुजान सिंह के मस्तिष्क में भी कर्तव्य की निर्मम कठोरता और हृदय में अपनी पुत्री प्रेमा के लिय अगाध प्रेम था। कुटुम्ब के नाम से वे, उनकी विधवा बहन राधा और जवान लड़की प्रेमा के सिवाय और कोई नहीं था। राधा गाँव में रह कर थोड़ी से खेती-बाड़ी की देखभाल किया करती थी। प्रेमा की माँ उसके बचपन में ही चल बसी थी। उसे राधा ने ही प्यार से पाला था और पिता के स्नेह ने किसी दुःख का अनुभव होने नहीं दिया था। सुजान सिंह प्रेमा के ब्याह की चिन्ता में डूबे रहते थे।

प्रेमा के कदम यौवन में पड़ चुके थे। उसका रूप-लावण्य निखर आया था। यौवन के साथ आकर्षण स्वाभाविक ही होता है पर प्रेमा अपने रूप को बनाव-श्रृंगार का सहारा देकर अधिक खींच लेने वाला बनाती थी। शिक्षा के नाम से वह कुल प्रायमरी ही पास थी। एक तो सुजान सिंह की स्थिति ऐसी नहीं थी कि वह उसे आगे पढ़ा पाता। दूसरे वह इस पक्ष में भी नहीं था कि लड़कियों को आधुनिक शिक्षा दी जावे। उसकी दृष्टि से इतनी ही शिक्षा काफी थी कि लड़की रामायण पढ़ ले और चिट्ठी-पत्री लिख-बाँच सके।

सुजान सिंह घर की ओर से चिन्ता मुक्त थे। प्रेमा घर के सब काम-काज करती और अवकाश का समय पड़ोस की सहेलियों के साथ बिता लेती थी। उसके जीवन में कोई विशेष आकांक्षा थी ही नहीं। प्रकृति से तो हर आदमी लाचार रहता है - फिर प्रेमा भी इसका अपवाद कैसे हो सकती थी।। यदि उसके मन में कोई इच्छा आती भी तो बस इतनी ही कि अब उसका ब्याह हो जाना चाहिये। सहेलियों के बीच भी लगभग इसी विषय पर बातें होती थीं या फिर युग के प्रभाव के अनुसार सिनेमा की चर्चा होती। पढ़ने की दिशा में वे लड़किया रामायण या दूसरे सद्ग्रंथ तो कम पर सस्ती पत्रिकायें, रोमांस से भरे हुये उपन्यास और कहानियाँ ही अधिक पढ़ लेती थीं। उन्हें क्या पता कि उनके मन में सोई हुई वासना इन सब बातों से किस प्रका धीरे धीरे जाग कर उमड़ जावेगी।

घर में बढ़ी हुई लड़की हो तो उसके ब्याह की चिन्ता माता-पिता को व्याकुल किये रहती है। सुजान सिंह प्रेमा के लिये वर ढूँढने में कोई कसर बाकी नहीं रखते थे। उन्होंने कई जगह बात चलाई पर कहीं मन पसन्द लड़का नहीं मिलता था तो कहीं भारी रकम माँगी जाती थी। समाज तो यह नहीं देखता कि कौन कितनी जीविका अर्जित करता है और किसकी कितनी आर्थिक स्थिति है पर लड़की के ब्याह के लिये उसके पिता की हैसियत से कई गुनी अधिक रकम हर जगह माँगी जाती है। किसी को यह चिन्ता तक नहीं कि इस राक्षसी प्रथा से कितनी ही लड़कियाँ कुँवारी बैठी रह जाती हैं और उनका जीवन घुन लगी हुई लकड़ी की तरह हो जाता है। सुजान सिंह अपने कर्तव्य में ईमानदार थे। इसी लिये वे घूसखोरी या और किसी प्रकार के भ्रष्टाचार से इतनी अधिक रकम नहीं कमा सके थे जिससे प्रेमा का ब्याह अच्छी खासी दहेज देकर कर सकते।

सुजान सिंह इस बात का बराबर ध्यान रखते थे कि प्रेमा अपने जीवन से ऊब न जाये। इसीलिये वे उसे कभी-कभी अपनी बहन राधा के पास कुछ दिनों के लिये गाँव भेज देते जिससे वातावरण बदलने के साथ-साथ उसका मन बहलता रहे।

