Sunday, September 5, 2010

आत्म निर्भर होना बेहतर है कि नौकरी कर के नौकर बनना?

आटोरिक्शा में बैठा तो देखा कि आटोचालक तो अपना परिचित सुखदेव है जो कि पेट्रोल पंप में काम किया करता था। पूछने पर उसने बताया कि पेट्रोल पंप की नौकरी से उसे मालिक ने निकाल दिया तो उसने आटो चलाना शुरू कर दिया। प्रत्यक्ष दिखाई दे रहा था कि वह अब पहले से ज्यादा खुश है क्योंकि जितनी अधिक मेहनत करता है उसी के हिसाब से कमाई भी होती है, नौकरी में तो सिर्फ बँधी-बँधाई तनख्वाह ही मिलती थी और साथ में मालिक की घुड़की भी।

नौकरी करने का अर्थ होता है किसी का नौकर बन जाना। चाहे कोई कितना भी बड़ा अफसर क्यों ना हो, उसके ऊपर हुक्म चलाने वाला कोई ना कोई बड़ा अफसर अवश्य ही होता है। नौकरी करने वाले को भले ही बड़े से बड़ा पद मिल जाए पर वह अपना मालिक आप कभी बन ही नहीं सकता।

किन्तु विडम्बना यह है कि आज शिक्षा का उद्देश्य ही नौकरी पाना बन कर रह गया है। हर कोई चाहता है कि उसे बड़ी से बड़ी नौकरी मिले। भले ही नौकरी मिल जाने के बाद याने कि नौकर बन जाने के बाद उसे प्रतिदिन बारह से पन्द्रह घंटों तक पिसना ही क्यों ना पड़े, अपने से ऊपर वाले अफसर का घर के नौकर से भी बदतर व्यहार सहन करना पड़े, तीज-त्यौहार, जन्मदिन तथा अन्य पारिवारिक खुशियों के अवसर पर भी परिवार से दूर रहना पड़े, हुक्म होने पर आधी रात को नींद से जागकर भी दफ्तर दौड़ना पड़े।

क्यों कमाते हैं हम? अपने परिजनों की खुशी के लिए ही ना! किन्तु नौकरी कर के हम धन तो कमा सकते हैं पर क्या अपने बीबी-बच्चों को क्या वह खुशी दे सकते हैं जसके कि वे हकदार हैं? बेटे का जन्मदिन है, वह पापा का बेसब्री से इन्तजार कर रहा है पर पापा को आज ही प्रोजेक्ट पूरा कर के देना है वरना नौकरी छूट जाने का डर है। मजबूर है वह इसलिए अपने बच्चे के जन्मदिन में उपस्थित नहीं रह सकता।

आज हमें नौकर बनना पसन्द है और आत्मनिर्भरता की तो हमारे दिमाग में कल्पना तक भी  नहीं आ पाती। हमारी ऐसी सोच हमारी शिक्षा की देन है हमें। हमारी सरकार की शिक्षानीति ही यही है कि वह राष्ट्र में नौकर तैयार करे, ऐसे नौकर जिनका उद्देश्य मात्र रुपया कमाना हो चाहे उसके लिए उसे अपना स्वाभिमान भी खोना पड़े। यह शिक्षा हमें स्वार्थ सिखाती है, ऐसे लोगों का निर्माण करती है जो अपने स्वार्थ के लिए राष्ट्र को भी बेच देने के लिए तत्पर हो जाएँ।

कभी हमारे बुजुर्ग हमसे कहा करते थेः

उत्तम खेती मध्यम बान।
निषिद चाकरी भीख निदान।।

अर्थात् कृषिकार्य सर्वोत्तम कार्य है और व्यापार मध्यम, नौकरी करना निषिद्ध है क्योंकि यह निकृष्ट कार्य है और भीख माँगना सबसे बुरा कार्य है।

पर आज की शिक्षा नीति ने उपरोक्त कथन की कुछ भी कीमत नहीं रहने दिया है। क्या ऐसी शिक्षानीति जारी रहनी चाहिए या इसमे परिवर्तन की जरूरत है? क्या एक ऐसी शिक्षानीति की आवश्यकता नहीं है जो हमें आत्मनिर्भरता की ओर ले जाये, हममें राष्ट्रीय भावना पैदा करे, हमें अपनी सभ्यता, संस्कृति और गौरव का सम्मान करना सिखाए?

6 comments:

anshumala said...

ऐसा नहीं है की हर नौकरी में आत्म सम्मान गवाना पड़ता है | हम चाहे कृषि कार्य करे या कोई अन्य कारोबार शुरू करे हमें कुछ लोगों के सहयोग की जरुरत तो पड़ती ही है हम हर काम अकेले नहीं कर सकते है | यदि हर कोई अपना ही काम करेगा तो हमारी सहायक कौन बनेगा | फिर कुछ लोगों में ऐसी योग्यता नहीं होती है की वो कोई काम अपने आप शुरू कर सके या अपने बल पर चला सके पर वो किसी के दिशा निर्देश पर अच्छा काम कर सकते है और कुछ लोग किसी तरह का तनाव नहीं चाहते जो की अपने काम करने पर काफी रहता है ऐसे लोगों के लिए नौकरी ही सबसे बेहतर होता है |

Unknown said...

आप अत्यन्त उत्तम कार्य कर रहे हैं

हर चीज ज़रूरी है.............
सबका अपना महत्व है.........

शिक्षक भी नौकरी करता है तब सम्मान के साथ जीता है यदि घर में अकेला पढाये तो लोग वो सम्मान नहीं देंगे

पुलिस और प्रशासनिक अधिकारी ही नहीं न्यायाधीश भी तब सम्मान पाते हैं जब वे नौकरी कर रहे होते हैं

नौकरी को फ़ालतू समझ कर यदि पायलट प्लेन उड़ाना छोडदे, सरकारी चिकित्सक चिकित्सा करना छोडदे और सरहद पर जूझने वाले फौजी घर लौट आयें तो मुसीबत हो जायेगी गुरू !

जगत भिन्न भिन्न आयामों को जीता है इसलिए विभिन्न प्रकार की आजीविकाएं ज़रूरी हैं - उद्योग भी, व्यापर भी, कृषि भी और नौकरी भी ...

ब्लॉ.ललित शर्मा said...

बने कहे हस बबा- नौ के करी ते नौकरी

जय हिंद

प्रवीण पाण्डेय said...

प्रश्न महत्वपूर्ण है, विभिन्न राय हो सकती हैं। एक बार भ्रष्ट राज्य में व्यापार का आनन्द उठाकर देख लीजिये।

निर्मला कपिला said...

प्रवीण ने कह दिया वही मेरी राय है। शुभकामनायें

उम्मतें said...

आजीविका के लिए कोई भी यत्न सम्मान और असम्मान के प्रश्न से जूझने पर विवश क्यों है ?