Saturday, December 12, 2009

क्यों नहीं हैं इन्टरनेट पर हिन्दी में अच्छे कंटेंट?

मैं नहीं कह रहा कि हिन्दी में अच्छा कन्टेन्ट नहीं है बल्कि "गूगल को शिकायत: हिन्दी में अच्छा कन्टेन्ट नहीं है" बता रही है इस बात को।

जब दिन ब दिन हिन्दी ब्लोग की संख्या बढ़ते जा रही है तो क्यों नहीं आ पा रहे हैं इन्टरनेट पर हिन्दी में अच्छे कंटेंट?

इस प्रश्न का उत्तर जानने के लिये हमें सबसे पहले तो यह जानना होगा कि अच्छा कंटेंट क्या होता है?

अच्छा कंटेंट वह होता है जिसे कि पाठक पढ़ना चाहता है।

तो क्या पढ़ना चाहता है पाठक?

पाठक ऐसे पोस्ट पढ़ना चाहता है जिससे कि उसे कुछ नई जानकारी मिले, उसका ज्ञान बढ़े। कुछ नयापन मिले उसे। घिसी पिटी बातें नहीं चाहिये उसे। वह ऐसे पोस्ट पढ़ना चाहता है जिसे पढ़कर उसे लगे कि उसके पढ़ने से उसके समय का सदुपयोग हुआ है, कुछ काम की चीज मिली है उसे। जिस बात को वह पहले से ही टी.व्ही. या प्रिंट मीडिया से पहले ही जान चुका है उसी बात को किसी पोस्ट में पढ़ने के लिये भला क्यों अपना समय खराब करेगा वह? विवादित पोस्ट भी नहीं चाहिये उसे, किसी भी प्रकार के विवाद से भला क्या लेना देना है उसे? पोस्ट पढ़कर जानकारी चाहता है वह।

गूगल जैसी कंपनियाँ भी चाहती हैं कि इंटरनेट में हिन्दी में अच्छे कंटेंट आयें। अब गूगल बाबा भी भिड़ गये हैं इंटरनेट पर अच्छे हिन्दी कंटेंट लाने के लिये। यही कारण है कि अब Google और LiveHindustan।com ने मिलकर आयोजित किया है 'है बातों में दम?' प्रतियोगिता! और अच्छे लेखों के लिये अनेक पुरस्कार भी रखे गये हैं। इस प्रतियोगिता में वे ही लेख शामिल हो पायेंगे जो जानकारीयुक्त होंगे, जिसे पढ़ने के लिये पाठकों की भीड़ इकट्ठी होगी।

गूगल और अन्य कंपनियाँ क्यों चाहती हैं इंटरनेट पर हिन्दी में अच्छ कंटेंट?

क्योंकि ये कंपनियाँ संसार के अन्य देशों की तरह भारत में भी अपने व्यवसाय का विस्तार करना चाहती हैं। उनके व्यापार चलते हैं पाठकों की भीड़ से और पाठकों की भीड़ इकट्ठा करते हैं अच्छे कंटेंट।

हमें यह स्मरण रखना होगा कि गूगल और अन्य कंपनियों के इस प्रयास से यदि हिन्दी व्यावसायिक हो जाती है तो इन कंपनियों के व्यवसाय बढ़ने के साथ ही साथ हम ब्लोगरों की आमदनी के अवसर भी अवश्य ही बढ़ेंगे।

चलते-चलते

एक सिंधी व्यापारी सुबह दुकान जाता था तो रात को ही वापस घर लौटता था। एक बार किसी अति आवश्यक कार्य से बीच में ही उसे घर आना पड़ा तो उसने अपनी पत्नी को पड़ोसी के साथ संदिग्धावस्था में देख लिया। क्रोध में आकर उसने रिवाल्व्हर निकाल लिया किन्तु इसी बीच पड़ोसी भाग कर अपने घर पहुँच गया। व्यापारी भी उसके पीछे पीछे उसके घर में घुस गया।

कुछ देर बाद व्यापारी वापस अपने घर आया तो डरी हुई उसकी पत्नी ने पूछा, "मार डाला क्या उसे?"

"नहीं, अपना रिवाल्व्हर बेच आया उसके पास भारी मुनाफा लेकर!"

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यदि यह बता दोगे कि मेरी थैली में क्या है तो मैं पुरस्कार के रूप में थैले के अंडों में से दो अंडे दूँगा और यदि बता दोगे कि थैली में कितने अंडे हैं तो मैं थैली के दसों अंडे पुरस्कार के रूप में दे दूँगा।

Friday, December 11, 2009

बड़े शौक से खाते हो करी या तरी ... जानते हो क्या है इसकी हिस्टरी?

