Saturday, February 20, 2010

परेशान कर डाला था फायरफॉक्स के अपग्रेडेशन ने ... ब्लोग्स को खुलने ही नहीं देता था

रोज की तरह कम्प्यूटर खोलने के बाद हमने फायरफॉक्स ब्राउसर के एक टैब में अपना ब्लोगर खाता खोला ताकि देख पायें कि जिन ब्लॉग्स को हम फॉलो करते हैं उनमें से कौन कौन से अपडेट हो चुके हैं और दूसरे टैब में ब्लोगवाणी खोल दिया। इतने में में फायरफॉक्स का सन्देश मिला कि उसका नया संस्करण 3.6 हिन्दी में आ चुका है। खुश होकर हमने तत्काल नये संस्करण को डाउनलोड और इंस्टाल कर दिया।

इतना करने के बाद हम अपना पोस्ट "झलक रहा लालित्य ललित का" लिखने बैठ गये। हम पोस्ट लिख ही रहे थे कि कुछ देर बाद अचानक ही फायरफॉक्स क्रैश हो गया। अब ब्राउसर का क्रैश हो जाना कोई असामान्य बात तो है नहीं, वह तो कभी भी क्रैश हो जाता है। इसलिये हमने फिर से फायरफॉक्स को खोल लिया और अपने पोस्ट को पूरा करने में तल्लीन हो गये।

जब पोस्ट पूरा हो गया तो उसे प्रकाशित करने के लिये ब्लोगर में गये। पर यह क्या? ब्लोगर तो खुल ही नहीं रहा। गूगल टाक भी बुझा हुआ पड़ा था। हमने सोचा कि शायद कुछ समय के लिये गूगल डाउन होगा, थोड़ी देर में वापस आ जायेगा। दूसरों के पोस्ट देखने शुरू किये पर जिनके ब्लोग ब्लोगर में हैं वे भी नहीं खुले। हम इन्तजार करते रहे गूगल बाबा के वापस आने का। जब एक घंटे तक गूगल बाबा वापस नहीं आये तो हमारी चिंता बढ़ी। ललित शर्मा जी को मोबाइल लगाया तो पता चला कि उनके यहाँ तो गूगल महोदय बिल्कुल सही काम कर रहे हैं।

अब हमें विश्वास हो गया कि हमारे कम्प्यूटर में ही कुछ न कुछ बीमारी आ गई है। कम्प्यूटर में प्रायः कोई बीमारी तभी आती है जब कुछ नया चीज इंस्टाल किया जाता है। हमने तो फायरफॉक्स का नया वर्सन इंस्टाल किया था इसलिये हमने अनुमान लगाया कि जरूर बीमारी भी इसी के कारण से ही है। अब हमने सर्च करके बीमारी के विषय में पता लगाना चाहा तो गूगल सर्च भी नदारद। गूगल सर्च इंजिन हमारा प्रिय सर्च इंजिन है पर क्या कर सकते थे? झख मार कर याहू सर्च में गये। आधा पौन घंटा माथा फोड़ने के बाद आखिर पता लगा ही लिया कि बीमारी का कारण क्या है। फिर बीमारी को दूर करने के बाद हमने अपना पोस्ट डाला।

अब और अधिक आपका माथा नहीं चाटने वाले हम बीमारी के बारे में बता कर। हम तो बस इतना ही बताना चाहते हैं कि यदि कभी आपके साथ भी ऐसा हो जाये तो आपको क्या करना है। घबराइये नहीं बहुत सरल है इस बीमारी को दूर करना। फायरफॉक्स को खोलकर उसके औजार मेनू में विकल्प को क्लिक करें।


अब नये खुलने वाले विंडो में संजाल को क्लिक करके सेटिंग को क्लिक करे।

अब "इस संजाल के लिये प्रॉक्सी सेटिंग स्वतः जाँचे" को चेक कर दीजिये।

अब सभी फायरफॉक्स ब्राऊसर्स को बंद दीजिये। एक दो मिनट बाद फायरफॉक्स फिर खोलिये और आपको पता चलेगा कि आपकी समस्या समाप्त हो चुकी है। यदि इतने पर भी समस्या न सुलझे तो अपने कम्प्यूटर को बंद कर के एक बार फिर से चालू करें, समस्या 100% सुलझ गई रहेगी।

