Saturday, April 24, 2010

क्या आप चाहेंगे कि आपके बच्चों के साथ गरीब बच्चे भी एक ही स्कूल में पढ़ें?

आज लाखों रुपये सालाना फीस वसूलने वाली अनेक शिक्षण संस्थाएँ हैं और हम बड़े ही गर्व के साथ अपने बच्चों को उन्हीं संस्थाओं में भर्ती करवाते हैं। कहीं हमारे इस कार्य के पीछे हमारे अचेतन में छुपी यह भावना तो काम नहीं कर रही कि हमारे बच्चों और गरीबों के बच्चों में कोई समानता नहीं है और उन्हें साथ-साथ  नहीं पढ़ना चाहिये?

आज सम्पन्नों के लिये अलग और विपन्नों के लिये अलग स्कूल क्यों हैं?

मुझे याद है कि जब मैं पढ़ता था तो उस जमाने में निजी शिक्षण संस्थाओं का अभाव था। हम साधारण शिक्षक के बेटे थे किन्तु हमारे साथ हमारे शहर के पूँजीपति व्यापारियों के बेटे भी गव्हर्नमेंट स्कूल में पढ़ते थे। हमारे बीच कभी भी गरीबी-अमीरी का भेद-भाव नहीं आया। हमारे पास पुस्तकों की कमी होने के कारण वे प्रेमपूर्वक दो-चार दिनों के लिये हमें अपनी पुस्तकें उधार दे दिया करते थे और गणित, भाषा आदि में कुछ अधिक होशियार होने के नाते प्रश्नों को हल कराने में हम उनकी भरपूर सहायता किया करते थे।

हमारे देश में शुरू से ही 'नारायण' और 'दरिद्रनारायण' की एक साथ शिक्षा की व्यवस्था रही है । जिस आश्रम में राजपुत्र राम को शिक्षा मिलती थी वहीं केवटपुत्र भी शिक्षा पाते थे। संदीपनी जहाँ कृष्ण को ज्ञान प्रदान करते थे वहीं सुदामा को भी। भेद-भाव का कहीं भी स्थान नहीं होता था। सुदामा के साथ कृष्ण को भी लकड़ी काटने जाना पड़ता था। सम्पन्न कृष्ण को आखिर विपन्न सुदामा के जैसे ही लकड़ी काटने की शिक्षा देने के पीछे मात्र उद्देश्य यही होता था कि वे दोनों ही स्वावलम्बी बनें। गुरु जानते थे कि जो आज सम्पन्न है वह कल विपन्न भी हो सकता है और उस स्थिति में लकड़ी काट कर भी अपनी आजीविका चला सकता था। तात्पर्य यह कि शिक्षा के मूल में मुख्य रूप से स्वावलम्बन हुआ करता था।
आज की शिक्षानीति भेद-भाव को कम कर रही है या बढ़ा रही है?

चलते-चलते

कृष्ण और सुदामा की चर्चा से कवि श्री नरोत्तमदास जी की रचना 'सुदामा चरित' का स्मरण हो आया, रस से सराबोर इस काव्य को को पढ़ने का अपना अलग ही आनन्द हैः

सुदामा चरित

विप्र सुदामा बसत हैं, सदा आपने धाम।
भीख माँगि भोजन करैं, हिये जपैं हरि-नाम॥
ताकी घरनी पतिव्रता, गहै वेद की रीति।
सलज सुशील सुबुद्धि अति, पति सेवा सौं प्रीति॥
कह्यौ सुदामा एक दिन, कृस्न हमारे मित्र।
करत रहति उपदेस तिय, ऐसो परम विचित्र॥

(भामिनी: सुदामा की पत्नी)
लोचन कमल, दुख-मोचन, तिलक भाल,
स्रवननि कुंडल, मुकुट धरे माथ हैं।
ओढ़े पीत बसन, गरे में बैजयंती माल,
संख-चक्र-गदा और पद्म लिये हाथ हैं।
विप्र नरोत्तम संदीपनि गुरु के पास,
तुम ही कहत हम पढ़े एक साथ हैं।
द्वारिका के गये हरि दारिद हरैंगे पिय,
द्वारिका के नाथ वै अनाथन के नाथ हैं॥