करी शब्द तमिल के कैकारी, जिसका अर्थ होता है विभिन्न मसालों के साथ पकाई गई सब्जी, शब्द से बना है। ब्रिटिश शासनकाल में कैकारी अंग्रेजों को इतना पसंद आया कि उन्होंने उसे काट-छाँट कर छोटा कर दिया और करी बना दिया। आज तो यूरोपियन देशों में करी इंडियन डिशेस का पर्याय बन गया है।

भारतीय ग्रेव्ही, जिसे कि अक्सर करी और तरी भी कहा जाता है, का अपना अलग ही इतिहास है। जी हाँ, आपको जानकर आश्‍चर्य होगा कि भारतीय करी का इतिहास 5000 वर्ष पुराना है। प्राचीन काल में, जब भारत आने के लिये केवल खैबर-दर्रा ही एकमात्र मार्ग था क्योंकि उन दिनों समुद्री मार्ग की खोज भी नहीं हुई थी। उन दिनों में भी यहाँ आने वाले विदेशी व्यापारियों को भारतीय भोजन इतना अधिक पसंद था कि वे इसे पकाने की विधि सीख कर जाया करते थे और विश्वप्रसिद्ध भारत के मोतियों, ढाका के मलमल आदि के साथ ही साथ विश्‍वप्रसिद्ध गरम मसाला खरीद कर अपने साथ ले जाना कभी भी नहीं भूलते थे।

मोतियों, मलमल, मसाले आदि के व्यापार ने भारत को एक ऐसा गड्ढा बना कर रख दिया था जिसमें संसार भर का धन कर जमा होते जाता था पर उसके उस गड्ढे से निकल जाने का कोई रास्ता नहीं था। पर बाद में मुगल आक्रान्ताओं ने इस देश को ऐसा लूटा और अंग्रेज रूपी जोक ने इस देश का खून ऐसा चूसा कि धन सम्पत्ति का वह गड्ढा पूरी तरह से खाली हो गया।

अस्तु, करी की बात चली है तो थोड़ी सी बात भारतीय भोजन की भी कर लें!

भारतीय खाना....

याने कि स्वाद और सुगंध का मधुर संगम!

पूरन पूरी हो या दाल बाटी, तंदूरी रोटी हो या शाही पुलाव, पंजाबी खाना हो या मारवाड़ी खाना, जिक्र चाहे जिस किसी का भी हो रहा हो, केवल नाम सुनने से ही भूख जाग उठती है।

भारतीय भोजन की अपनी एक विशिष्टता है और इसी कारण से आज संसार के सभी बड़े देशों में भारतीय भोजनालय पाये जाते हैं जो कि अत्यंत लोकप्रिय हैं। विदेशों में प्रायः सप्ताहांत के अवकाशों में भोजन के लिये भारतीय भोजनालयों में ही जाना अधिक पसंद करते हैं।


स्वादिष्ट खाना बनाना कोई हँसी खेल नहीं है। इसीलिये भारतीय संस्कृति में इसे पाक कला कहा गया है अर्थात् खाना बनाना एक कला है। और फिर भारतीय भोजन तो विभिन्न प्रकार की पाक कलाओं का संगम ही है! इसमें पंजाबी खाना, मारवाड़ी खाना, दक्षिण भारतीय खाना, शाकाहारी खाना, मांसाहारी खाना आदि सभी सम्मिलित हैं।

भारतीय भोजन की सबसे बड़ी विशेषता तो यह है कि यदि पुलाव, बिरयानी, मटर पुलाव, वेजीटेरियन पुलाव, दाल, दाल फ्राई, दाल मखणी, चपाती, रोटी, तंदूरी रोटी, पराठा, पूरी, हलुआ, सब्जी, हरी सब्जी, साग, सरसों का साग, तंदूरी चिकन न भी मिले तो भी आपको आम का अचार या नीबू का अचार या फिर टमाटर की चटनी से भी भरपूर स्वाद प्राप्त होता है।




चलते-चलते

यजमान प्रेमपूर्वक खिला रहा था पण्डित जी को और पण्डित जी सन्तुष्टिपूर्वक खा रहे थे। देसी घी से बने मोतीचूर के लड्डुओं ने पण्डित जी के मन को इतना मोहा कि वे लड्डू ही लड्डू खाने लगे। इतना अधिक खा लिया कि अब उनसे उठते भी नहीं बन रहा था।

उनकी इस हालत से चिन्तित यजमान ने कहा, "कोई चूरन वगैरह लाऊँ क्या पण्डित जी?"

पण्डित जी बोले, "यजमान, यदि पेट में चूरन खाने के लिये जगह बची होती तो एक लड्डू और न खा लिया होता!"

Thursday, December 10, 2009

मुझे भारत पर गर्व है ... क्योंकि मार्क ट्वेन भी कहते हैं

भारत मानव वंश का उद्‍गम, अनेक भाषाओं तथा बोलियों की जन्म-स्थली, इतिहास की माता, पौराणिक एवं अपूर्व कथाओं की मातामह (दादी) और अनेक परम्पराओं की प्रमातामह (परदादी) है। मानव इतिहास की अत्यंत बहुमूल्य उपलब्धियाँ भारत के खजाने की ही देन हैं!

- मार्क ट्वेन

(India is the cradle of the human race, the birthplace of human speech, the mother of history, the grandmother of legend, and the great grand mother of tradition। Our most valuable and most astrictive materials in the history of man are treasured up in India only!

- Mark Twain)

वहीं अल्बर्ट आइंस्टीन का कथन हैः

"हम भारतीयों के ऋणी हैं जिन्होंने हमें गिनती सिखाया है जिसके बिना कोई सार्थक वैज्ञानिक खोज किया ही नहीं जा सकता था!"

