Saturday, March 13, 2010

पानी पीना छान के चेला बनाना जान के

पुराने समय में गुरु लोग चेला बनाया करते थे किन्तु आज के युग में चेले लोग ही गुरु बनाते हैं। उन दिनों गुरु लोग चेला बनाते थे ज्ञान देने के लिये पर आज के युग में चेले लोग गुरु बनाते हैं मौज लेने के लिये। जब भी मौज लेने का मन करे झट से किसी को गुरु बना लो और उसको हेडमास्टर या बड़े गुरूजी जैसा बताते हुए एक पोस्ट लिख दो और उसके बाद तो मौज ही मौज है। पोस्ट पढ़ने वाला पोस्ट पढ़कर मौज लेता है और पोस्ट लिखने वाला टिप्पणियों को पढ़ कर। इस प्रकार के पोस्ट लिखने का मकसद ही यह बताना होता है कि गुरु गुड़ रह गये और चेला शक्कर हो गया।

पहले के शिष्य कहा करते थेः

गुरु गोविन्द दोऊ खड़े का के लागूँ पाय।
बलिहारी गुरु आपकी गोविन्द दियो बताय॥

पर आज के गुरु कहते हैं

पोस्ट लिख-लिख मैं थका कोउ ना पाठक आय।
चेले की बलिहारि है टिप्पणी दियो कराय॥

आप के पास कितना ही ज्ञान क्यों न हो, बगैर चेलों के आप कुछ नहीं कर सकते, आखिर अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता ना! पहले कहा जाता था कि "गुरु बिना ज्ञान नहीं होता" पर आज कहा जाता है कि "चेलो के बिना काम नहीं होता"। ये आपके चेले ही हैं जो आपको अपने मुँह मियाँ मिट्ठू बना कर रखते हैं। जहाँ आपके चेले आपको ऊपर चढ़ाते हैं वहीं वे आपके विरोधी की टाँग खींच कर उसे नीचे भी गिराते हैं। यही कारण है कि आज के दौर में अधिक से अधिक चेलों का होना बहुत ही जरूरी हो गया है। पर अधिक से अधिक चेलों को रिझाना कि वे आपको गुरु बनाले वास्तव में टेढ़ी खीर है।

चेलों का महत्व आप इसी से समझ सकते हैं कि यदि आप ब्लोगर हैं तो आपके जितने भी चेले हैं वो सब आपके पोस्ट में टिप्पणी करने अवश्य ही आयेंगे और आपका पोस्ट हिट हो जायेगा। ज्यादा क्या कहें बस इतने से समझ लीजिये कि ब्लोगिंग में चेलों का उतना ही महत्व है जितना नेतागिरी में चमचों का।

यद्यपि आप किसी को चेला नहीं बना सकते क्योंकि आज के जमाने में चेले लोग ही मनमाफिक गुरु बनाने का काम करते हैं तथापि यदि कोई आपको गुरु बनाता है तो इतना ध्यान अवश्य रखिये कि "पानी पीना छान के चेला बनाना जान के", क्योंकि ये चेले कभी भी आपकी लुटिया भी डुबो सकते हैं।

Friday, March 12, 2010

मैं चला मैं चला ....

सम्भालो अपने इस ब्लोगिस्तान को। अब मेरी यहाँ कुछ भी जरूरत नहीं है। मेरे कुछ कह देने से बहुत से लोगों का दिल दुख जाता है यहाँ पर। तो फिर मैं यहाँ रहूँ ही क्यों? और फिर यहाँ के अन्य लोगों के कारण से मेरी भी भावनाओं को तो ठेस पहुँचती है। अच्छा तो यही होगा कि न मेरे कारण दूसरों का दिल दुखे और न ही उनके कारण मैं स्वयं को व्यथित करूँ।

इसलिये ...

मैं चला मैं चला ...

पर मैं आखिर बता के क्यों जाना चाहता हूँ? बगैर बताये चुपचाप भी तो जा सकता हूँ। ये मेरा बता के जाना क्या सिद्ध करता है?