(सुदामा)
सिच्छक हौं, सिगरे जग को तिय, ताको कहा अब देति है सिच्छा।
जे तप कै परलोक सुधारत, संपति की तिनके नहि इच्छा॥
मेरे हिये हरि के पद-पंकज, बार हजार लै देखि परिच्छा।
औरन को धन चाहिये बावरि, बामन को धन केवल भिच्छा॥

(भामिनी)
कोदों, सवाँ जुरितो भरि पेट, तौ चाहति ना दधि दूध मठौती।
सीत बितीत भयो सिसियातहिं, हौं हठती पै तुम्हें न हठौती॥
जो जनती न हितू हरि सों तुम्हें, काहे को द्वारिका पेलि पठौती।
या घर ते न गयौ कबहूँ पिय, टूटो तवा अरु फूटि कठौती॥

(सुदामा)
छाँड़ि सबै जक तोहि लगी बक, आठहु जाम यहै हठ ठानी।
जातहि दैहैं, लदाय लढ़ा भरि, लैहैं लिवाय यहै जिय जानी॥
पैहे कहाँ ते अटारी अटा, विधि दीन्हि जो बस एक टूटी सी छानी।
जो पै दारिद्र लिखो है लिलार तौ, का्हू पै मेटि न जात अजानी॥

(भामिनी)
विप्र के भगत हरि जगत के विदित बंधु,
लेत सब ही की सुधि ऐसे महादानि हैं।
पढ़े एक चटसार कही तुम कैयो बार,
लोचन अपार वै तुम्हैं न पहिचानि हैं।
एक दीनबंधु कृपासिंधु फेरि गुरुबंधु,
तुम सो को दीन जाकौ जिय जानि हैं।
नाम लेते चौगुनी, गये तें द्वार सौगुनी सो,
देखत सहस्त्र गुनी प्रीति प्रभु मानि हैं॥

(सुदामा)
द्वारिका जाहु जू द्वारिका जाहु जू, आठहु जाम यहै जक तेरे।
जौ न कहौ करिहों तो बड़ौ दुख, जैहे कहाँ अपनी गति हेरे॥
द्वार खरे प्रभु के छरिया तहँ, भूपति जान न पावत नेरे।
पाँच सुपारि तै देखु बिचार कै, भेंट को चारि न चाउँर मेरे॥

यह सुनि कै तब ब्राह्मनी, गई परोसिन पास।
पाव सेर चाउँर लिये, आई सहित हुलास॥
सिद्धि सिरी गनपति सुमिरि, बाँधि दुपटिया खूँट।
माँगत खात चले तहाँ, मारग वाली बूट॥

दीठि चकचौंधि गई देखत सुबर्नमई,
एक तें सरस एक द्वारिका के भौन हैं।
पूछे बिन कोऊ कहूँ काहू सों न करे बात,
देवता से बैठे सब साधि-साधि मौन हैं।
देखत सुदामा धाय पौरजन गहे पाँय,
कृपा करि कहौ विप्र कहाँ कीन्हौ गौन हैं।
धीरज अधीर के हरन पर पीर के,
बताओ बलवीर के महल यहाँ कौन हैं?

(श्रीकृष्ण का द्वारपाल)
सीस पगा न झगा तन में प्रभु, जानै को आहि बसो केहि ग्रामा।
धोती फटी सि लटी दुपटी अरु, पाँयउ पानहु की नहिं सामा॥
द्वार खरो द्विज दुर्बल एक, रह्यौ चकि सो वसुधा अभिरामा।
पूछत दीन दयाल को धाम, बतावत आपनो नाम सुदामा॥

बोल्यौ द्वारपालक ’सुदामा नाम पाँड़े’ सुनि,
छाँड़े राज-काज ऐसे जी की गति जानै को?
द्वारिका के नाथ हाथ जोरि धाय गहे पाँय,
भेंटे भरि अंक लपटाय ऐसे दुख सानै को?
नैन दोऊ जल भरि पूछत कुसल हरि,
बिप्र बोल्यौ विपदा में मोहि पहिचाने को?
जैसी तुम करी तैसी करै को कृपा के सिंधु,
ऐसी प्रीति दीनबंधु! दीनन सौं माने को?