- अल्बर्ट आइंस्टीन


("We owe a lot to the Indians, who taught us how to count, without which no worthwhile scientific discovery could have been made!"

- Albert Einstein)

सही बात तो यह है कि भारतीय संस्कृति के ढाँचे में अलग-अलग युगों में समय, काल और परिस्थितियों के अनुसार तथा उन युगों की परंपरा, रीति-रिवाज और लोगों के विचारों एवं मान्यताओं के अनुसार अनेकों बार परिवर्तन हुआ है। इसी कारण से आज भी भारतवर्ष के अलग-अलग क्षेत्रों में अनेक प्रकार की संस्कृतियाँ, भाषायें, परंपराएँ, रीति रिवाज और मान्यताएँ पाई जाती हैं।

भारत में हिंदू, बौद्ध, जैन, सिख जैसे अनेक धर्मों और संप्रदायों का आविर्भाव हुआ जिनका प्रभाव न केवल भारत के वरन विश्‍व के अनेकों देशों के निवासियों पर आज भी देखने को मिलता है। दसवीं शताब्दी के बाद से भारत में पारसी, तुर्क, मुस्लिम आदि विदेशी संस्कृतियों का प्रभाव पड़ना आरम्भ हो गया जिसके कारण यहाँ की संस्कृति में विभिन्नता और अधिक बढ़ गई।

भारत के विभिन्न क्षेत्रों में प्रचलित भारतीय संस्कृति को अनेक भागों में वर्गीकृत किया जा सकता है। भारत पर विश्‍व के अनेकों धर्मों तथा संप्रदायों का भी प्रभाव रहा है जिसके परिणामस्वरूप यहाँ पर विभिन्न धार्मिक-सांप्रदायिक भावनाओं के मिश्रण से परिपूर्ण संस्कृतियों का भी प्रादुर्भाव भी हुआ। जहाँ भारत के ग्रामीण तथा कस्बाई क्षेत्रो में आज भी प्राचीन संस्कृतियों का प्रभाव बना हुआ है वहीं देश के बड़े नगरों में इन संस्कृतियों का विलोप होता जा रहा है और वैश्‍वीकरण का प्रभाव बढ़ता जा रहा है।

संक्षेप में कहा जाये तो भारतीय संस्कृति अनेकता में एकता का सबसे बड़ा उदाहरण है। चलते-चलते
एक उत्तर-भारतीय परिवार के पड़ोस में दक्षिण-भारतीय परिवार रहने के लिये आ गया। उत्तर-भारतीय परिवार ने उन्हें भोजन के लिये निमन्त्रित किया। खाना खाते समय दक्षिण-भारतीय गृहस्वामिनी कुछ संकोच कर रही थी इसलिये उत्तर-भारतीय गृहस्वामिनी ने कहा, "खाइये, खाइये, शरमाइये नहीं!"

कुछ दिन बाद दक्षिण-भारतीय परिवार ने उत्तर-भारतीय परिवार को खाने के लिये बुला लिया। खाना परसते वक्त दक्षिण-भारतीय गृहस्वामिनी को याद आया कि खाना खाते वक्त उससे कुछ कहा गया था। उसे हिन्दी ठीक से नहीं आती थी पर उस कथन को याद करके उसने उत्तर-भारतीय गृहस्वामिनी से कहा, "खाओ, खाओ, शरम तो है नहीं!"

Wednesday, December 9, 2009

उनके पेट में दर्द हो जायेगा अगर सोचेंगे नहीं तो ... आखिर दार्शनिक, वैज्ञानिक या गणितज्ञ जो हैं ये

सब्जी खरीदने तो जाते ही हैं आप। यदि कभी सब्जीवाले ने आपको एक रुपया भी कम वापस किया तो आप तत्काल पूछते हैं कि एक रुपया कम क्यों है? सब्जीवाला भी कह देता है कि माफ कीजिये साहब, हिसाब में गलती हो गई थी।

इसका मतलब यह है कि हिसाब आप भी करते हैं और हिसाब सब्जी वाला भी करता है। याने कि हर किसी को कभी न कभी हिसाब करना ही पड़ता है, भले ही वह गणित के मामले में धुरन्धर रहा हो या गणित से बहुत ज्यादा घबराने वाला।

हाँ, तो कैसे करते हैं आप हिसाब? एक से लेकर नौ और शून्य अर्थात् दस अंकों की सहायता से ही ना? पर कभी सोचा है कि आखिर ये अंक दस ही क्यों होते हैं?

अब आप कहेंगे कि अंक दस होते हैं तो होते हैं। हमारा काम तो अच्छे से चल जाता है इन दस अंको से। हम हर प्रकार का हिसाब-किताब तो कर ही लेते हैं इनकी सहायता से। तो फिर क्यों अपना सर खपायें यह सोच कर कि यदि दस से कम या अधिक अंक होते तो क्या होता?

