Saturday, November 3, 2007

मैं भी तुमसे दूर रहूँगी

(स्व. श्री हरिप्रसाद अवधिया रचित कविता)

दूर रहा करते हो मुझसे,
मैं भी तुमसे दूर रहूँगी;
होगा इससे कष्ट मुझे जो,
तो उसको चुपचाप सहूँगी।

स्पर्श तुम्हारा जब हो जाता है,
गहरी शान्ति मिला करती है;
लगता है नील-गगन में ज्यों,
समा गई हो यह धरती है।

किया समर्पण तन-मन तुमको,
पर सच को तुम क्या पहचानो;
डूबे रहते हो अपने में ही,
दिल को तुम कैसे पहचानो।

तुम मस्तक मैं बुद्धि तुम्हारी,
पर यह तुम कैसे जानोगे?
आयेगी मिलने की बारी,
तब ही मुझको पहचानोगे।

पर ठुकराओगे मुझको तो,
मन ही मन मैं घुटन सहूँगी;
दूरी जो रखते हो मुझसे तो,
मैं भी तुमसे दूर रहूँगी।

(रचना तिथिः गुरुवार 31-01-1981)

Tuesday, October 30, 2007

गीत

(स्व. श्री हरिप्रसाद अवधिया रचित कविता)

तुम दूर भी हो, तुम पास भी हो;
मुझे निराश सदा तुम करती,
फिर भी तुम मेरी आश ही हो,
तुम दूर भी हो, तुम पास भी हो।

उत्कण्ठा में आकुल मैं तो,
चिरप्रतीक्षा के क्षण गिनता हूँ;
किन्तु नहीं आते हो जब तुम,
सपनों में तुमसे मिलता हूँ;
तुम तो मेरा जीवन हो,
तुम ही मेरी श्वाँस भी हो,
तुम दूर भी हो, तुम पास भी हो।

मिलने की घड़ियाँ कब आवेंगी?
दिन-रात यही सोचा करता हूँ;
पर न मिलन जब होता है तो,
ठंडी ठंडी आहें भरता हूँ;
तुमने मुझको बांधा है, तुम मेरी उलझन हो,
फिर भी तुम मेरी पाश ही हो,
तुम दूर भी हो, तुम पास भी हो।

तुमसे मेरे जीवन में स्पन्दन है,
नस नस में तुम छाये रहते हो;
पल भर भी भूल न पाता तुमको,
जाने किस जादू में भरमाये रहते हो;
तुम ही मेरे जीवन के रक्षक-
तुम ही मेरी नाश भी हो,
तुम दूर भी हो, तुम पास भी हो।

देख न पाता हूँ जब तुमको,
ऐंठन मन में होती है;
तुम्हें सामने जब पाता हूँ,
जगी वेदना सोती है;
तुम ही मेरी दुनिया हो,
मेरे जीवन का विश्वास भी हो,
तुम दूर भी हो, तुम पास भी हो।

आओ दो से एक बनें हम,
हिलमिल दोनों खो जायें;
मैं मैं न रहूँ, और तुम न रहो तुम,
सरिता-सागर हो जायें;
धड़कन तेरे दिल की बन जाउँ,
तुम तो मेरी श्वाँस ही हो,
तुम दूर भी हो, तुम पास भी हो।

(रचना तिथिः शनिवार 31-01-1981)