उस दिन राधा गाँव से आई। उसने प्रेमा को पैनी नजर से देखा - वह उसके मनोभावों का मानो अध्ययन करना चाहती हो। उसने देखा सुजान सिंह तो अधिकतर ड्यूटी पर ही रहते हैं। और फिर वह पुलिस की ड्यूटी ठहरी। चौबीस घण्टे में कहीं भी किसी भी समय जाना पड़ जाता है। प्रेमा को अपनी मनचली सहेलियों के साथ रहने का ही अवसर अधिक मिलता है। राधा ने भाँप लिया कि यद्यपि प्रेमा युवती हो गई है तो भी उसके मुख की सुन्दर प्रसन्नता पर चिन्ता का हल्का सा बादल छाया रहता है। राधा ने भी इससे चिन्ता और दुःख का अनुभव किया और एक दिन सुजान सिंह से पूछ कर कुछ दिनों के लिये प्रेमा को अपने साथ गाँव ले गई।

प्रेमा के गाँव चले जाने के बाद सुजान सिंह का जीवन और भी अस्त-व्यस्त और स्वच्छन्द हो गया। कभी-कभी वे ड्यूटी के बाद भी घर नहीं आते थे। किसी बासे में खा लेते और थाने में ही सो रहते थे। वे प्रेमा की ओर से भी कुछ निश्चिंत-से हो गये थे पर उनके मन में उसके ब्याह की चिन्ता प्रति क्षण लगी ही रहती थी।

और एक दिन गाँव से राधा ने अचानक सूचना भेजी कि वे तुरन्त ही आकर अपने प्रेमा की देखभाल स्वयं ही करें। इससे सुजान सिंह के मन की उद्विग्नता में उफान सा आ गया। ऐसी कौन सी बात हो गई जो उसे प्रेमा की देखभाल लकरनी पड़ेगी। कहीं प्रेमा बीमार तो......। उनका हृदय इस विचार से ही धक् से होकर काँप उठा। इस कल्पना से ही उनकी आँखों के सामने चित्र-सा खिंच गया कि प्रेमा खाट पर पड़ी है - शरीर क्षीण हो लगया है, आँखें धँस गई हैं। किन्तु सुजान सिंह ने धीरज का सहारा लिया और उसके मन में इसके विपरीत भाव लहराये कि ऐसा नहीं होगा। शायद कुछ और दूसरी ही बात हो।
सुजान सिंह किसी तरह से भी दो दिन की छुट्टी लेकर गाँव चले गये।

(तीन किश्तों में से प्रथम किश्त)

Monday, October 15, 2007

धान के देश में - 37

लेखक स्व. श्री हरिप्रसाद अवधिया
(छत्तीसगढ़ के जन-जीवन पर आधारित प्रथम आंचलिक उपन्यास)