पर ये जो दार्शनिक, वैज्ञानिक और गणितज्ञ जो होते हैं ना, ये बड़े विचित्र प्राणी होते हैं! ये अगर सोचना छोड़ दें तो इनके पेट में दर्द हो जाये। उत्सुकता नाम का कीड़ा कुलबुलाते रहता है इनके दिमाग के भीतर।

बस भिड़ जाते हैं ये यही सोचने में कि यदि दस के स्थान पर आठ ही अंक होते तो क्या होता? आठ और नौ नाम वाले अंक यदि हमारे पास नहीं होते तो हम सभी प्रकार की गणना कर कर पाते या नहीं? और जान कर ही छोड़े कि सिर्फ आठ अंकों से भी सभी प्रकार के गणित को हल किया जा सकता है। बस बन गई एक नई अंक प्रणाली। याने कि Decimal Numeral System तो हमारे पास था ही अब Octave Numeral System भी मिल गया हमें।

पर वो कहते हैं ना कि "खाली दिमाग शैतान का घर"। फिर सोचने लगे कि आठ की जगह छः ही अंक होते तो क्या होता? माथापच्ची करके फिर पता लगा लिया कि उससे भी हमारा काम रुकने वाला नहीं था मतलब तब भी हम सभी प्रकार की गणना कर ही लेते।

पर इनको संतुष्टि कहाँ होती है? दो-दो अंक कम करते ही चले गये और आखिर में पहुँच गये सिर्फ दो अंकों तक। याने कि फिर माथाफोड़ी करने लग गये कि यदि हमारे पास अंकों के नाम पर सिर्फ 0 और 1 ही होता तो क्या हम गणित के सब प्रकार के सवाल हल कर सकते या नहीं। तो एक बार फिर खपाई उन्होंने अपनी खोपड़ी! और जान लिया कि सिर्फ दो अंकों से भी सब प्रकार की गणना की जा सकती है। और बन गया Binary Numeral System। केवल इतना ही नहीं, एक प्रकार के अंक प्रणाली की संख्या को दूसरे प्रकार की अंक प्रणाली में परिवर्तित करने का तरीका भी निकाल लिया। याने कि जान लिया कि दशमलव अंक प्रणाली Decimal Numeral System मे जिसे 45 लिखेंगे उसी को द्विआधारी अंक प्रणाली Binary Numeral System में 101101 लिखेंगे।

वैसे तो इस Binary Numeral System का विकास हमारे देश के प्रसिद्ध दार्शनिक और गणितज्ञ "पिंगल" ने ईसा पूर्व 200 में ही कर लिया था किन्तु वो संस्कृत वाले थे ना, इसलिये उनकी बात पूरे संसार तक नहीं पहुँच सकी। पूरे संसार तक बात तभी पहुँची जब श्रीमान महोदय Gottfried Leibniz ने सत्रहवी शताब्दी में अपने हिसाब से Binary Numeral System का विकास किया।

तो Binary Numeral System तो हमें बहुत पहले ही मिल गया था किन्तु सैकड़ों साल तक यह ठंडे बस्ते में पड़ी रही क्योंकि दशमलव प्रणाली की अपेक्षा कठिन होने के कारण आम लोगों में इसकी कोई उपयोगिता नहीं थी।

आइये अब देखते हैं कि, सोचने की इस सनक के परिणाम से प्राप्त, Binary Numeral System कैसे महत्वपूर्ण बन गया। क्योंकि बाद में जब विद्युत के विषय में अध्ययन हुआ तो पता चला कि विद्युत की केवल दो ही अवस्थाएँ होती हैं। या तो विद्युत प्रवाहित हो रही है या फिर विद्युत प्रवाहित नहीं हो रही है। तीसरी कोई अवस्था हो ही नहीं सकती।

तो विद्युत में केवल दो अवस्थाएँ होने और Binary Numeral System में केवल दो अंक होने की समानता ने जोरदार काम कर दिखाया और मिल गया हमें Computer Science।

तो बन्धुओं! कब किस सोच से क्या कमाल हो जायेगा कहा नहीं जा सकता। अब देखिये ना पेड़ से फल के नीचे गिरने पर भला कोई सोचता है क्या कि फल आखिर नीचे ही क्यों गिरा? ऊपर क्यों नहीं चला गया? ऐसा सोचना बचपना नहीं है तो क्या है? पर न्यूटन साहब को फल का नीचे गिरना ही अजीब लगा था। चिन्तन करना शुरू कर दिया इसी बात पर और उनके इस चिन्तन के नतीजे ने हमें गुरुत्वाकर्षण का सिद्धान्त दे दिया।

चलते-चलते

भारत की कुल आबादी 100 करोड़

रिटायर्ड लोगों की संख्या 9 करोड़ (ये कोई काम नहीं करते)

राज्य शासन में नौकरी करने वालों की संख्या 30 करोड़ (ये भी कोई काम नहीं करते)

केन्द्र शासन में नौकरी करने वालों की संख्या 17 करोड़ (ये भी कोई काम नहीं करते)

विदेशों में नौकरी करने वालों की संख्या 1 करोड़ (ये भारत के लिये काम नहीं करते)

बेरोजगारों की संख्या 15 करोड़ (याने कि काम करने का सवाल ही नहीं पैदा होता)

स्कूल में पढ़ने वालों की संख्या 25 करोड़ (याने कि काम करने का सवाल ही नहीं पैदा होता)