अंत:पुर कों लै गये जहँ दूसर नहिं जाय।
मणि-मांडित चौकी-कनक ता ऊपर बैठाय।
पानी धरो परात में, पग धोवन कों लाय।।

ऐसे बेहाल बेवाइन सों भये, पग कंटक-जाल लगे पुनि जोये।
हाय! महादुख पायो सखा तुम, आये इतै न कितै दिन खोये॥
देखि सुदामा की दीन दसा, करुना करिके करुनानिधि रोये।
पानी परात को हाथ छुयो नहिं, नैंनन के जल सौं पग धोये॥

(श्री कृष्ण)
कछु भाभी हमकौ दियो, सो तुम काहे न देत।
चाँपि पोटरी काँख में, रहे कहौ केहि हेत॥

आगे चना गुरु-मात दये ते, लये तुम चाबि हमें नहिं दीने।
श्याम कह्यौ मुसकाय सुदामा सों, चोरि की बानि में हौ जू प्रवीने॥
पोटरि काँख में चाँपि रहे तुम, खोलत नाहिं सुधा-रस भीने।
पाछिली बानि अजौं न तजी तुम, तैसेइ भाभी के तंदुल कीने॥

देनो हुतौ सो दै चुके, बिप्र न जानी गाथ।
मन में गुन्यो गोपाल जू, कछू न दीन्हों हाथ॥
वह पुलकनि वह उठि मिलन, वह आदर की बात।
यह पठवनि गोपाल की, कछू ना जानी जात॥

घर-घर कर ओड़त फिरे, तनक दही के काज।
कहा भयौ जो अब भयौ, हरि को राज-समाज॥

हौं कब इत आवत हुतौ, वाही ने पठ्यौ ठेलि।
अब कहिहौं समुझाइके, बहु धन धरौ सकेलि॥

वैसोई राज-समाज बनो, गज-बाजि घने, मन संभ्रम छायौ।
कै तो परो कहूँ मारग भूलि, कै फेरि के मैं अब द्वारिका आयौ।
भौन बिलोकिबे को मन लोचत, सोचत ही सब गाँव मँझायौ।
पूछत पाँड़े फिरे सबसों पर झोपरी को कहूँ खोज न पायौ॥

कनक-दंड कर में लिये, द्वारपाल हैं द्वार।
जाय दिखायौ सबनि लै, या है महल तुम्हार॥

टूटी सी मड़ैया मेरी परी हुती याही ठौर,
तामैं परी दुख काटे कहाँ हेम-धाम री।
जेवर-जराऊ तुम साजे सब अंग-अंग,
सखी सोहै संग वह छूछी हुती छाम री।
तुम तो पटंबर री ओढ़े हो किनारीदार,
सारी जरतारी वह ओढ़े कारी कामरी।
मेरी वा पंडाइन तिहारी अनुहार ही पै,
विपदा सताई वह पाई कहाँ पामरी?

कै वह टूटी सी छानि हती कहँ, कंचन के अब धाम सुहावत।
कै पग में पनही न हती कहँ, लै गजराजहु ठाढ़े महावत॥
भूमि कठोर पै रात कटै कहँ, कोमल सेज पै नींद न आवत।
जुरतो न कोदो सवाँ भरि पेट, प्रभु के परताप तै दाख न भावत॥

Friday, April 23, 2010

किसके लिये और क्यों ब्लोगिंग कर रहे हैं हम?

ये है ब्लोगवाणी के हॉटलिस्ट में सर्वोच्च पाँच पोस्ट का स्क्रीनशॉट, जिसे मैंने आज दिनांक 23 अप्रैल 2010 को सुबह 9.33 बजे लिया हैः


इन सर्वाधिक हॉट पोस्टों से भाषा, समाज, देश का कितना हित हो रहा है?

क्या इन पोस्टों को ब्लोगरों को छोड़कर कोई अन्य पढ़ना चाहेगा?

यदि वह पढ़ भी ले तो हिन्दी ब्लोगिंग के स्तर के विषय में क्या सोचेगा?

और इन्हें पढ़ने के बाद क्या वह भविष्य में हिन्दी ब्लोग्स की तरफ झाँकने की भी कोशिश करेगा?

किसके लिये और क्यों ब्लोगिंग कर रहे हैं हम?

