Friday, June 26, 2009

सन् 1905 में छपा हिन्दी लेख

संसार की अन्य भाषाओं की तुलना में हमारी भाषा हिन्दी की उम्र सबसे कम है अर्थात् मात्र लगभग चार सौ साल जबकि अन्य सभी भाषाएँ कई हजारों साल पुरानी हैं। इन चार सौ सालों में भी पहले लगभग तीन सौ सालों तक अवधी तथा ब्रजभाषा को ही हिन्दी माना जाता रहा। आज जिस रूप में हिन्दी है, हिन्दी ने उस रूप को धारण करना उन्नीसवीं शताब्दी के पहले दशक में शुरू किया जब श्री देवकीनन्दन खत्री जी ने चन्द्रकान्ता तथा चन्द्रकान्ता सन्तति उपन्यासों को रचा। यद्यपि इन दोनों उपन्यासों को हिन्दी साहित्य में बहुत उच्च स्थान प्राप्त नहीं है किन्तु इन दोनों उपन्यासों ने अपनी रोचकता से लाखों लोगों को हिन्दी की ओर आकर्षित कर उन्हें हिन्दी सीखने के लिये मजबूर कर दिया। चन्द्रकान्ता सन्तति आज भी मेरे प्रिय उपन्यासों में से एक है। छत्तीसगढ़ के प्रसिद्ध साहित्यकार श्री पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी जी भी चन्द्रकान्ता सन्तति उपन्यास के प्रेमी रहे हैं।

उन्नीसवीं शताब्दी के पहले दशक में, जबकि हिन्दी ने अपना नया रूप धरना शुरू किया, उर्दू ही आम लोगों की मुख्य भाषा थी। नीचे जो लेख दिया जा रहा है वह भी उर्दू में ही लिखा गया था और यह लेख 14 मार्च सन् 1905 में उस जमाने के अवध अखबार में छपा था तथा इसकी हिन्दी नकल को खत्री जी अपने उपन्यास चन्द्रकान्ता सन्तति के उपसंहार में सन्दर्भित किया था। वही लेख मैं यहाँ पर प्रस्तुत कर रहा हूँ:

(यहाँ पर इस लेख की रचना शैली को बताना मेरा मुख्य उद्देश्य है लेख का विषय नहीं)

अगले जमाने में फिलासफर (वैज्ञानिक) लोग अपनी बुद्धि से जो चीजें बना गये हैं अब तक यादगार हैं। उनकी छोटी सी तारीफ यह है कि इस समय के लोग उनके कामों को समझ भी नहीं सकते। उनके ऊँचे हौसले और ऊँचे खयाल की निशानी चीन के हाते की दीवार है और हिन्दुस्तान में भी ऐसी बहुत सी चीजें हैं जिनका किस्सा आगे चल कर मैं लिखूँगा। इस समय "दीवार कहकहा" पर लिखना चाहता हूँ।

मैंने सन् 1899 ई॰ में अखबार आलम मेरठ में कुछ लिखा था जिसकी मालिक अखबार ने बड़ी प्रसंशा की थी, अब उसके और विशेष सबब खयाल में आये हैं जो बयान करना चाहता हूँ।

मुसलमानों के प्रथम राज्य में उस समय के हाकिम ने इस दीवार की अवस्था जानने के लिये एक कमीशन भेजा था जिसके सफर का हाल दुनिया के अखबारों में प्रकट हुआ है।

संक्षेप में यह कि कई आदमी मरे परन्तु ठीक तौर पर नहीं मालूम हो सका कि उस दीवार के उस तरफ क्या हाल चाल है।

उसकी तारीफ इस तरह है कि उस दीवार की ऊँचाई पर कोई आदमी जा नहीं सकता और जो जाता है वह हँसते हँसते दूसरी तरफ गिर जाता है, यदि गिरने से किसी तरह रोक लिया जाय तो जोर से हँसते हँसते मर जाता है।

यह एक तिलिस्म कहा जाता है या कोई और बात है, पर यदि सोचा जाय तो यह कहा जायगा कि अवश्य किसी बुद्धिमान आदमी ने हकीमी कायदे से इस विचित्र दीवार को बनाया है।

यह दीवार अवश्य कीमियाई विद्या से मदद लेकर बनाई गई होगी।

यह बात जो प्रसिद्ध है कि दीवार के उस तरफ जिन्न और परी रहते हैं जिनको देख कर मनुष्य पागल हो लजाता है और उसी तरफ को दिल दे देता है, यह बात ठीक हो सकती है परन्तु हँसता क्यों है यह सोचने की बात है।