पाँच साल के कम उम्र वाले बच्चों की संख्या 1 करोड़ (याने कि काम करने का सवाल ही नहीं पैदा होता)

आँकड़ों के अनुसार किसी भी समय अस्पताल में भर्ती लोगों की संख्या 1.2 करोड़ (याने कि काम करने का सवाल ही नहीं पैदा होता)

आँकड़ों के अनुसार किसी भी समय जेल में सजा भुगत रहे लोगों की संख्या 79,99,998 (जो कि मजबूरी में सिर्फ नहीं के बराबर काम करते हैं याने कि माना जा सकता है कि ये भी कोई काम नहीं करते)

अब बचे आप और मैं! तो आप भी तो हमेशा अपना पोस्ट, टिप्पणियाँ लिखने और मेल चेक करने में ही व्यस्त रहते हैं। अब भला बताइये मैं अकेले इस देश को कैसे संभालू? :-)

Tuesday, December 8, 2009

कल किया था एक सवाल ... जिसका जवाब है महिला ब्लोगर ने किया था कमाल!

अब आप पूछेंगे कि कैसे किया था महिला ब्लोगर ने कमाल? अभी बताता हूँ किन्तु उसके पहले आपको यह बता दूँ कि इस प्रश्न का सम्बन्ध व्यवहार विज्ञान से है और 'विशेष परिस्थिति में मनुष्य किस प्रकार से सोचता है' यही जानने के लिये इस प्रश्न को किया जाता है।

तो परिस्थिति यह थी कि सारे ब्लोगर्स विकट स्थिति में फँसे थे। चारों ओर रेत का विशाल सागर लहरा रहा था। अब बताइये कि ब्लोगर्स के लिये पहली सबसे बड़ी और समस्या क्या थी? वह थी उस विकट स्थिति याने कि रेगिस्तान से हर हाल में जल्दी से जल्दी बाहर निकलना। आखिर खाने पीने का जो भी सामान बचा लिया गया था वह कितने समय तक चलने वाला था?

बिना किसी प्रकार की सहायता के वे बाहर निकल नहीं सकते थे और सहायता देने के लिये वहाँ पर कोई भी नहीं था। तो कैसे मिलती सहायता? चूँकि वह रेगिस्तान एयर रूट के बीच में आता था इसलिये वहाँ पर से किसी न किसी प्लेन के गुजरने की पूरी पूरी सम्भावना थी। अब मान लीजिये कि कोई प्लेन उनके ऊपर से गुजरती भी तो वे उस प्लेन के भीतर के लोगों को अपने वहाँ फँसे होने के विषय में कोई संकेते कैसे दे पाते? संकेत देने का एक ही तरीका था सूर्य के प्रकाश को परावर्तित करके प्लेन के लोगों का ध्यान आकर्षित करना। ध्वनि संकेत कुछ भी काम नहीं आने वाला था। वे लोग कितना भी जोर लगा कर चिल्लाते या बंदूक पिस्तोल दाग कर आवाज करते, उनकी आवाज ऊपर आकाश में उड़ते हुए प्लेन तक पहुँचने वाली नहीं थी। यदि आवाज किसी प्रकार से वहाँ तक पहुँच भी जाती तो प्लेन के इंजिन के आवाज में दब जाने वाली थी। तो संकेते देने का एकमात्र तरीका था सनलाकइट को रिफ्लेक्ट करना जो कि सिर्फ दर्पन की सहायता से ही किया जा सकता था। और दर्पन केवल महिला ब्लोगर के मेकअप बॉक्स में ही मौजूद था।

दर्पन के द्वारा सूर्य के प्रकाश को सभी दिशाओं में परावर्तित करके भी संकेत भेजने का प्रयास किया जा सकता था ताकि यदि आसपास को गाँव, बस्ती या नगर जैसी रिहायशी स्थान हो तो वहाँ के लोगों को संदेश मिल जाये कि कोई रेगिस्तान में फँसा है।

तो बन्धुओं! आधे घंटे के भीतर ही उन ब्लोगर्स के ऊपर से एक प्लेन गुजरी तो उन्होंने दर्पन से सूर्य के प्रकाश को परावर्तित कर के उस प्लेन तक अपना संकेत भेजा। उनका संकेत मिलते ही प्लेन के स्टाफ ने समीप के उन सभी स्थानों में सूचना भेज दी और तत्काल सहायता भेज कर सभी ब्लोगर्स को रेगिस्तान से निकाल लिया गया।

तो किया ना कमाल महिला ब्लोगर ने अपना मेकअप बॉक्स बचा कर!

कुछ लोग कह सकते हैं कि प्रकाश संकेत तो टार्च से भी भेजा जा सकता था पर दिन में सूर्य के प्रकाश की वजह से टार्च का प्रकाश तो काम करने से रहा और रात में भी यह कहा नहीं जा सकता कि टार्च का प्रकाश काम कर पाता भी कि नहीं क्योंकि वह था तो टार्च ही, कोई शक्तिशाली सर्चलाइट थोड़े ही था।

कल के मेरे पोस्ट "किस ब्लोगर ने किया कमाल?" के सवाल के जवाब तो बहुत लोगों ने दिया टिप्पणी करके, जिसके लिये मैं सभी टिप्पणीकारों का आभारी हूँ, किन्तु लगता है कि सवाल को किसी ने भी गम्भीरता से नहीं लिया। हाँ अन्तर सोहिल जी ने कुछ सही दिशा में सोचते हुए टिप्पणी की थी किः

अन्तर सोहिल said...

