Saturday, April 25, 2009

चुनाव के समय जरूरी जिन्सों के दाम क्यों बढ़ जाते हैं?

हमारे छत्तीसगढ़ में 16 अप्रैल को लोक सभा चुनाव था। ठीक चुनाव के दिन जब मैं अरहर दाल लेने के लिये गया तो पता चला कि 35-36 रु. किलो बिकने वाले अरहर दाल का दाम उस रोज 60 रु. किलो था। मेरा अनुभव है कि चुनाव के दिनों में रोजमर्रा की चीजों के दाम बढ़े हुये ही रहते हैं। समझ से बाहर की बात है कि आखिर चुनाव के समय मंहगाई क्यों बढ़ जाती है?

चुनाव की बात चली है तो ज्ञानदत्त जी की बात याद आ गई जिसे कि उन्होंने फेसबुक में ऐसे लिखा हैः
कल यहां चुनाव है और मैं तय नहीं हूं कि वोट दिया जाय या नहीं। केण्डीडेट कोई खरा नहीं लगता। संसद की स्टेबिलिटी के लिये मुख्य राष्ट्रीय दलों में एक को चुनने का विकल्प है। यह भी मन में आता है कि वोट न दे कर आगे संसद में होने जा रही जूतमपैजार से अपने को यह कह कर अलग कर सकूंगा कि इन्हें चुनने में मेरा कोई हाथ नहीं! :-)
वास्तव में क्या किया जाना चाहिये? वोट न देने से लगता है कि हम अपने राष्ट्रीय कर्तव्य से मुख मोड़ रहे हैं और यदि वोट दें तो अक्षम केण्डीडेट को देना मजबूरी हो जाती है। इसीलिये मैंने फेस बुक में ज्ञानदत्त जी को टिप्पणी की है किः
मेरा विचार है कि मतपत्र में मतदान के लिये एक विकल्प यह भी होना चाहिये "इनमें से कोई नहीं"।
आप लोगों का क्या विचार है?


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2 comments:

डॉ महेश सिन्हा said...

अवधिया जी नमस्कार , हमारे देश के सरकार तो कहती है की महंगाई की दर कुछ दशमलव अंको में है ?
आम आदमी की महंगाई और सरकार की महंगाई अलग अलग होती है इसलिए सरकार को आम आदमी की महंगाई का पता नहीं चलता .

Gyan Dutt Pandey said...

चुनाव के फण्ड से लेनादेना है मंहगाई का? शायद।