Thursday, April 22, 2010

जूता जब पुराना होता है तभी तो पालिश की जरूरत पड़ती है

"लाख समझाओ इनको पर नतीजा 'वही ढाक के तीन पात'। फिर बैठ गये आप कम्प्यूटर के सामने?" श्रीमती जी बोलीं।

"अरे भई, हम हैं रिटायर्ड आदमी! ब्लोग ना पढ़ें और पोस्ट-टिप्पणियाँ ना लिखें तो समय कैसे कटे? 'खाली बनिया क्या करे, इस कोठी का धान उस कोठी में धरे'।" हमारा उत्तर था।

"सब्जी लेने जाने में भी समय कटता है इसलिये अब थोड़ा समय सब्जी लेने जाकर भी काटिये। अगर आप सब्जी लेने नहीं गये तो इस कम्प्यूटर को उठा कर फेंक दूँगी, 'ना नौ मन तेल होगा ना राधा रानी नाचेगी'।"

"सब्जी लेने के लिये अपने सुपुत्र को क्यों नहीं भेजती? अभी तक सोये पड़े हैं नवाबजादे, 'काम के ना काज के दुश्मन अनाज के'।"

"अच्छा, अब लड़के का आराम करना भी नहीं देखा जाता आपसे? आज आपकी नजरों में यह निठल्ला हो गया है, जब इसका जन्म हुआ था तो कहते थे 'पूत के पाँव पालने में नजर आते हैं'।"

"अच्छा भाई बहुत बड़ा सपूत है तुम्हारा लड़का! 'अपने पूत को भला कोई काना कहता है?', अब उसे उठाकर सब्जी लाने के लिये कहो।"

"नहीं जायेगा लड़का। आप को ही जाना पड़ेगा। जब देखो उसे ही काम में जोतने के लिये उतारू रहते हैं। कभी उसकी भलाई का भी सोचा है आपने? अपनी सारी कमाई भाई-बहनों को झोंक दिया, एक पैसा तो बचा कर रखा नहीं है उसके लिये।"

"क्यों, क्या वो अपने पैरों पर खुद खड़े होने के काबिल नहीं है? हमारे ही पिताजी ने हमारे लिये क्या छोड़ा था? फिर भी हमने क्या कमी की तुम्हें खुश रखने के लिये? 'पूत सपूत तो का धन संचय? पूत कपूत तो का धन संचय?'।"

"हाँ हाँ, बहुत खुश रखा है आपने मुझे! तन में ना कोई गहना और तीज-त्यौहार में ना कोई अच्छा कपड़ा। मेरे तो करम फूटे थे जो आपके पल्ले पड़ी। करमजली ना होती तो आपके साथ शादी के पहले जिस रईस की औलाद से मेरी शादी की बात चल रही थी उसी के साथ मेरी शादी ना हो गई होती? पर 'अपने किये का क्या इलाज'? आपकी बहन की बातों के चक्कर में आकर मैंने ही मना कर दिया था उससे शादी करने के लिये।

"अरे अभी तो लड़के से सब्जी मँगवा लो, शाम को मैं बाजार जाउँगा तो तुम्हारे लिये बढ़िया मेकअप का सामान लेते आउँगा।" हमने श्रीमती जी को खुश करने के उद्देश्य से कहा।

"हाय राम! अब क्या इस उमर में मैं मेकअप करूँगी?"

"क्यों, जूता जब पुराना होता है तभी तो पालिश की जरूरत पड़ती है।"

"क्या कहा?"

"अरे कुछ नहीं भई ..."

"क्या कुछ नहीं भई?"

"वो तो जरा ऐसे ही ..."

"क्या ऐसे ही?"

"वो जरा दिल की भड़ास निकल गई थी।" कहकर हमने श्रीमती जी को कुछ और सोचने और बोलने का मौका दिये बगैर जल्दी से कहा, "लाओ थैला दो, जा रहा हूँ सब्जी लेने के लिये।"

भुनभुनाते हुए वे थैला लाने चली गईं और हम अपनी आधी लिखी पोस्ट को सेव्ह करके कम्प्यूटर शटडाउन करने में लग गये।