जब किसी अपने से लड़ाई हो जाती है तो कई बार लोग स्वयं अपना गाल पीट लेते हैं किन्तु किसी पराये से लड़ाई होने पर कभी कोई खुद को नहीं पीटता। कारण स्पष्ट है कि स्वयं को चोट पहुँचाने वाला जानता है कि उसे चोट पहुँचने से सामने वाले को दुःख होगा।

इसी प्रकार से जब कोई इस ब्लोग जगत से जाने की बात करता है तो वह भी जानता है कि उसके जाने से अन्य ब्लोगर्स को दुःख अवश्य ही होगा, यदि वह अन्य ब्लोगर्स को अपना नहीं समझता तो बगैर सूचना के चुपचाप चला जाता।

यह सब बताकर मैं सिर्फ यह कहना चाहता हूँ कि इस ब्लोग जगत में सभी अपने हैं और यह हमारा परिवार है। अब जहाँ चार बर्तन होते हैं तो कभी न कभी टकरा भी जाते हैं।

जब हम सभी एक दूसरे के हैं तो फिर आइये संकल्प लें कि एक दूसरे की भावनाओं को समझेंगे और प्रेम की गंगा बहायेंगे इस ब्लोग जगत में!

अब तो आप समझ ही गये होंगे कि ...

मैं रुका मैं रुका ...

दम है किसी में तो यहाँ से निकाल के दिखाये मुझे।

तो पोस्ट का सार यह कि बुड्ढा पैग मारकर चढ़ गया था टंकी पर और नशा उतरने पर बगैर कूदे सीढ़ी से वापस उतर आया।

Thursday, March 11, 2010

व्यथा बड़े गुरूजी की

चेलों ने परेशान कर रखा है बड़े गुरूजी को। सारे चेले उनके ऊपर "मान ना मान मैं तेरा मेहमान" बन कर पिल पड़े हैं। रोज ऐसा पोस्ट लिख देते हैं जिससे साबित हो जाये कि बड़े गुरूजी की सोच "अधजल गगरी छलकत जाय" है, बड़े गुरूजी "आँख के अन्धे और नाम के नैनसुख" हैं। बड़े गुरूजी के साथ साथ उनके ब्लोग को भी नहीं छोड़ते, उनके ब्लोग को चेलों ने "ऊँची दुकान फीका पकवान" बना कर रख दिया है। बेचारा बड़े गुरूजी का ब्लोग क्या जाने कि "गेहूँ के साथ घुन भी पिसता है"। चेलों के पोस्ट ऐसे होते हैं जैसे कि "हींग लगे ना फिटकिरी और रंग आये चोखा!" चेलों के इन पोस्ट को टिप्पणियाँ भी खूब मिल जाती हैं और बड़े गुरूजी की धुलाई भी हो जाती है। इसी को कहते हैं "आम के आम और गुठलियों के दाम!"

बड़े गुरूजी यदि कुछ कहते हैं तो उसके कथन को "थोथा चना बाजे घना" बता देते हैं। ये "उल्टा चोर कोतवाल को डाँटे" नहीं है तो क्या है भला? बड़े गुरूजी ने चेलों को शिक्षा देने की कोशिश क्या कर दी कि चेलों के लिये "बिल्ली के भागों छींका टूटा" हो गया। "रानी रूठेगी तो अपना सुहाग लेगी" और बड़े गुरूजी रूठेंगे तो अपना पोस्ट वापस लेंगे।

बड़े गुरूजी को तो यह भी पता नहीं है कि "अकल बड़ी या भैंस?"। सही बात तो यह है कि "अब आया है ऊँट पहाड़ के नीचे"। उनका हाल तो "खिसियानी बिल्ली खम्भा नोचे" जैसा होकर रह गया है और पछता रहे हैं इन्हें चेला बनाकर। पर "अब पछताये होत क्या जब चिड़िया चुग गई खेत!"

अब बड़े गुरूजी इस जुगाड़ में लगे हैं कि चेले मान जायें, पर उनकी कोशिश "का वर्षा जब कृषी सुखाने" बनकर रह जाती है। बड़े गुरूजी तो अब बस इतना ही चाह रहे हैं कि कैसे भी "अन्त भला सो भला" हो जाये।

Wednesday, March 10, 2010

डॉक्टर हैं पर क्यों दे अपने ब्लोग में डॉक्टरी जानकारी? ... बेवकूफ समझ रखा है हमें?

