Saturday, December 1, 2007

राष्ट्रीय एकता

(स्व. श्री हरिप्रसाद अवधिया रचित कविता)

ब्रह्म एक पर बन अनेक शक्ति बाँटता,
सब में स्वयं ही विराजमान रहता है;
ऐसे ही, राष्ट्र एक पर अनेक राज्य बन,
जन-मानस में शक्ति बन सँवरता है;
शरीर एक में अनेक अंग, एक श्वास में-
अभिन्न होते, एक स्पन्दन लहराता है,
वैसे ही, भिन्नता में अदम्य अभिन्नता बन,
राष्ट्रीय एकता का हृदय धड़कता है।

मर्यादा पुरुषोत्तम राम और कृष्ण ने,
इसी देश में राष्ट्रीय चेतना भर दी थी;
पुरु ने राष्ट्रीय एकता का शंख फूँक कर,
भारतवर्ष की अलेक्षेन्द्र से रक्षा की थी;
सम्राट चन्द्रगुप्त ने एक किया भारत को,
प्रियदर्शी अशोक ने जग को दीक्षा दी थी;
रामतीर्थ और विवेकानन्द ने, आध्यात्मिक-
बल से विषम राष्ट्र वेदना हर ली थी।

गांधी-सुभाष बोस-जवाहर शास्त्री-इन्दिरा,
भगतसिंह और चन्द्रशेखर आजाद;
बाल-पाल-लाल स्वाधीनता के मतवालों ने,
सबल राष्ट्रीय एकता को किया आबाद;
अधिकार हमें क्या है जो स्वार्थ-सिद्धि के हित,
इस राष्ट्रीय एकता को कर दें बर्बाद,
हमें चाहिये कि जीवन में पल प्रति-पल,
करते रहें राष्ट्रीय एकता को ही याद।

जागृत हों, सत्यवाद से हृदय विभूषित,
अग्रगण्य हों स्वार्थवाद के सर्वनाश में;
मनु बन कर मानवता की रक्षा कर लें,
बन जावें कवच भावी विश्व-विनाश में;
नई सृष्टि नई दृष्टि ले कर बढ़ते जावें,
बँधने न दें विश्व को तुच्छ स्वार्थ पाश में;
राष्ट्रीय एकता का सम्बल, शान्ति दल बनें,
अड़े रहें निस्वार्थ विश्व की हर आश में।

न्यौछावर कर दें प्राणों को राष्ट्र सुरक्षा में,
किंचित् आँच न भारत पर आने पाये;
सर्वश्रेष्ठ बन जग में उभरे भारत,
जन जन के मन में तिरंगा लहराये;
विज्ञान ज्ञान संस्कृति भारत की, अविराम-
विश्व में शान्ति और आत्म बल बन जाये;
आध्यात्मिक बल से राष्ट्रीय एकता से हम,
उज्ज्वल नई शताब्दी में विश्व को ले जायें।

(रचना तिथिः 08-10-1985)

Thursday, November 29, 2007

तुलसी का संदेश

(स्व. श्री हरिप्रसाद अवधिया रचित कविता)

तुलसी का सन्देश यही है
सियारम मय जग को जानो,
अपने भीतर सबको देखो
सबमें अपने को पहचानो।

स्वाति बूंद है राम रमापति
उसके हित चातक बन जावो,
आत्म-शक्ति जागेगी तुममें
राम-भक्त जो तुम हो जावो।

भौतिकता में रावण पलता
आध्यात्मिकता में श्री राम,
राम-राज का सुख चाहो तो
मत जगने दो मन में काम।

काम-अर्थ के चक्कर में तुम
धर्म-मोक्ष को भूल गये हो,
अति अनाचार के झूले में
रावण के संग झूल गये हो।

"मानस" पढ़ कर निज मानस में
तुलसी की ही स्मृति जगने दो,
आदर्श राम का जागृत कर
भारत को भारत रहने दो

(रचना तिथिः 04-08-1995)

Wednesday, November 28, 2007

ऋषि-मुनि सम्मेलन

(स्व. श्री हरिप्रसाद अवधिया रचित कविता)

ऋषियों ने, मुनियों ने सोचा,
क्यों न करें हम सम्मेलन,
ऋषियों-मुनियों का बहुमत है,
क्यों न करें फिर आन्दोलन।

मुनि-मण्डल के मंत्री नारद,
संयोजक थे सम्मेलन के ,
दुर्वासा लीडर बन बैठे,
महा उग्र आन्दोलन के।

अध्यक्ष व्यास ने शौनक को,
अपना एडीकांग बनाया,
सबने छाना सरस सोमरस,
शून्य काल में शोर मचाया।

पाराशर-सत्यवती-नन्दन,
व्यास दलित के रक्षक थे,
ब्राह्मण-धीवर की सन्तति वे
शेड्यूल कॉस्ट के अग्रज थे।

आरक्षण का प्रस्ताव रखा,
सूत महामुनि ने हँस कर,
स्वीकार किया ऋषि-मुनियों ने,
बहुमत के चक्कर में फँस कर।

अगला प्रस्ताव किया पारित,
साधु-सन्त को त्याग दिया,
साधू साधक हैं, सिद्ध नहीं,
सन्तों ने सबका अन्त किया।

इस पर सम्मेलन में शोर हुआ,
उग्र प्रचण्ड मचा हंगामा,
देख उसे ढीला हो जाता,
संसद का पाजामा।

(रचना तिथिः 24-08-1984)

Tuesday, November 27, 2007

पंजा

(स्व. श्री हरिप्रसाद अवधिया रचित कविता)

कवियों से अनुरोध यही है,
पंजावादी बन जाओ;
सुख-सम्पति-सत्ता चाहो तो,
पंजे के नीचे आओ।

पंजा व्यापक है इस युग में,
पंजे से उद्धार नहीं;
नर का हो या फिर नर-पशु का,
चाहे हो खूंख्वार सही।

पंचशील से पंजे तक का,
सब इतिहास निराला है;
पंजा खूनी रहा निरन्तर,
तन उजला मन काला है।

पंजा-पंजा हुआ देश में,
पंजे की महिमा भारी है;
पंजे पैने करें भेड़िया,
पंजे की लीला न्यारी है।

पंजा ख़ून किया करता है,
पंजे से ही देते घूस;
पंजा से पंजा मिल जाता,
फिर क्यों कोई हो मायूस।

पंजा कवच पहन नेतागण,
मनमानी कर लेते हैं;
लोगों को कुछ और नहीं तो,
वादा तो दे देते हैं।

(रचना तिथिः शनिवार 21-11-1980)