- 37 -

उषा और श्यामवती को मिले छः महीने से अधिक हो गया। जब से जानकी के साथ श्यामवती सिकोला चली गई तब से वह एक बार भी खुड़मुड़ी नहीं आई। उषा भी ऐसी व्यस्त हुई कि कहीं आ-जा न सकी। श्यामवती इन दिनों अपने विचारों के अनुसार काम कर रही थी। उसने जानकी की सहायता से सिकोला में ऐसे काम किये जो इस भू भाग के लिये नये थे। उषा ने महेन्द्र को कई बार सिकोला चलने के लिये कहा पर उसका गर्व उसे हर बार रोकता रहा। अन्त में एक दिन उषा महेन्द्र पर विजय पा ही गई और दोनों सिकोला गये।
वहाँ उन दोनों ने प्रगति देखी। एक नया पर आधुनिक ढंग का मकान बना था जिसके चारों ओर कमर तक ऊँची दीवाल का हाता बना हुआ था। यह था श्यामवती के परिश्रम का परिणाम। हाते में एक ओर प्रवेश द्वार था। फाटक पर बड़े बड़े सुन्दर अक्षरों में लिखा था "वन्देमातरम्"। वहाँ पहुँचते ही उषा का मन शान्ति और उल्लास से भर गया। दोनों ने भीतर प्रवेश किया। मकान का बरामदा पार करने पर एक छोटा सा 'हॉल' जैसा कमरा था। उसके भीतर जाकर महेन्द्र और उषा ने देखा कि उसकी दीवालों पर देश के महान नेताओं के चित्र टंगे थे। उन दोनों को लगा कि स्वर्ग ही पृथ्वी पर उतर आया है। एक कोने में पाँच-सात छोटे बच्चे तकली कात रहे थे और दो औरतें चरखा चला रही थीं उन सबने दोनों का अभिवादन किया। उषा ने एक स्त्री से पूछा, "क्या यह सब श्यामवती ने किया है?"
"हाँ, यह सब उसी के विचारों और परिश्रम का नतीजा है। दिन-रात एक कर यह आश्रम चार महीने में बना और दो महीने से काम चल रहा है।" उस स्त्री ने उत्तर दिया।
"श्यामवती कहाँ है?" उषा का प्रश्न था।
"आपको बाहर ही हाते के भीतर मिल जायेंगी।" उषा और महेन्द्र बाहर आये। मकान की छत की ओर देखा। वहाँ तिरंगा लहरा रहा था। हाते में चारों और क्यारियाँ बनी थीं जिनमें फूलों से लदे पौधे थे। एक ओर एक छायादार पेड़ के नीचे एक काला तख्ता रखा था। सामने खुली हवा में दस-बारह बालक-बालिकायें बैठी थीं। श्यामवती उनको पढ़ा रही थी। उषा और महेन्द्र को देखकर उसने बच्चों को छुट्टी दे दी और उन दोनों का स्वागत किया। तीनों पास ही पड़ी हुई चटाई पर बैठ गये।
"वाह श्यामा! तुमने तो गजब कर दिया। लगता है कि इन्हीं कामों में लगे रहने के कारण तुम खुड़मुड़ी नहीं आई। मैं तो सिद्धान्त में ही उलझी रही पर तुम व्यहार के क्षेत्र में उतर आई।" उषा ने मुस्कुरा कर कहा।
"उषा, यह ऐसा क्षेत्र है जहाँ काम करने में बड़ी कठिनाई हुई पर जानकी भाभी हमेशा मेरा उत्साह बढ़ाती रहीं।" कह कर श्यामा महेन्द्र से बोली, "आप अपना और अपने स्वास्थ्य का ध्यान नहीं रखते क्या?"
"मुझे क्या हुआ है। ठीक ही तो हूँ।" महेन्द्र ने क्षीण और सूखा-सा उत्तर दिया।
उषा और श्यामवती बातों में व्यस्त हो गईं। महेन्द्र वहाँ से उठ कर आश्रम की एक एक चीज का निरीक्षण करने लग गया। महेन्द्र के जाते ही उषा बोली, "श्यामा, मैं आज तुमसे साफ साफ एक बात करने आई हूँ।"
"कहो ना क्या कहना चाहती हो।" आत्मीयता के स्वर में श्यामवती बोली।