झलक रहा लालित्य ललित का

मैं बात कर रहा हूँ ललित शर्मा जी के लालित्य की। कोई और ललित नहीं बल्कि हमारे ही ब्लोगर मित्र ललित शर्मा जी की! उनके माता पिता ने न जाने क्या सोचकर उनका नाम ललित रखा रहा होगा किन्तु वे अपने माता पिता का पूर्ण सम्मान करते हुए लालित्यपूर्ण काव्य रचनाएँ कर के अपने नाम को सार्थक कर रहे हैं।

कई बार मुझे लगता था कि रस, छंद और अलंकार अब दम तोड़ रहे हैं। अब 'नवकंज लोचन, कंजमुख, करकंज, पदकंजारुणं' जैसी अनुप्रास अलंकार से युक्त पंक्तियाँ शायद ही लिखी जायेंगी। किन्तु ललित शर्मा जी की संयोग श्रृंगार रस और अनुप्रास अलंकार से अलंकृत निम्न रचना को पढ़ कर समझ में आया कि मेरी यह सोच सरासर गलत हैः

सजना सम्मुख सजकर सजनी
खेल रही है होली..

कंचनकाया कनक-कामिनी,
वह गाँव की छोरी
चन्द्रमुखी चंदा चकोर
चंचल अल्हड-सी गोरी.
ठुमक ठुमक कर ठिठक-ठिठक कर
करती मस्त ठिठोली.
सजना सम्मुख सजकर सजनी
खेल रही है होली..

छन-छन, छनक-छनन छन
पायल मृदुल बजाती
सन-सन सनक सनन सन
यौवन-घट को भी छलकाती
रंग रंगीले रसिया के छल से
भीगी नव-चोली
सजना सम्मुख सजकर सजनी
खेल रही है होली..

पीताम्बर ने प्रीत-पय की
भर करके पिचकारी
मद-मदन मतंग मीत के
तन पर ऐसी मारी
उर उमंग उतंग क्षितिज पर
लग गई जैसे गोली
सजना सम्मुख सजकर सजनी
खेल रही है होली..

गज गामिनी संग गजरा के
गुंजित सारा गाँव
डगर-डगर पर डग-मग
डग-मग करते उसके पांव
सहज- सरस सुर के संग
सजना खाये भंग की गोली
सजना सम्मुख सजकर सजनी
खेल रही है होली..
शीर्षक सहित रचना की प्रत्येक पंक्ति में अनुप्रास का इतना सुन्दर प्रयोग ललित जी के लालित्य का ही तो प्रदर्शित करता है!

अलंकारों की बात चली है तो आइये थोड़ा इस विषय में जान भी लें। अलंकार का अर्थ होता है आभूषण या गहना। जिस प्रकार से नारी का सौन्दर्य में स्वर्ण, रत्न आदि से निर्मित अलंकारों से वृद्धि हो जाती है उसी प्रकार से साहित्य के के सौन्दर्यवर्द्धन के लिये अलंकारों का प्रयोग किया जाता है।

अलंकार के निम्न तीन प्रकार होते हैं:

शब्दालंकारः जहाँ शब्द चातुर्य के द्वारा काव्य का सौन्दर्यवर्द्ध किया जाता है वहाँ शब्दालंकार होता है। अनुप्रास, यमक और श्लेष अलंकार शब्दालंकार के अन्तर्गत् आते हैं।

अर्थालंकारः जहाँ अर्थ में चमत्कार के द्वारा काव्य का सौन्दर्यवर्द्ध किया जाता है वहाँ अर्थालंकार होता है। उपमा, रूपक, भ्रान्तिमान आदि अलंकार अर्थालंकार के अन्तर्गत् आते हैं।

उभयालंकारः जहाँ अर्थ में चमत्कार के द्वारा काव्य का सौन्दर्यवर्द्ध किया जाता है वहाँ अर्थालंकार होता है।