Wednesday, April 21, 2010

ऊँचाई पर पहुँचना बड़ी बात नहीं है, बड़ी बात है ऊँचाई पर बने रहना

क्षेत्र चाहे बल्लोगिंग हो, कला हो, क्रीड़ा हो या चाहे जो भी हो, अपने क्षेत्र में आगे ही आगे बढ़े जाने की चाह भला किसे नहीं होती? आगे बढ़ते-बढ़ते सर्वोच्च स्थान प्राप्त कर लेना कोई बहुत बड़ी बात नहीं है, बड़ी बात है एक बार ऊँचाई में पहुँचने के बाद वहाँ बने रहना।

सर्वोच्च स्थान पर बने रहना बहुत मुश्किल होता है क्योंकि और भी बहुत सारे लोग उस स्थान के दावेदार होते हैं जो वहाँ पहले से ही पहुँचे हुए व्यक्ति को नीचे खींच कर स्वयं उसका स्थान ले लेना चाहते हैं। दूसरी ओर यह बात भी है कि जो व्यक्ति सर्वोच्च स्थान पर होता है वह कभी भी यह नहीं चाहता कि उसे नीचे धकेल कर कोई अन्य उसके स्थान पर आ जाये। यही कारण है कि सदुद्देश्य का कार्य करते करते जो भला आदमी एक बार ऊँचाई पर पहुँच जाता है वही वहाँ पहुँचने के बाद भलाई का त्याग कर देता है और वहाँ बने रहने के लिये नये नये हथकंडे सीख लेता है। अंग्रेजी का एक प्रॉव्हर्ब है "Ability can take you to the top, but it takes character to keep you there." अर्थात् "योग्यता आपको सफलता की ऊँचाई तक पहुँचा सकती है किन्तु चरित्र आपको उस ऊँचाई पर बनाये रखती है"। पर होता यह है कि ऊँचाई पर बने रहने का स्वार्थ चरित्र पर भारी पड़ने लगता है और एक न एक दिन यह स्वार्थ व्यक्ति को ऊँचाई से नीचे खींच लाता है।

इसलिये सर्वोच्च स्थान प्राप्त कर लेने वाले को याद रखना चाहिये कि "जिस किसी का भी उत्थान होता है उसका कभी न कभी पतन भी अवश्य ही होता है"

Tuesday, April 20, 2010

आप अंधेरे में कब तक रहें फिर कोई घर जला दीजिये

आज के जमाने में अगर जीना है तो जमाने के चलन को अपनाना ही पड़ेगा। आज आप आगे तभी बढ़ सकते हैं जब अपने घर में रोशनी करने के लिये दूसरे के घर को जला देने में आपको जरा भी झिझक न हो। अपने सौ रुपये के फायदे के लिये यदि किसी का हजार रुपये नुकसान होता हो तो बेहिचक उसका नुकसान कर दीजिये। यही है आज के जमाने का चलन।

कल ही की बात है, हम आटो रिक्शे में जा रहे थे कि ट्रैफिक वाले ने उसे रोक लिया ओव्हरलोड के आरोप में। दो सौ रुपये का चालान बनाने की धमकी देकर उसने आटो वाले की कड़ी धूप में गाढ़ी मेहनत से की गई अस्सी रुपये की कमाई को हड़प लिया। माँग तो वह सौ रुपये रहा था किन्तु उस वक्त तक आटो वाले ने केवल अस्सी रुपये ही कमाये थे, उससे अधिक रुपये उसके पास नहीं थे। आटो वाले का दोष सिर्फ इतना था कि उसने महज पाँच अतिरिक्त कमाने के लिये अपने आटो पर एक सवारी अधिक बिठा लिया था।

ऐसी बातें देखकर हम अक्सर सोचने लगते हैं कि अब हमें भी स्वयं को बदल लेना चाहिये, बड़े लोगों ने ठीक ही कहा है "जैसी चले बयार पीठ तैसी कर लीजे"। किन्तु हमारा यह विचार कुछ समय तक ही के लिये रहता है और बाद में हम वैसे ही रह जाते हैं जैसे सदा से थे। बहुत बड़ी कमजोरी है यह हमारी।

पोस्ट का शीर्षक मुन्नी बेगम के गाये एक गज़ल के शेर से लिया गया है इसलिये वह गज़ल भी सुनवा देते हैं, हमें तो पसंद है ही शायद आपको भी पसंद आयेः