"यार, ठीक है कि तुम अपने ब्लोग में अपनी कविताएँ लिखते हो। पर तुम चिकित्सक भी हो। क्यों नहीं चिकित्सा सम्बन्धी जानकारी वाला अपना एक और ब्लोग बना लेते?"

"तुम तो जानते हो यार, कितना बिजी रहता हूँ मैं। पेशेन्ट्स से हमेशा घिरा रहता हूँ। कई बार तो खाना-पीना, यहाँ तक कि नींद-चैन भी, हराम हो जाती है अपने इस पेशे के कारण। ऐसे में बड़ी मुश्किल से समय निकाल कर कविता लिखता हूँ और अपने पोस्ट में प्रकाशित भी करता हूँ। अब समय कहाँ है मेरे पास दूसरा ब्लोग बनाने के लिये। और मानलो मैं अपना दूसरा ब्लोग बनाकर उसमें बताऊँ कि इथिकल क्या होता है, जेनरिक क्या होता है तो भला उसे कौन समझेगा?"

"अरे भाई, यदि तुम अच्छे से समझाओगे तो कोई क्यों नहीं समझेगा?"

"तुम तो बस बाल की खाल निकालने बैठ जाते हो। अरे भाई, अगर मैं लोगों को बता दूँ कि मैं उन्हें तीन-तीन, चार-चार सौ रुपये कीमत वाली जो इथिकल दवाइयाँ प्रेस्क्राइब करता हूँ उसके बदले में वह यदि मात्र दो-तीन रुपये वाली जेनरिक दवा खा ले तो भी ठीक हो जायेगा तो मेरे रेपुटेशन का क्या होगा? इथिकल कंपनी के जो एमआर मेरे पास आते हैं और हर साल मुझे नई कार दे जाते हैं वो क्या ऐसे में मेरे पास आयेंगे? ये जो मैं हर साल कार, टीव्ही, फ्रिज बदल लेता हूँ ये सब उन्हीं की मेहरबानी से तो है। अब मैं अपने ब्लोग में इथिकल के बदले जेनरिक जैसी सस्ती दवाओं से इलाज के बारे में लिखने लगूँगा तो वो सारी इथिकल कंपनियाँ और उनके एमआर खुश होंगे क्या?

"और यदि अपने ब्लोग में लोगों को बताऊँ कि एक्झर्शन के कारण हल्का बुखार है तो एक पैरॉसीटामोल की गोली खा लो, साधारण सा दर्द है तो निमुसुलाइड गोली खा लो तो भला लोग मेरे पास इलाज कराने क्यों आने लगे? वो लोग मेरे पास नहीं आयेंगे तो मैं खून, पेशाब आदि जाँच करवाने के लिये पैथॉलाजिकल लैब किन्हें भेजूँगा? उन सारे लैब से मिलने वाले मेरे कमीशन का क्या होगा?

"तुम तो भैया, हमारा धंधा ही चौपट करवाने पर तुले हो पर हम इतने बेवकूफ नहीं हैं जो तुम्हारा कहना मान लें। इतना खर्च करके डॉक्टर बने हैं तो पैसा पीटने के लिये बने हैं, ब्लोग लिखकर फोकट में जानकारी देने के लिये थोड़े ही बने हैं। इसलिये समझ लो कि हम अपने ब्लोग में सिर्फ कविताएँ ही लिखेंगे।"

Tuesday, March 9, 2010

ये बुड्ढा तो सठियाने की सीमा पार कर गया है

सठियाने की भी एक सीमा होती है पर ये बुड्ढा तो सठियाने की सीमा पार कर गया है। कब्र में पाँव लटकाये बैठा है पर ब्लोगिंग का शौक नहीं गया। है तो पिद्दी जैसा पर अपने आपको बहुत बड़ा ब्लोगर बताता है। अकल तो ऐसी है इसकी कि कहे खेत की और सुने खलिहान की पर कमली ओढ़कर खुद को फकीर समझता है"कहीं की ईँट कहीं का रोड़ा भानमती ने कुनबा जोड़ा" जैसे पोस्ट लिखकर तुर्रम खाँ बन जाता है। पर क्या कभी कागज की नाव चली है? इसे पढ़कर तो लोग सिर्फ यही कहते हैं कि क्या पिद्दी और क्या पिद्दी का शोरबा।