अलंकारों के कुछ उदाहरणः

सिसिर में ससि को सरूप वाले सविताऊ,
घाम हू में चाँदनी की दुति दमकति है।
(अनुप्रास वर्णों की आवृति)

दिनान्त था थे दिननाथ डूबते सधेनु आते गृह ग्वालबाल थे
(अनुप्रास एक ही वर्ग के वर्णों के साथ साथ अन्य वर्णों की आवृति)

घोर मन्दर के अन्दर रहनवारी घोर मन्दर के अन्दर रहाती हैं
(यमक एक ही शब्द के अलग अलग बार प्रयोग में अलग अलग अर्थ)

पानी गये ना ऊबरे मोती मानुस चून
(श्लेष एक शब्द के एकाधिक अर्थ)

कुन्द इन्दु सम देह, उमा रमन करुना अपन
(उपमा)

विरह आग तन में लगी जरन लगे सब गात।
नारी छूअत बैद के परे फफोला हाथ॥
(अतिशयोक्ति )

Friday, February 19, 2010

प्रियतम तो परदेस बसे हैं, नयन नीर बरसाये रे

नीर अर्थात् सलिल, नीरद, नीरज, जल या पानी! यह नीर कभी नयन से बरसता है तो कभी मेघ से बरसता है। नयन से नीर जहाँ गम में बरसता है वहीं खुशी में भी बरसता है। प्रियतम के विरह में प्रियतमा कहने लगती हैः

प्रियतम तो परदेस बसे हैं, नयन नीर बरसाये रे

तो दूसरी ओर तुलसीदास जी कहते हैं:

नयन नीर पुलकित अति गाता

यह नीर जिस किसी के संसर्ग में आता है उसे निर्मल कर देता है। इसीलिये कबीर कहते हैं:

कबिरा मन निर्मल भया जैसे गंगा नीर

रहीम कहते हैं कि इस नीर याने कि पानी के बिना उबरना मुश्किल हैः

पानी गये न ऊबरे मोती मानुस चून

विचित्र है पानी की महिमा! कभी पानी पिलाना पुण्य का काम होता था पर आज पानी बेचना कमाई का काम है। आज के जमाने में आगे बढ़ना है तो दूसरों का पानी उतारते रहिये।

Thursday, February 18, 2010

मोहे रहि रहि मदन सतावै, पिया बिना नींद नहि आवै

नींद नहि आवै पिया बिना नींद नहि आवै।
मोहे रहि रहि मदन सतावै पिया बिना नींद नहि आवै॥

सखि लागत मास असाढ़ा, मोरे प्रान परे अति गाढ़ा,
अरे वो तो बादर गरज सुनावै, परदेसी पिया नहि आवै।
पिया बिना नींद नहि आवै॥

सखि सावन मास सुहाना, सब सखियाँ हिंडोला ताना,
अरे तुम झूलव संगी सहेली, मैं तो पिया बिना फिरत अकेली।
पिया बिना नींद नहि आवै॥

सखि भादों गहन गम्भीरा, मोरे नैन बहे जल-नीरा,
अरे मैं तो डूबत हौं मँझधारे, मोहे पिया बिना कौन उबारे।
पिया बिना नींद नहि आवै॥

सखि क्वार मदन तन दूना, मोरे पिया बिना मन्दिर सूना,
अरे मैं तो का से कहौं दुख रोई, मैं तो पिया बिना सेज ना सोई।
पिया बिना नींद नहि आवै॥

सखि कातिक मास देवारी, सब सखिया अटारी बारी,
अरे तुम पहिरौ कुसुम रंग सारी, मैं तो पिया बिना फिरत उघारी।
पिया बिना नींद नहि आवै॥

सखि अगहन अगम अंदेसू, मैं तो लिख-लिख भेजौं संदेसू,
अरे मैं तो नित उठ सुरुज मनावौं, परदेसी बलम को बुलावौं।
पिया बिना नींद नहि आवै॥

सखि पूस जाड़ अधिकाई, मोहे पिया बिना सेज ना भाई,
अरे मोरे तन-मन-जोबन छीना, परदेसी गवन नहि कीना।
पिया बिना नींद नहि आवै॥