Monday, April 19, 2010

कहाँ गईं वो घड़ों-सुराहियों की दूकानें

गर्मी की शुरुवात होते ही घड़ों-सुराहियों की दूकानें दिखनी शुरू हो जाती थीं किन्तु आज इन दूकानों को खोजना पड़ता है। मिट्टी के घड़ों में शीतल किये गये सोंधी-सोंधी मनभावन गंध लिये हुए पानी का स्वाद ही निराला होता था जो किसी भी प्यासे को तृप्त कर देता था। आज फ्रिज, वाटरकूलर आदि के प्रयोग ने इन घड़ों-सुराहियों की दूकानों को विलुप्तप्राय कर दिया है।

स्कूल के जमाने में पढ़े "किस्सा हातिमताई" का उद्धरण याद आता है कि सवाल का जवाब खोजते-खोजते यवन के शहजादे हातिम को भारत आना पड़ जाता है और प्यास लगने पर पानी माँग करने पर उसे दूध का गिलास थमा दिया जाता है जिससे उसके मुख से बरबस निकल जाता है कि धन्य है यह देश जहाँ प्यासे को पानी की जगह दूध पिलाया जाता है।

प्यासे की प्यास बुझाने को हमारी संस्कृति में बहुत महान और पुण्य का कार्य माना गया है। किन्तु आज के इस बाजारवाद ने हमारी मानसिकता को इस प्रकार से बदल दिया है कि हम अपनी संस्कृति को पूरी तरह से भूल गये हैं और पानी बेचने की चीज बन गई है। पानी को पॉलीथीन पैकेट और बोतलों में बंद करके बेचने के कार्यरूप राक्षस ने ही परम्परागत कुम्भकारों की घड़ों-सुराहियों की दूकानों को निगल डाला है।

भारत जैसे देश में पानी को बेचना ही घिनौना कार्य है पर यहाँ तो लोग प्यासों की मजबूरी का फायदा उठा कर पानी की अधिक से अधिक कीमत वसूल कर रहे हैं। जलपानगृहों और भोजनालयों में जानबूझ कर घड़े नहीं रखे जाते ताकि पैकेज्ड पानी की अधिक से अधिक बिक्री हो।

पता नहीं हमारी यह आधुनिकता की अंधी दौड़ हमें पतन के गर्त में और कितनी गहराई तक ले जायेगी?

Sunday, April 18, 2010

हिन्दी ब्लोगिंग आखिर कब तक संकलकों तक ही सिमटी रहेगी?

क्या आपको नहीं लगता कि हिन्दी ब्लोगिंग सिर्फ संकलकों तक ही सिमट कर रह गई है? इंटरनेट यूजर्स के मामले में विश्व में आज भारत का स्थान चौथे नंबर पर है और हमारे देश में लगभग आठ करोड़ दस लाख इंटरनेट यूजर्स हैं (देखें: http://www.internetworldstats.com/top20.htm)। इनमें से कई करोड़ लोग हिन्दीभाषी हैं किन्तु इन हिन्दीभाषी इंटरनेट यूजर्स में से कितने लोग हमारे संकलकों और ब्लोग्स में आते हैं? सिर्फ नहीं के बराबर लोग।

आखिर क्यों है ऐसा? भारत में हिन्दीभाषी इंटरनेट यूजर्स की एक विशाल संख्या होने के बावजूद भी ये लोग हिन्दी ब्लोग्स में क्यों नहीं झाँकने आते? हमें मानना पड़ेगा कि हममें कहीं ना कहीं कुछ ना कुछ खामी अवश्य है जिसके कारण हम इन लोगों को अपने ब्लोग्स की ओर आकर्षित नहीं कर पाते। यदि ये लोग हिन्दी ब्लोग्स में आना शुरू कर दें तो यह तय है कि हिन्दी ब्लोग्स के वारे न्यारे हो जायेंगे।

जो कुछ भी आपने ऊपर पढ़ा वह मैं पहले भी कई बार लिख चुका हूँ और आगे भी समय समय पर इस बात को स्मरण कराते ही रहूँगा। हो सकता है कि मेरे इस प्रकार से स्मरण कराते रहने से किसी दिन हिन्दी ब्लोगर्स को अपनी शक्ति का एहसास हो जाये और वे एक विशाल पाठकवर्ग तैयार करने में सक्षम हो जायें।