"तुम महेन्द्र से ब्याह कर लो। यही मेरा तुमसे अनुरोध है। इसके लिये सुमित्रा माता को मैं राजी कर लूँगी।" उषा ने अपने स्पष्टवादी स्वभाव के अनुसार कहा।
"महेन्द्र से तुम क्यों ब्याह नहीं कर लेती।" शान्त और संयत स्वर में श्यामवती बोली। यह कुछ दिनों से उसके मन में उठने वाला विचार था जो शब्द बनकर प्रकट हुआ।
सुनकर उषा एकदम चौंक गई। उसने कल्पना तक नहीं की थी कि उसके सामने ऐसा प्रसंग आ सकता है। उसका अचेतन मस्तिष्क व्यग्र हो उठा और वह सोचने लगी कि वह रायपुर में रुकी ही क्यों - क्रान्तिकारी दल में सम्मिलित होने वाले का विचार क्या इतना दुर्बल होता है? फिर वह खुड़मुड़ी आ कर महेन्द्र के अत्यन्त समीप रहती हुई क्यों अपना जीवन बिता रही है। क्या वह स्वयं महेन्द्र से प्यार नहीं करती? अवश्य ही करती है और अपने उसी प्रेम में त्याग का संचार करने के लिये ही तो वह श्यामा को महेन्द्र से ब्याह कर लेने का अनुरोध कर रही है। इन बातों के मस्तिष्क के अचेतन भाग में उभर जाने से उषा तिलमिला उठी। उसे ऐसा लगा कि उसका गला सूख रहा है। हाथ-पैर में कम्पन उत्पन्न हो गया। शरीर में सनसनी दौड़ने लगा। श्यामवती उषा के भावों का अध्ययन कर रही थी। बोली, "देखो बहन, तुम आज जो कुछ सोच रही हो, मैं उस परिणाम पर बहुत पहले ही पहुँच चुकी थी। मैं जानती हूँ कि तुम्हें महेन्द्र से प्रेम हो गया है। तुम यहाँ रुक जाने के लिये भी उसी कारण से तैयार हो गई। तुम उनके जैसी ही कुलीन घराने की भी हो और सुमित्रा माता तुम्हें स्वीकार भी कर लेंगी। मेरा और महेन्द्र का विवाह इस जन्म में कदापि सम्भव नहीं है। मेरा शेष जीवन तो अब अपने क्षेत्र की सेवा में ही बीतेगा। मेरी बात मान कर तुम उनसे ब्याह कर लोगी तो यह मेरे ऊपर भी तुम्हारा एक महान उपकार होगा क्योंकि मैं नहीं चाहती कि महेन्द्र का पूरा जीवन ऐसे ही नीरस बीते।"
श्यामा की बात सुनकर उषा गम्भीर होकर सोचने लगी। इसी समय महेन्द्र भी वहाँ आ कर बैठ गया। आज पहली बार ही उषा को महेन्द्र के सामने लज्जा का अनुभव हुआ। उसने चुपचाप कनखियों से महेन्द्र की ओर देखा। उसकी दृष्टि नई थी और महेन्द्र का रूप भी उसके लिये नया था। किन्तु ज्योंही महेन्द्र की निगाह उस पर पड़ी वह दूसरी ओर देखने लगी और पैर के नाखून से नाखून कुरेदने लगी। महेन्द्र को भी बड़ा अटपटा-सा लग रहा था। तभी श्यामा महेन्द्र से बोली, "महेन्द्र, तुम मुझसे प्यार करते हो तो मेरी कामना तुम्हें पूरी करनी होगी। तुम्हें उषा से ब्याह करना होगा क्या तुम मेरी इतनी सी इच्छा को भी पूरी नहीं करोगे? विशाल दृष्टि से देखो तो उषा को पाकर तुम मुझे ही पावोगे। प्रेम इतना संकुचित नहीं होता कि स्वार्थ को आश्रय दे। जब हम तीनों एक दूसरे को सुखी करने के लिये प्रयत्न कर रहे हैं तो हममें भेद ही कहाँ रह गया है। हमारा प्रेम संकुचित हो कर व्यक्तिगत स्वार्थ तक ही सीमित न रह कर एक दूसरे पर छलकता रहे, यही मेरी कामना है।" तीनों ने एक दूसरे की ओर देखा और उनकी आँखें छलछला आईं।
अगले महीने उषा और महेन्द्र का ब्याह हो गया।
(उपन्यास समाप्त)