किस्मत का धनी है इसलिये अब तक टिका हुआ है यहाँ। "कबीर दास की उलटी बानी, बरसे कंबल भीगे पानी" जैसी उल्टी-उल्टी बातें करता है। किसी के बारे में कुछ भी लिख देता है, इसे पता नहीं है कि कमान से निकला तीर और मुँह से निकली बात वापस नहीं आती। जब गरीबी में आटा गीला होगा तब पता चलेगा बच्चू को! इस पर गुस्सा तो बहुत आता है पर क्या करें, ककड़ी के चोर को फॉंसी तो दी नहीं जाती। पर देख लेना एक दिन अपने किये की सजा जरूर पायेगा, कहते हैं ना कि कभी नाव गाड़ी पर तो कभी गाड़ी नाव पर! भला गधा कभी घोड़ा बना है? देर सबेर अपने किये को जरूर भुगतेगा, भगवान के घर देर है अन्धेर नहीं है!

पर क्या करें भाई, जब तक टपकेगा नहीं तब तक तो इसे झेलना ही पड़ेगा।

Monday, March 8, 2010

तरबूज तो मीठे ही होते हैं ... यदि नहीं होते तो सैक्रीन का इंजेक्शन लगाकर उन्हें मीठा बना दिया जाता है

वाह बन्धु! आप जानकारी दे रहे हैं महानदी के तरबूजों के बारे में कि वे बहुत मीठे होते हैं। अरे भाई! तरबूज चाहे महानदी के हों या और किसी नदी के, वे तो मीठे ही होते हैं, यदि नहीं भी होते तो सैक्रीन का इंजेक्शन लगाकर उन्हें मीठा बना दिया जाता है।

किन्तु बन्धु! आज हमें बहुत अधिक निराशा हुई है आपके पोस्ट को पढ़कर। आप हमारे छोटे भाई हैं और हमें आप पर गर्व भी बहुत है क्योंकि आपने आज तक बहुत सारी अच्छी-अच्छी प्रविष्टियाँ लिखी हैं। पर आज हमें लग रहा है कि हमारा गर्व चूर-चूर हो गया है। हिन्दी तथा संस्कृत सहित और भी बहुत सी भाषाओं पर अधिकार एवं ज्ञान का विशद भण्डार रखने वाले अपने छोटे भाई से हमें इतनी तुच्छ जानकारी वाले पोस्ट की किंचित मात्र भी अपेक्षा नहीं थी।

भला ये भी कोई जानकारी हुई कि महानदी के किनारे तरबूज की खेती हो रही है। अरे भाई तरबूज की खेती तो प्रायः देश भर की नदियों के रेत में होती है। महानदी के विषय में बताना ही था तो यह बताया होता कि इस पवित्र सरिता को छत्तीसगढ़ में पुण्य सलिला गंगा की भाँति ही कलुषहारिणी माना जाता है। आप यह जानकारी दे सकते थे कि जिस प्रकार से प्रयाग में पुण्य-सलिला गंगा के साथ यमुना और सरस्वती का त्रिवेणी संगम होता है उसी प्रकार छत्तीसगढ़ के राजिम में पवित्र महानदी के साथ पैरी और सोढ़ुर नदियों का त्रिवेणी संगम होता है। आप अच्छी तरह से जानते हैं कि महानदी का प्राचीन नाम चित्रोत्पला है, प्राचीनकाल में इसे महानन्दा एवं नीलोत्पला के नाम से भी जाता था। आपने ही हमें बताया था कि महानदी का उल्लेख मत्स्य पुराण, ब्रह्मपुराण तथा महाभारत जैसे प्राचीन ग्रंथो में भी पाया जाता है। तो क्या आपने अपने पोस्ट में इतनी अच्छी जानकारी देना उचित नहीं समझा?