सखि माघ आम बौराये, चहुँ ओर बसंत बिखराये,
अरे वो तो कोयल कूक सुनावै, मोरे पापी पिया नहि आवै।
पिया बिना नींद नहि आवै॥

सखि फागुन मस्त महीना, सब सखियन मंगल कीन्हा,
अरे तुम खेलव रंग गुलालै, मोहे पिया बिना कौन दुलारै।
पिया बिना नींद नहि आवै॥

आप इसे मेरी स्वरचित रचना मत समझ लीजियेगा क्योंकि यह किसी अन्य की रचना है जिनका नाम तक मुझे पता नहीं है। वास्तव में यह ताल धमाल के साथ गाया जाने वाला फागगीत है जिसे बारहमासी फाग के नाम से जाना जाता है।

चलते-चलते

जमुना गहरी कइसे भरौं जमुना गहरी

ठाढ़े भरौं राजा राम देखत हैं
निहुरे भरौं भीजै चुनरी
जमुना गहरी ...

धीरे चलौं घर बालक रोवत है
जल्दी चलौं छलकै गगरी
जमुना गहरी ...

Wednesday, February 17, 2010

ब्लोगवाणी लिंक क्यों काम नहीं कर रहा? ... क्या आप कुछ सहायता कर सकते हैं?

पहले मैं अपने "धान के देश में", "संक्षिप्त वाल्मीकि रामायण" आदि ब्लॉग्स में प्रविष्टि करने के बाद ज्योंही ब्लोगवाणी लोगो को क्लिक करता था तो मेरा पोस्ट ब्लोगवाणी में तत्काल दिखाई देने लगता था। किन्तु कुछ दिनों से मैं अनुभव कर रहा हूँ कि अपने पोस्ट में ब्लोगवाणी लिंक को क्लिक करने के बाद वह ब्लोगवाणी में तुरन्त नहीं पहुँचता बल्कि ५ से लेकर १५ मिनट बाद ही वहाँ पर दिखाई देता है।

प्रत्येक ब्लोगर के जैसे ही मैं भी चाहता हूँ कि मेरा पोस्ट प्रकाशित होते ही वह ब्लोगवाणी में दिखाई देने लगे। मैंने ब्लोगवाणी के पुराने कोड को मिटा कर फिर से नया कोड लगा कर भी देख लिया किन्तु समस्या हल नहीं हुई।

क्या आप इस समस्या को सुलझाने में मेरी मदद कर सकते हैं?

Tuesday, February 16, 2010

आज नहीं दे पायेंगे आपका साथ ... परघानी है हमें प्यारी भांजी की बारात

आज हम न आपके पोस्ट पढ़ पायेंगे और न ही टिप्पणी कर पायेंगे। लाडली भांजी के विवाहोत्सव की व्यस्तता हमें इजाजत ही नहीं देगी इन सब के लिये। सोचा था कि आज कम्प्यूटर खोलेंगे ही नहीं पर याद आया कि आप लोगों को तो अब तक निमन्त्रण भेजा ही नहीं है हमने। इसलिये इस पोस्ट के माध्यम से आप लोगों को निमन्त्रण दे ही देते हैं। दुल्हा-दुल्हन को आप लोगों का आशीर्वाद से अभिभूत करने के लिये!

Monday, February 15, 2010

यह हिन्दी की समृद्धि है या हिन्दी की ऐसी तैसी?

हिन्दी में सबसे पहला निजी चैनल जीटीवी आया और आते ही उसने हिन्दी में अंग्रेजी को घुसेड़ कर खिचड़ी प्रसारण शुरू कर दिया। चूँकि वह हिन्दी का पहला चैनल था इसलिये उसे लोकप्रिय तो होना ही था उसे किन्तु शायद बाद में आने वाले निजी चैनलों ने उसके खिचड़ी भाषा को ही उसकी लोकप्रियता का कारण समझ लिया और उसी ढर्रे पर चल कर हिन्दी की और भी चिन्दी करने लगे। यह हिन्दी की समृद्धि है या हिन्दी की ऐसी तैसी?