Sunday, October 14, 2007

धान के देश में - 36

लेखक स्व. श्री हरिप्रसाद अवधिया
(छत्तीसगढ़ के जन-जीवन पर आधारित प्रथम आंचलिक उपन्यास)

- 36 -

उषा बम्बई नहीं गई। महेन्द्र के अनुरोध पर वह सबके साथ खुड़मुड़ी चली आई। वहाँ का नैसर्गिक दृश्य उसे बहुत ही पसन्द आया। उषा के कारण श्यामवती को भी खुड़मुड़ी में ही रुक जाना पड़ा। उषा ने उन लोगों को और भी बताया कि वह घरेलू जीवन से ऊब कर बम्बई जा रही थी। वहाँ से वह किसी क्रान्तिकारी दल में शामिल होने वाली थी। ऐसा करने से उसे देश-सेवा का अवसर मिलेगा और पकड़ी गई तो फाँसी के तख्ते पर लटका दी जावेगी या पिस्तौल से उड़ा दी जावेगी। इससे उसके जीवन का अन्त तो हो सकेगा जिससे वह ऊब चुकी थी। और जीवन का वह अन्त भव्य और गौरवपूर्ण भी तो होगा। किन्तु रायपुर में अचानक ही महेन्द्र के मिल जाने और बम्बई न जाकर वहीं रह जाने का श्यामवती के द्वारा आग्रह करने पर उषा को एक बहुत बड़ा सहारा मिल गया था। उसके हृदय में एक लालसा और भी प्रबल हो रही थी कि वह श्यामवती को किसी प्रकार से महेन्द्र का साथ ब्याह करने के लिये राजी कर ले जिससे महेन्द्र का जीवन तो सुखी हो जावे।
सुबह का समय था। श्यामवती और उषा खुड़मुड़ी के तालाब में नहा रही थीं। वहाँ से रास्ते का बहुत दूर तक का भाग स्पष्ट दिखाई दे रहा था। उस पर इक्की-दुक्की बैलगाड़ियाँ चल रही थीं जिससे कुछ देर के लिये धूल उड़ कर शान्त हो जाती थी। रास्ते के दोनों ओर धान के इस देश में धान के पौधे लहरा रहे थे। तालाब के किनारे के पेड़ों पर पक्षी कलरव कर रहे थे। आकाश एकदम स्वच्छ और नीला था। सूर्य चमचमा रहा था। स्नान कर किनारे खड़ी श्यामवती सड़क की ओर दूर तक आँखें लगाये देख रही थी। उसने दूर पर किसी को सायकल से आते देखा। सायकल कुछ नजदीक आने पर यह देख कर वह अचरज में डूब गई कि कोई स्त्री सायकल चलाती आ रही है। उसने उषा को भी दिखाया। जब सायकल इतनी दूर रह गई कि सायकल चलाने वाली पहचानी जा सके तब उन दोनों ने देखा कि वह जानकी थी। तालाब के पास आ कर और उषा तथा श्यामा को देख कर जानकी सायकल से उतर गई।
श्यामवती ने पूछा, "भाभी, क्या बात है? अकेली आई हो। भैया नहीं आये?"
"कोई विशेष बात नहीं है। चन्दखुरी में सब कुशल है। मैं सिकोला जा रही हूँ तुम भी तो जल्दी ही आवोगी न?" जानकी ने कहा।
"आउँगी क्या - मैं तुम्हारे साथ ही चल रही हूँ लेकिन यह तो बताओ कि तुमने सायकल चलाना कब सीख लिया?" श्यामा बोली।
जानकी हँस दी और बोली, "यह तो मैंने आसाम में छुटपन में ही सीख लिया था।"
"मैं भी तुम लोगों के साथ चलूँगी।" उषा ने कहा
"नहीं, अभी तुम्हें यहीं रहना होगा। तुम उनकी मेहमान पहले हो, फिर हमारी।" श्यामवती ने उषा को रोकने की नीयत से कहा।
"लेकिन महेन्द्र बाबू को अपने जाने की सूचना तो दे दो।"
"उन्हें तुम बता देना।" कह कर श्यामा जानकी के साथ सिकोला रवाना हो गई। बात यह थी कि श्यामवती स्वयं ही खुड़मुड़ी से जाना चाहती थी पर उषा ने उसे रोक रखा था। इसलिये इस सुनहरे अवसर का लाभ उसने उठा लिया। सिकोला में पहुँच कर भोजन कर लेने के बाद जानकी ने श्यामवती के हाथ में एक अखबार देकर कहा, "मेरे यहाँ आने का कारण यह है।" श्यामवती ने उसे पढ़ा। एक स्थान पर छपा था कि 'टाटानगर में एक मजदूर को भट्ठी में झोंक कर उसकी हत्या कर देने वाला भोला नामक व्यक्ति मुगलसराय में उस समय पकड़ा गया जब वह एक स्त्री के गहने चुरा कर भाग रहा था। उसे हत्या के आरोप में काले पानी की सजा हो गई। वह अण्डमान भेज दिया गया।' श्यामवती कुछ देर तक हाथ में अखबार लिये बैठी रही। उसके हृदय में न उथल-पुथल ही मची और न उद्विग्नता ही हुई। भोला के साथ बीती हुई घड़ियाँ अवश्य ही एक बार याद आ गईं। यह सूचना दुर्गाप्रसाद को तुरन्त दे दी गई। उसे मार्मिक आघात पहुँचा - आखिर वह भोला का पिता था और भोला उसके हृदय का टुकड़ा। राजो को लगा कि जिस बन्धन से उसने श्यामवती को बाँध कर उसने उसके जीवन में घोर अन्धकार भर दिया था वह बन्धन टूटा तो नहीं पर उसकी कड़ियाँ एकदम खोखली पड़ गई हैं।
इधर उषा ने जब महेन्द्र को बताया कि श्यामा सिकोला चली गई तब वह झुँझला उठा और बोला, "जाने दो। उस पर मेरा क्या वश है। लेकिन मुझे बता कर तो जाना था। पर वह ऐसा करती ही क्यों। उसे तो बड़ा अभिमान हो गया है।"
नहीं महेन्द्र, ऐसी बात नहीं है।" उषा बोली।
"तो फिर कैसी बात है?" महेन्द्र ने व्यंग से कहा।
"आप श्यामवती को नहीं समझ सके हैं।" उषा के स्वर में गम्भीरता थी।
"हो सकता है। पर तुम स्त्रियों को तो तुम्हें बनाने वाला भगवान भी नहीं समझ सका है।" महेन्द्र के इस वाक्-बाण से उषा तिलमिला उठी पर हँसती हुई बोली, "यही तो हम स्त्रियों की सबसे बड़ी विजय है।"
उषा महेन्द्र के निजी पुस्तकालय में अध्ययन करती और कुछ समय नित्यप्रति सुमित्रा के साथ भी अवश्य ही बिताती थी। उषा का साथ पाकर सुमित्रा का मन बहल जाता था पर उसे चिन्ता थी कि महेन्द्र का ब्याह हो जावे और उषा चाहती थी कि महेन्द्र किसी प्रकार से सुखी रह सके।
(क्रमशः)