काश्मीर के केशर के खेत की भी यही तारीफ है। तो क्या उसकी सुगन्ध वहाँ जाकर एकत्र होती है, या वहाँ भी केशर के खेत हैं जिसे हँसी आती है? परन्तु ऐसा नहीं है क्योंकि ऐसा होता तो यह भी मशहूर होता कि केशर की महक आती है। नहीं नहीं, कुछ और ही हिकमत है जैसा कि हिन्दुस्तान में किसी शहर की मसजिद की मीनारों में यह तारीफ थी कि ऊपर खड़े होकर पानी का भरा हुआ गिलास हाथ में लो तो वह अपने आप ही छलकने लगता था। इसकी जाँच के लिये एक इन्जीनियर साहब ने उसे गिरवा दिया और फिर उसी जगह बनवाया परन्तु वह बात नहीं रही। या आगरा में ताजबीबी के रोजे के फौवारों के नल जो मिट्टी के खरनैचे की तरह थे जैसे खपरैल या बगीचे के नल होते हैं। संयोग से फौवारों का एक नल टूट गया, उसकी मरम्त की गई, दूसरी जगह से फट गया यहाँ तक कि तीस चालीस वर्ष से बड़े बड़े कारीगरों ने अपनी अपनी कारीगरी दिखाई परन्तु सब व्यर्थ हुआ। अब तक तलाश है कि कोई उसे बना कर अपना नाम करे, मतलब यह कि "दीवार कहकहा" भी ऐसी ही कारीगरी से बनी है जिसकी कीमियाई बनावट मेरी समझ में यों आती है कि सतह जहाँ जमीन से आसमान तक कई हिस्सों में अलग की गई है, लम्बाई का भाग कई हवाओं से मिला है जैसे आक्सीजन, नाईट्रोजन, हाइड्रोजन, कार्बोलिक एसिड ग्यास, क्लोराइड इत्यादि। फिर इन हवाओं में से और भी कई चीजें बनती हैं जैसे कि नाइट्रोजन का एक मोरक्कब पुट आक्साइड आफ नाइट्रोजन है (जिसकि लाफिंग ग्यास भी कहते हैं)। बस दुनिया के उस सतह पर जहाँ लाफिंग ग्यास जिसको हिन्दी में हँसाने वाली हवा कहते हैं पाई गई है, उस जगह पर यह दीवार सतह सतह जमीन से इस ऊँचाई तक बनाई गई है। इस जगह पर बड़ी दलील यह होगी कि फिर वह बनाने वाले आदमी कैसे उस जगह अपने होश में रहेंगे, वह क्यों न हँसते हँसते मर गये? और यही हल करना पहिले मुझसे रह गया था जिसे अब उस नजीर से जो अमेरिका में कायम हुई है हल करता हूँ, याने जिस तरह एक मकान कल के सहारे एक जगह से उठा कर दूसरी जगह रख दिया जाता है उसी तरह यह दीवार भी किसी नीची जगह में इतनी ऊँची बनाकर कल से उठाकर उस जगह रख दी गई है जहाँ अब है। लाफिंग ग्यास में यह असर है कि मनुष्य उसके सूँघने से हँसते हँसते दम घुट कर मर जाता है।

अब यह बात रही कि आदमी उस तरफ क्यों गिर पड़ता है? इस खिंचाव को भी हम समझे हुए हैं परन्तु उसकी केमिस्ट्री (कीमियाई) अभी हम न बतायेंगे, इसको फिर किसी समय कहेंगे।

Tuesday, June 23, 2009

कम्प्यूटर के छलावे

कम्प्यूटर अनेकों बार हमारी आँखों को कैसे धोखा देता है यह इन चित्रों को देखने से समझ में आता है।
(चित्रों को बड़ा करके देखने के लिये उन पर क्लिक करें।)