अब अन्तरजाल में ब्लोग्स का साम्राज्य है। हिन्दी ब्लोग्स की संख्या में निरन्तर वृद्धि हो रही है और उसी अनुपात में हिज्जों तथा व्याकरण की गलतियाँ भी अधिक से अधिक देखने को मिल रही हैं। यद्यपि यह क्षम्य नहीं है किन्तु, यह सोचकर कि अनेक अहिन्दीभाषी भी हिन्दी ब्लोग लिख रहे हैं और उनसे ऐसा होना स्वाभाविक है, एक बार इसे अनदेखा किया भी जा सकता है। पर हिन्दी ब्लोग्स में भी जबरन अंग्रेजी घुसेड़ा जाना और ऐसे शब्दों का प्रयोग करना जिसका अर्थ न तो नलंदा विशाल शब्दसागर जैसे हिन्दी से हिन्दी शब्दकोश में खोजने पर नहीं मिलता और यह मानकर कि शायद यह अंग्रेजी शब्द हो आक्फोर्ड, भार्गव आदि अंग्रेजी से हिन्दी शब्दकोशों में खोजने से भी नहीं मिलता क्या है? यह हिन्दी की समृद्धि है या हिन्दी की ऐसी तैसी?

Sunday, February 14, 2010

शकुन्तला का प्रेमपत्र दुष्यन्त के नाम - वेलेंटाइन डे स्पेशल

मेरे अनुरागी दुष्यन्त!

पिछले वर्ष वेलेंटाइन डे के दिन तुमने मुझे यह लाल गुलाब दिया था तभी से आँखें बंद करती हूँ तो तुम सामने नजर आते हो। आँखें खोलती हूँ तब भी तुम मेरे सामने रहते हो। तुम्हारा मुखड़ा, तुम्हारी आँखें, तुम्हारी मुस्कुराहट मैं एक पल भी नहीं भूल पाती। रात में सब सो जाते हैं लेकिन मुझे नींद नहीं आती। छटपटाते रहती हूँ। तकिये में मुँह छुपा लेती हूँ। मुझे लगता है तकिया ही तुम्हारा विशाल सीना है जहाँ मैं सदैव के लिये समा गई हूँ।

आज हमारे मिलन को एक वर्ष पूर्ण हो चुके हैं। इस दौरान हम दोनों कितने ही बार मुँह में रूमाल बाँध कर लांग ड्राइव्ह में गये हैं और किसी ने भी हमें पहचाना तक नहीं। किन्तु पिछले कई दिनों से तुमने मुझे मेरे मोबाइल पर कॉल भी नहीं किया है। आज फिर से वेलेंटाइन डे आ गया है और मैं तुम्हारी प्रतीक्षा कर रही हूँ किन्तु तुम्हारा कहीं भी पता नहीं लग रहा है। मुझे भय लग रहा है कहीं आज तुम किसी और को लाल गुलाब देने के लिये तो नहीं चले गये हो। कहीं तुमने महाभारत कालीन दुष्यन्त की तरह से मुझ शकुन्तला को भुला दिया तो मेरे गर्भ में पलते भरत का क्या होगा। क्या मेरी माता मेनका मुझे कश्यप ऋषि के पास आज भी छोड़ेगी?

जल्दी ही आ जाओ। आने के पहले मोबाइल कर देना ताकि मैं अपने मुँह पर रूमाल बाँधकर तुम्हारे साथ हमेशा हमेशा के लिये चले जाने के लिये तैयार रहूँ।

कहीं ऐसा न हो जाये किः

नजर को जगंल नही अब मकान मिलते हैं
अब हवा मे यहां बि्जली के तार हिलते हैं
प्यार मे पागल यहां आ गयी है शकुंतला
सड़क पर चलते हुए उसके पाँव छिलते हैं

(उपरोक्त पंक्तियाँ ललित शर्मा के सौजन्य से)

सिर्फ तुम्हारी
शकुन्तला

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"संक्षिप्त वाल्मीकि रामायण" में आज पढ़ें

लंका में सीता की खोज - सुन्दरकाण्ड (3)