आप बता सकते थे कि महानदी छत्तीसगढ़ तथा उड़ीसा अंचल की सर्वाधिक लंबी नदी है। इसका उद्गम छत्तीसगढ़ के धमतरी जिले में स्थित सिहावा नामक पर्वत श्रेणी से हुआ है। महानदी का प्रवाह दक्षिण दिशा से उत्तर दिशा की ओर है। सिहावा से निकलकर महानदी बंगाल की खाड़ी तक निरन्तर लगभग 855 कि.मी. प्रवाहित होती है और अन्ततः बंगाल की खाड़ी में विलीन हो जाती है। महानदी के तट पर धमतरी, कांकेर, चारामा, राजिम, चम्पारण, आरंग, सिरपुर, शिवरी नारायण आदि छत्तीसगढ़ में प्रमुख स्थान हैं और सम्बलपुर, कटक आदि उड़ीसा के। पैरी, सोंढुर, शिवनाथ, हसदेव, अरपा, जोंक, तेल आदि महानदी की प्रमुख सहायक नदियाँ हैं। कटक नगर से लगभग सात मील पहले महानदी का डेल्टा शुरू हो जाता है जहाँ से यह अनेक धाराओं में विभक्त हो जाती है। रुद्री, गंगरेल और हीराकुंड महानदी पर बने प्रमुख बाँध हैं।

उपरोक्त सभी बातें जानते हुए भी आपने अपने पोस्ट में नहीं बताया इससे हमें बहुत ही दुःख हुआ है।

हम आप पर अपना अधिकार समझते हैं इसलिये ये सब कह दिया हमने; और हमें विश्वास है कि भविष्य में आप अच्छे पोस्ट लिख कर हमारे गर्व को बनाये रखेंगे।

Sunday, March 7, 2010

अरे भाई हम हिन्दी ब्लोगर हैं!

जितने भी पत्र-पत्रिकाओं के संपादकों ने हमारी रचनाओं को रद्दी की टोकरी में फेंक दिया था उन्हें हम बता देना चाहते हैं कि हमें भी अब उनकी कोई परवाह नहीं है। अब हम उन्हें अपनी कोई भी रचना छापने के लिये नहीं भेजने वाले। बड़े आये थे कहने वाले कि हमारी रचनाएँ कूड़ा-कर्कट हैं, उनका कोई स्तर नहीं है। अब धरे रहो अपनी पत्र-पत्रिकाओं को। नहीं छपना अब हमें तुम्हारी पत्र-पत्रिकाओं में। अब हम हिन्दी ब्लोगर बन गये हैं। किसी में दम है तो रोक ले हमें अपने ब्लोग में छपने से।

क्या कहा? तुम्हारे ब्लोग को पढ़ेगा कौन? अरे तुम लोगों ने क्या सिर्फ हमारी रचनाओं को ही रद्दी की टोकरी में फेंका है? तुमने तो हमारे कई मित्रों की रचनाओं का भी तो यही हाल किया है। तो तुम्हें जान लेना चाहिये कि वे सब भी ब्लोगर बन गये हैं। अब हम सब एक-दूसरे के ब्लोग को पढ़ते हैं और टिपियाते भी हैं। हम तो अभी और भी बहुत से लोगों को ब्लोगर बनाने में जुटे हुए हैं, वो सब भी पढ़ेंगे हमारी रचनाओं को।

येल्लो! अब कहने लग गये कि हमारी पत्र-पत्रिकाओं को तो आम लोग पढ़ते हैं तुम्हारे ब्लोग को नहीं। तो जान लो कि तुम ऐसा कह कर हमें जरा भी हतोत्साहित नहीं कर सकते। भाड़ में जायें आम लोग, न तो वे पहले हमें पढ़ते थे और न अब पढ़ते हैं। दरअसल उनके पास इतनी अकल ही कहाँ है कि हम जो लिख रहे हैं उसे समझ पायें। हमारे लिखे को तो सिर्फ हमारे ब्लोगर मित्र ही समझ सकते हैं और वे ही हमें पढ़ने के काबिल हैं। आखिर हम सब हिन्दी ब्लोगर हैं भाई!