कोई न कोई तो उन्हें ढूंढने जरूर आयेगा और संभव है कि हेलीकाप्टर से आये तो रात में तो टार्च से अच्छा साईन कुछ नही हो सकता और दिन के लिये जिसके पास माचिस है वो कुछ जला कर धुआं भी कर सकता है।
सच है कि "खुद के मरे बिना स्वर्ग नहीं दिखता"। क्योंकि घटना काल्पनिक थी और कोई भी ब्लोगर खुद नहीं फँसा था इसलिये किसी ने गम्भीरतापूर्वक सवाल का जवाब भी नहीं सोचा।

आखिर में एक बात और। वह यह कि पोस्ट तो हमने किया और दुनिया भर की तारीफ बटोर लिया ललित शर्मा जी ने क्योंकि उन्होंने बंदूक, पिस्तोल, चाकू आदि बचा लिये थे। इसी को कहते हैं "धक्का खाय पुजारी और मजा करे गिरधारी!" :-)

बधाई हो ललित जी!!!

चलते-चलते

एक दिन हम बहुत खुश थे तो खुशी खुशी में खुद ही खाना बनाने में भिड़ गये। श्रीमती जी भी खुश हो गईं कि चलो एक दिन के लिये ही सही खाना पकाने से छुट्टी तो मिली। हम किचन में थे और वे ड्राइंगरूम में बैठकर अपनी एक सहेली से गप शप करने में व्यस्त हो गईं।

कुछ ही देर में हमने किचन से ही चिल्लाकर पूछा, "अरे, नमक कहाँ रखा है?"

श्रीमती जी की ड्राइंगरूम से आवाज आई, "आपको तो कुछ मिलता ही नहीं। वो जो गरममसाला का डिब्बा है ना, जिस पर हल्दी लिखा हुआ कागज चिपका है, उसी में तो है नमक।"

Monday, December 7, 2009

किस ब्लोगर ने किया कमाल?

प्लेन में सारे हिन्दी ब्लोगर्स थे। अचानक प्लेन के इंजिन में खराबी आ गई और पायलट को रेगिस्तान में क्रैश लैंडिंग करना पड़ गया। प्लेन को सावधानीपूर्वक रेगिस्तान में सुरक्षित उतार लिया गया। प्लेन के क्रैश होने पहले सारे ब्लोगर्स सुरक्षित दूरी तक पहुँच गये। यद्यपि प्लेन क्रैश हो गया और दुर्भाग्य से प्लेन का भी उसके साथ स्टाफ समाप्त हो गया किन्तु सौभाग्य यह रहा कि सारे के सारे ब्लोगर्स बच गये।

सारे ब्लोगर्स सुरक्षित बच तो गये किन्तु स्थिति विकट थी, चारों ओर दूर दूर तक रेत ही रेत था। न कोई आदमी न आदम जात। यह भी पता नहीं था कि वे कहाँ पर हैं और नजदीक में कोई गाँव, कस्बा या शहर है भी कि नहीं।

खैर साहब, हमारे कुछ ब्लोगर मित्रों ने अपने तत्काल बुद्धि का प्रयोग करते हुए प्लेन से भागते वक्त अपने साथ कुछ न कुछ सामान भी बचा लाये थे जिसका विवरण नीचे दिया जा रहा हैः

ललित शर्मा जी ने हथियार का बक्सा बचा लिया जिसमें कि बंदूकें, पिस्तोलें और चाकू आदि थे।

हमने तो भाई शानदार व्हिस्की के एक क्रेट बचा लिया था।

एक मित्र ने पानी पाउच की एक बोरी बचा ली थीं।

एक अन्य महोदय ने रेजर और ब्लेड बचाया था।

किसी और ने मोमबत्ती और माचिस का डिब्बा बचाया था।

एक ने अपने साथ एक टार्च रख लिया था।

एक अन्य मित्र ने पैकेज्ड फूड का बक्सा बचा लिया था।

एक महिला ब्लोगर ने अपना मेकअप बॉक्स बचाया था।

एक मित्र ने फर्स्ट एड बॉक्स बचा लिया था।

किसी अन्य ने सामान्य दवाइयों का डब्बा बचाया था जिसमें पैरासीटामॉल, ब्रुफेन, निमुसलाइड जैसे बुखार एवं दर्द निवारक सामान्य दवायें थीं।

एक मित्र ने जो बक्सा बचाया था उसमें दाल, चाँवल, गेहूँ आदि खाना बनाने के सामान थे।

अब आपको बताना है कि उपरोक्त बचाये गये सामानों में से सबसे अधिक काम की चीज कौन सी है? आखिर किस ब्लोगर ने किया था कमाल सबसे अधिक महत्वपूर्ण चीज बचाकर?

सोचिये! दिमाग लगाइये!! जवाब दीजिये!!!

