Wednesday, June 23, 2010

बाप बड़ा ना भैया सबसे बड़ा रुपैया

ऐसा नहीं है कि संसार में रुपया ही सबसे बड़ा है, रुपये से बढ़ कर एक से एक मूल्यवान वस्तुएँ हैं जैसे कि विद्या, शिक्षा, ज्ञान, योग्यता आदि, किन्तु कठिनाई यह है कि, आज के जमाने में, वे वस्तुएँ भी केवल रुपये अदा करके प्राप्त की जा सकती हैं। आज के जमाने में हर चीज बिकाऊ हैं, पानी तक तो बिकने लगा है फिर शिक्षा और चिकित्सा की बात ही क्या है।

यदि आपके पास रुपया नहीं है तो क्या आप अपने औलाद को, उच्च शिक्षा तो दूर, साधारण शिक्षा ही दिलवा सकते हैं? हमारे समय तो लोग के.जी., पी.पी. आदि क्या होता है नहीं जानते थे और न ही म्युनिसिपालटी के स्कूलों अलावा अन्य खर्चीले प्रायवेट स्कूल हुआ करते थे। पिताजी हमें म्युनिसिपालटी के स्कूल में ले गये थे जहाँ हमें अपने सीधे हाथ को सिर पर से घुमा कर उलटे कान को छूने के लिये कहा गया (ऐसा माना जाता था कि छः वर्ष की उम्र हो जाने पर हाथों की लंबाई इतनी हो जाती है कि हाथ को सिर पर से घुमाते हुये दूसरी ओर के कान को छूआ जा सकता है, छः वर्ष से कम उम्र में नहीं) और हम भर्ती हो गये थे पहली कक्षा में। कपड़े की एक थैली में एक बाल-भारती पुस्तिका और स्लेट पेंसिल, यही था हमारा बस्ता। आज यदि आप किसी तरह से अपने बच्चे को किसी स्कूल में भर्ती करा भी लें तो उसके बस्ते का खर्च उठाते उठाते ही बेदम हो जायेंगे और बच्चा उसका बोझ उठाते उठाते।

उन दिनों प्रायमरी स्कूल में पढ़ने के लिये कोई फीस नहीं पटानी पड़ती थी। मिडिल स्कूल के लिये चार या छः आना और हाई स्कूल के लिये भी आठ आना जैसा मामूली सा फीस पटाना होता था। चिकित्सा के लिये बड़े बड़े अस्पताल न हो कर गिनी-चुनी डिस्पेंसरियाँ ही थीं किन्तु उनके मालिक डॉक्टर की फीस नियत नहीं थी, जहाँ पैसे वालों से अधिक फीस ले लेते थे वहीं गरीबों का मुफ्त इलाज भी कर दिया करते थे। आज आप गरीब हैं या अमीर, इससे डॉक्टर को कोई फर्क नहीं पड़ता। उनकी नियत फीस आपको देना ही होगा।

सोचता हूँ कि पचास सालों में जमाना कहां से कहाँ पहुँच गया। सब कुछ बदल चुका है। अधिक वय के लोगों को अतीत की यादें बहुत प्रिय होती हैं। मैं भी उनमें से एक हूँ इसीलिये आज मेरे विचार भी अतीत में भटकने लग गये थे।

पुराने लोगों को सदैव ही अतीत अच्छा और वर्तमान बहुत बुरा प्रतीत होते रहा है और नये लोगों को पुराने लोग पुराने लोग दकियानूस। खैर यह मानव प्रकृति है। किन्तु कम से कम शिक्षा और चिकित्सा को तो बिकने से रोकना ही होगा, इन पर सभी का समान अधिकार होना चाहिये चाहे वह अमीर हो या गरीब।

6 comments:

अन्तर सोहिल said...

मानव मन या चेतन में केवल अच्छी घटनाओं और भूतकालीन सुखों की स्मृति रहती है जी। भोगे गये बुरे समय की याद अक्सर खो जाती है।
इसलिये हमें भूतकाल ज्यादातर सुहावना मालूम पडता है।

प्रणाम

डॉ टी एस दराल said...

अवधिया जी , समय लगातार बदलता रहता है । इसी बदलाव का नाम विकास है । यही जिंदगी है। दस साल पहले मेरे पास भी मोबाईल नहीं था । आज बिना इसके सब्जी वाला भी काम नहीं करता । पुरानी यादें मन को लुभाती हैं । बहुत अच्छा लगता है , उन दिनों को याद करना ।
कुछ ऐसी ही यादें ज़रा हमारे ब्लॉग पर भी पढ़ें ।

राज भाटिय़ा said...

पहले लोगो मै लालच तो था, लेकिन कम लोगो मै, बाकी को डर होता था समाज का, समाज से डरते थे, ओर आज कल केसा समाज केसा डर सब को रुपया चाहिये केसे भी, ओर मेरे जेसा शरीफ़ आदमी बोलता रहता है कोई सुनता नही उसे

Dr. Zakir Ali Rajnish said...

सत्य वचन।
--------
आखिर क्यूँ हैं डा0 मिश्र मेरे ब्लॉग गुरू?
बड़े-बड़े टापते रहे, नन्ही लेखिका ने बाजी मारी।

अजित गुप्ता का कोना said...

एक बात और है कि हम शिक्षा और चिकित्‍सा की बात करें तो वे आज भी हैं, बस हम ही बदल गए हैं। या हमारा जीवन स्‍तर कुछ ऊपर हो गया है। आज भी गरीब के बच्‍चे ऐसे ही स्‍कूल जाते हैं जैसे कभी हम जाया करते थे और आज भी ढेरों अस्‍पताल हैं जहाँ मुफ्‍त में ईलाज होता है। यही कारण है कि सरकारी स्‍कूल धूल खा रहे हैं और प्रायवेट स्‍कूल चांदी काट रहे हैं। अब गरीब का बच्‍चा भी सरकारी स्‍कूल में नहीं पढना चाहता जबकि पहले अधिकांश बच्‍चे वहीं पढ़ते थे।

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

नयी पीढ़ी हमेशा ही पुँरी बातों को दकियानूसी कहती है...कभी शायद हम भी यही कहा करते होंगे....जब हम स्कूल जाते थे तो पुँरी पीढ़ी कहती थी कि लड़कियों को इतना पढने की क्या ज़रूरत है ?
अजीत जी कि बात सही है...आज भी गरीब का बच्चा ऐसे ही स्कूलों में जाता है....लेकिन यह भी सच है कि आज कल उन स्कूलों का मतलब बिलकुल बदल गया है...