ये रेखाएँ समानान्तर हैं या झुकाव लिये हुये?
केन्द्र में स्थित काली बिन्दु को एकटक देखिये। कुछ ही क्षणों में उसे घेरने वाला भूरा वृत सिकुड़ कर गायब होने लगेगा।
अपना ध्यान केन्द्र की काली बिन्दु पर केन्द्रित किये हुये सिर आगे पीछे करिये। भीतरी वृत घूमता हुआ लगने लगेगा।
आराम से बैठे हुये एकाग्रतापूर्वक चित्र के बीच में बने हुये चार बिन्दुओं को 30-40 सेकेंड तक देखते रहिये। फिर अपने पास की दीवार को देखें (दीवार चिकनी तथा एक रंग में ही पेंट की हुई होनी चाहिये)। आपको प्रकाश से बना एक वृत दिखाई पड़ने लगेगा। दीवार को देखते हुये एक दो बार पलकें झपकायें, यह पूरा चित्र उभरता हुआ दिखाई देगा।
इस चित्र को देखकर बताइये कि क्या यह एनीमेटेड है? जी नहीं, यह एनीमेशन नहीं है। ये वृत स्वयं नहीं घूम रहे हैं बल्कि आपकी आँखें इन वृतों को घुमा रही हैं। विश्वास नही होता हो तो किसी भी एक वृत को एकटक देखिये उसका घूमना बंद हो जायेगा।
बताइये कि दोनों आड़ी रेखायें समानान्तर हैं या झुकाव लिये हुये?
दोनों चित्रों के बीच में बने हुये वृतों में कौन बड़ा है और कौन छोटा? आपको जान कर आश्चर्य होगा कि दोनो बराबर हैं न तो कोई छोटा है और न ही कोई बड़ा।
क्या यह सम्भव है?
बीच के धन चिन्ह पर निगाह केन्द्रित करें, कुछ ही क्षणों में घूमती हुईं बैंगनी वृतों का रंग हरा नजर आने लगेगा।
जमीन या आसमान?
आपको यह लेख भी पसंद आयेगा "अंतरजाल या इन्द्रजाल?"

Monday, June 22, 2009

लिखना हमें आता नहीं अरु बन गये ब्लोगरदास

चलिये आज मैं अपना किस्सा बता ही दूँ। किस्से का सारांश है

आये थे हरि भजन को ओटन लगे कपास।
लिखना हमें आता नहीं अरु बन गये ब्लोगरदास॥

अब उपरोक्त दोहे में मात्रा सही है या नहीं यह देखने का कष्ट मत करियेगा क्योंकि मैं पहले ही कह चुका हूँ कि 'लिखना तो आता नहीं...'।

अक्टूबर 2004 में अपनी नौकरी से स्वैच्छिक सेवा निवृति ले लेने के बाद मेरे पास समय ही समय था, साथ ही कम्प्यूटर और इन्टरनेट कनेक्शन भी था। सुन रखा था कि नेट से कमाई करने के बहुत सारे तरीके हैं। तो सारा समय मैं इस चक्कर में इन्टरनेट को खंगालते रहता था। खंगालते खंगालते पता चला कि हिन्दी ब्लोगिंग नाम की भी एक चिड़िया होती है। बस क्या था ब्लोगर में एक खाता खोल लिया। अब समस्या यह थी कि 'लिखना तो...', पर जब अपना एक ब्लोग बना ही लिया है तो कुछ न कुछ पोस्ट करना भी जरूरी है। सोचा कि किस्सा हातिमताई या सिंहासन बत्तीसी या फिर बैताल पच्चीसी आदि को अपने ब्लोग में डाला जाये। पर लगा कि इन कहानियों की ओर भला आजकल कौन तवज्जो देने वाला है?

फिर ध्यान में आया कि मैं नहीं लिख सकता तो क्या हुआ, मेरे स्वर्गीय पिताश्री के तो बहुत सी रचनाएँ मेरे पास है। पिताजी को अपने जमाने के पत्र पत्रिकाओं में छपते तो अवश्य थे किन्तु उन्हे उसके बावजूद भी सन्तुष्टि नहीं थी। वे अपनी रचनाओं को स्वतंत्र रूप से प्रकाशित देखना चाहते थे। एक बार अपने उपन्यास धान के देश में को स्वयं प्रकाशक बन कर प्रकाशित भी किया। पुस्तक तो खैर क्या बिकी हाँ घड़ी चेन आदि सभी बिक गये। तो मैंने उसी उपन्यास को अपने ब्लोग में डालना शुरू कर दिया। फिर उनकी कविताओं को। फिर उनकी अन्य रचनाओं को। पर एक दिन वह भी आ गया कि मेरे पास अपने ब्लोग में डालने के लिये उनकी एक भी रचना नहीं बची।

ब्लोगिंग का नशा अब तक लत बन चुकी थी। क्या करें? जबरदस्ती जो मन में आये लिखना शुरू कर दिया और आज तक ब्लोगर बने हुये हैं।