चलते-चलते

किसी बात से नाराज होकर सभापति ने कहा, "इस सभा मे उपस्थित आधे लोग बेवकूफ हैं।"

इस से लोग और भी नाराज हो गये तो सभापति ने कहा, "कृपया नाराज मत होइये, इस सभा मे उपस्थित आधे लोग बेवकूफ नहीं हैं।"

Sunday, December 6, 2009

बुड्ढों की कबड्डी

चलिये, आज हम आपको कबड्डी दिखाने ले चलते हैं, वह भी बुड्ढों की कबड्डी। आज आपको पता चल जायेगा कि हमारे देश के बुड्ढों में भी अब तक कितना दम बाकी है। भाई, आखिर असली घी पिया है इन्होंने अपने जमाने में। इतवार की छुट्टी का मजा आ जायेगा आपको इन बुड्ढों की कबड्डी देख कर!

कबड्डी तो कभी न कभी आपने खेला ही होगा, और यदि खेला नहीं होगा तो देखा होगा ही। कबड्डी खेलने वाले में जितना जोश होता है उससे कहीं अधिक देखने वाले मे होता है। हम जब स्कूल में पढ़ते थे तो प्ले ग्राउँड में कबड्डी, फुटबाल और हॉकी के खिलाड़ी ही दिखाई दिया करते थे किन्तु आज तो क्रिकेट ने इन खेलों की पूरी तरह से छुट्टी कर रखी है। अस्तु!

मित्रों! महान लेखकों की कल्पनाशक्ति भी असाधारण होती है तभी तो कथा सम्राट प्रेमचन्द जी ने वर्णन किया है इस कबड्डी का अपने उपन्यास गोदान में जिसे कि हम नीचे उद्धृत कर रहे हैं। यदि आपने प्रेमचंद जी को पहले पढ़ा है तब तो, हम जानते हैं कि, आप इस वर्णन को पूरा पढ़े बिना यहाँ से हिलेंगे भी नहीं और यदि आप प्रेमचन्द जी को इस पोस्ट के माध्यम से पहली बार पढ़ रहे हैं तो फिर तो आप दीवाने हो जायेंगे उनकी कहानियों और उपन्यासों के।

तो प्रस्तुत है "बुड्ढों की कबड्डी"
धीरे-धीरे एक-एक करके मजूरों को काम मिलता जा रहा था। कुछ लोग निराश होकर घर लौटे जा रहे थे। अधिकतर वह बूढ़े और निकम्मे बच रहे थे, जिनका कोई पुछत्तर न था। और उन्हीं में गोबर भी था। लेकिन अभी आज उसके पास खाने को है। कोई ग़म नहीं। सहसा मिरज़ा खुर्शेद ने मज़दूरों के बीच में आकर ऊँची आवाज़ से कहा -- जिसको छः आने रोज़ पर काम करना हो, वह मेरे साथ आये। सबको छः आने मिलेंगे। पाँच बजे छुट्टी मिलेगी। दस-पाँच राजों और बढ़इयों को छोड़कर सब के सब उनके साथ चलने को तैयार हो गये। चार सौ फटे-हालों की एक विशाल सेना सज गयी। आगे मिरज़ा थे, कन्धे पर मोटा सोटा रखे हुए। पीछे भुखमरों की लम्बी क़तार थी, जैसे भेड़ें हों। एक बूढ़े ने मिरज़ा से पूछा -- कौन काम करना है मालिक? मिरज़ा साहब ने जो काम बतलाया, उस पर सब और भी चकित हो गये। केवल एक कबड्डी खेलना! यह कैसा आदमी है, जो कबड्डी खेलने के लिए छः आना रोज़ दे रहा है। सनकी तो नहीं है कोई! बहुत धन पाकर आदमी सनक ही जाता है। बहुत पढ़ लेने से भी आदमी पागल हो जाते हैं। कुछ लोगों को सन्देह होने लगा, कहीं यह कोई मखौल तो नहीं है! यहाँ से घर पर ले जाकर कह दे, कोई काम नहीं है, तो कौन इसका क्या कर लेगा! वह चाहे कबड्डी खेलाये, चाहे आँख मिचौनी, चाहे गुल्लीडंडा, मजूरी पेशगी दे दे। ऐसे झक्कड़ आदमी का क्या भरोसा? गोबर ने डरते-डरते कहा -- मालिक, हमारे पास कुछ खाने को नहीं है। पैसे मिल जायँ, तो कुछ लेकर खा लूँ। मिरज़ा ने झट छः आने पैसे उसके हाथ में रख दिये और ललकारकर बोले -- मजूरी सबको चलते-चलते पेशगी दे दी जायगी। इसकी चिन्ता मत करो। मिरज़ा साहब ने शहर के बाहर थोड़ी-सी ज़मीन ले रखी थी। मजूरों ने जाकर देखा, तो एक बड़ा अहाता घिरा हुआ था और उसके अन्दर केवल एक छोटी-सी फूस की झोंपड़ी थी, जिसमें तीन-चार कुर्सियां थीं, एक मेज़। थोड़ी-सी किताबें मेज़ पर रखी हुई थीं। झोंपड़ी बेलों और लताओं से ढकी हुई बहुत सुन्दर लगती थी। अहाते में एक तरफ़ आम और नीबू और अमरूद के पौधे लगे हुए थे, दूसरी तरफ़ कुछ फूल। बड़ा हिस्सा परती था। मिरज़ा ने सबको क़तार में खड़ा करके ही मजूरी बाँट दी। अब किसी को उनके पागलपन में सन्देह न रहा। गोबर पैसे पहले ही पा चुका था, मिरज़ा ने उसे बुलाकर पौधे सींचने का काम सौंपा। उसे कबड्डी खेलने को न मिलेगी। मन में ऐंठकर रह गया। इन बुड्ढों को उठा-उठाकर पटकता; लेकिन कोई परवाह नहीं। बहुत कबड्डी खेल चुका है। पैसे तो पूरे मिल गये। आज युगों के बाद इन ज़रा-ग्रस्तों को कबड्डी खेलने का सौभाग्य मिला। अधिक-तर तो ऐसे थे, जिन्हें याद भी न आता था कि कभी कबड्डी खेली है या नहीं। दिनभर शहर में पिसते थे। पहर रात गये घर पहुँचते थे और जो कुछ रूखा-सूखा मिल जाता था, खाकर पड़े रहते थे। प्रातःकाल फिर वही चरखा शुरू हो जाता था। जीवन नीरस, निरानन्द, केवल एक ढर्रा मात्र हो गया था। आज जो यह अवसर मिला, तो बूढ़े भी जवान हो गये। अधमरे बूढ़े, ठठरियाँ लिये, मुँह में दाँत न पेट में आँत, जाँघ के ऊपर धोतियाँ या तहमद चढ़ाये ताल ठोक-ठोककर उछल रहे थे, मानो उन बूढ़ी हड्डियों में जवानी धँस पड़ी हो। चटपट पाली बन गयी, दो नायक बन गये। गोईयों का चुनाव होने लगा। और बारह बजते-बजते खेल शुरू हो गया। जाड़ों की ठंडी धूप ऐसी क्रीड़ाओं के लिए आदर्श ऋतु है। इधर अहाते के फाटक पर मिरज़ा साहब तमाशाइयों को टिकट बाँट रहे थे। उन पर इस तरह की कोई-न-कोई सनक हमेशा सवार रहती थी। अमीरों से पैसा लेकर ग़रीबों को बाँट देना। इस बूढ़ी कबड्डी का विज्ञापन कई दिन से हो रहा था। बड़े-बड़े पोस्टर चिपकाये गये थे, नोटिस बाँटे गये थे। यह खेल अपने ढंग का निराला होगा, बिलकुल अभूतपूर्व। भारत के बूढ़े आज भी कैसे पोढ़े हैं, जिन्हें यह देखना हो, आयें और अपनी आँखें तृप्त कर लें। जिसने यह तमाशा न देखा, वह पछतायेगा। ऐसा सुअवसर फिर न मिलेगा। टिकट दस रुपए से लेकर दो आने तक के थे। तीन बजते-बजते सारा अहाता भर गया। मोटरों और फिटनों का ताँता लगा हुआ था। दो हज़ार से कम की भीड़ न थी। रईसों के लिए कुसिर्यों और बेंचों का इन्तज़ाम था। साधारण जनता के लिए साफ़ सुथरी ज़मीन।

खेल शुरू हो गया। जनता बूढ़े कुलेलों पर हँसती थी, तालियाँ बजाती थी, गालियाँ देती थी, ललकारती थी, बाज़ियाँ लगाती थी। वाह! ज़रा इन बूढ़े बाबा को देखो! किस शान से जा रहे हैं, जैसे सबको मारकर ही लौटेंगे। अच्छा, दूसरी तरफ़ से भी उन्हीं के बड़े भाई निकले। दोनों कैसे पैंतरे बदल रहे हैं! इन हिड्डयों में अभी बहुत जान है। इन लोगों ने जितना घी खाया है, उतना अब हमें पानी भी मयस्सर नहीं। लोग कहते हैं, भारत धनी हो रहा है। होता होगा। हम तो यही देखते हैं कि इन बुड्ढों-जैसे जीवट के जवान भी आज मुश्किल से निकलेंगे। वह उधरवाले बुड्ढे ने इसे दबोच लिया। बेचारा छूट निकलने के लिए कितना ज़ोर मार रहा है; मगर अब नहीं जा सकते बच्चा! एक को तीन लिपट गये। इस तरह लोग अपनी दिलचस्पी ज़ाहिर कर रहे थे; उनका सारा ध्यान मैदान की ओर था। खिलाड़ियों के आघात-प्रतिघात, उछल-कूद, धर-पकड़ और उनके मरने-जीने में सभी तन्मय हो रहे थे। कभी चारों तरफ़ से क़हक़हे पड़ते, कभी कोई अन्याय या धाँधली देखकर लोग ' छोड़ दो, छोड़ दो ' का गुल मचाते, कुछ लोग तैश में आकर पाली की तरफ़ दौड़ते ...


तो बन्धुओं, बताइयेगा जरूर कि कैसी लगी आपको बुड्ढों की कबड्डी?

चलते-चलते

नेता जी के अनुसार खेल तीन प्रकार के होते हैं - पहला हॉकी, दूसरा फुटबाल और तीसरा टूर्नामेंट!