Saturday, June 12, 2010

कुछ व्यक्तित्व विकास उक्तियाँ

अपनी तुलना इस संसार के किसी अन्य व्यक्ति से कभी भी न करें। यदि आप ऐसा करते हैं तो स्वयं का अपमान करते हैं।
एलेन स्ट्राइक

यदि हम उस व्यक्ति से प्रेम नहीं कर सकते जिसे कि हम देख रहे हैं तो हम भगवान से कैसे प्रेम कर सकेंगे जिन्हें कि हम देख नहीं सकते?
मदर टेरेसा

विजय का अर्थ हमेशा सर्वप्रथम होना नहीं होता बल्कि विजय का अर्थ होता है कि आप किसी काम को पहले से बेहतर ढंग से कर रहे हैं।
बोनी ब्लेयर

मैं यह नहीं कहूँगा कि मैं 1000 बार असफल हुआ बल्कि मैं यह कहूँगा कि असफल होने के 1000 रास्ते हैं।
थामस एडीसन

हर कोई यह सोचता है कि मैं संसार को बदल दूँगा पर यह कोई नहीं सोचता कि मैं स्वयं को बदल लूँ।
लियो टॉल्स्टाय

हर किसी पर विश्वास कर लेना खतरनाक बात है पर उस से भी खतरनाक बात है किसी पर भी विश्वास न करना।
अब्राहम लिंकन

यदि कोई यह समझता है कि उसने अपने जीवन में कभी भी कोई गलती नहीं की है तो इसका मतलब हुआ कि उसने अपने जीवन में कभी भी कुछ नया नहीं किया।
आइंसटीन

विश्वास, वादा, सम्बन्ध और दिल - इन चारों में से कभी किसी को न तोड़ें टूटने पर ये आवाज उत्पन्न नहीं करते सिर्फ अत्यधिक दर्द उत्पन्न करते हैं।
चार्ल्स

Friday, June 11, 2010

अंग्रेजी शासन के समय की एक झलक

हिन्दुत्व एवं ब्राह्मणत्व में अखण्ड विश्वास रखने वाला एमएससी पास चोटीधारी बंगाली युवक अपूर्व को एक कंपनी में अफसर पद पर नौकरी मिलती है और वह अपने ब्राह्मण रसोइये तिवारी के साथ, अपने ब्राह्मणत्व की अत्यन्त सावधानी स रक्षा करता हुआ रंगून पहुँच जाता है जहाँ पर कंपनी की ओर से ही उसके लिये एक मकान की भी व्यवस्था कर दी गई रहती है। समुद्र-यात्रा की थकान से चूर अपूर्व तिवारी को भोजन तैयार करने का आदेश करने के लिये अपनी माँ को अपनी कुशलता का तार देने तारघर पहुँच जाता है।

अपूर्व जब तारघर पहुँचा, तो तार-बाबू खाना खाने चले गये थे। एक घण्टा प्रतीक्षा करने के बाद जब आये, तो घड़ी देखकर बोले, "आज छुट्टी है; दो बजे ऑफिस बन्द हो गया।"

अपूर्व ऊबे हुए स्वर में बोला, "यह अपराध आपका है। मैं एक घण्टे से बैठा हूँ।"

बाबू बोला, "लेकिन मैं तो, केवल दस मिनट हुआ, यहाँ से गया हूँ।"

अपूर्व ने उसके साथ झगड़ा किया, झूठा कहा, रिपोर्ट करने की धमकी दी; लेकिन सब व्यर्थ समझकर अपूर्व चुप हो गया। वह भूख-प्यास तथा क्रोध से जलते हुए बड़े तारघर पहुँचा। यहाँ से, अपने निर्विघ्न पहुँचने का समाचार जब माँ को भेज सका, तब कहीं उसे सन्तोष हुआ।

उपरोक्त उद्धरण श्री 'शरतचंद्र चट्टोपाध्याय' के बंगला उपन्यास "पाथेर दावी" के हिन्दी अनुवाद "पथ के दावेदार" से लिया गया है। तो यह थी अंग्रेजी शासनकाल के समय की व्यवस्था जिसे कि स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् हमारे देश के कर्णाधारों ने ज्यों का त्यों अपना लिया और यह कहने की आवश्यकता नहीं है कि यही व्यवस्था आज तक चली आ रही है।

थोड़ी सी झलक और देखें:
अपूर्व जब वापस पहुँचा तो उसने देखा कि तिवारी महाराज एक मोटी लाठी पटक रहे हैं और न जाने क्या अनर्गल बकते-झकते जा रहे हैं।

साथ ही एक दूसरे व्यक्ति, तिमंजले से, हिन्दी और अंग्रेजी में इसका उत्तर भी दे रहे हैं; और एक घोड़े का चाबुक लेकर बीच-बीच में सट्ट-सट्ट शब्द भी कर रहे हैं। तिवारी उसे नीचे उतरने को कह रहे हैं और वह उनको ऊपर बुला रहा है; और इस शिष्टाचार के आदान-प्रदान में जिस भाषा का प्रयोग हो रहा है, उसे न कहना ही उचित है।

अपूर्व के पूछने पर तिवारी ने उसे कमरे के भीतर ले जाकर क्रोध, दुःख तथा क्षोभ से रोते-रोते बताया, "यह देखिये, उस हरामजादे साहब ने क्या किया है!"

वास्तव में काण्ड देखकर अपूर्व की थकान, नींद, भूख और प्यास एकदम ही हवा हो गई। खिचड़ी की हांडी से इस समय तक भाप तथा मसाले की भीनी-भीनी गन्ध निकल रही है; लेकिन उसके ऊपर, नीचे, आस-पास, चारों ओर पानी फैला हुआ है। कमरे में बिछा उसका साफ-सुथरा बिछौना, मैले-काले पानी से सन गया है। कुर्सी पर पानी, टेबल पर पानी; यहाँ तक कि पुस्तकें भी पानी में सन गई हैं!

अपूर्व ने पूछा, "यह सब क्या हुआ?"

तिवारी ने दुर्घटना का विस्तारपूर्वक वर्णन करते हुए बताया -

अपूर्व के जाने के कुछ देर बाद ही साहब घर में आये। आज ईसाइयों का कोई पर्व है। पहले गाना-बजाना और फिर उसके बाद नृत्य आरम्भ हुआ और शीघ्र ही दोनों के संयोग से यह शास्त्रीय संगीत इतना असह्य हो उठा कि तिवारी को आशंका होने लगी कि लकड़ी की छत, साहत का इतना बड़ा आनन्द सम्भवतः, वहन न कर पायेगी। जइसी समय रसोई के पास ही ऊपर से पानी गिरने लगा। भोजन नष्ट हो जाने के भय से तिवारी ने बाहर आकर इसका विरोध किया। लेकिन साहब - चाहे वह काला हो या गोरा - देशी आदमी की ऐसी अशिष्टता नहीं सह सकते। वे उत्तेजित हो उठे और देखते-देखते, उन्होंने घर में जाकर बालटी की बालटी पानी ढरकाना आरम्भ कर दिया। इसके बाद जो कुछ हुआ, वह अपूर्व ने स्वयं अपनी आँखों से देख लिया।

उपरोक्त उद्धरण से स्पष्ट हो जाता है कि उन दिनों क्या स्थिति थी।

शरत्‌चन्द्र जी की इस कृति पाथेर दावी, जिसकी कथा देशभक्त, स्वाधीनता के पुजारी क्रान्तिकारी वीरों के इर्द-गिर्द घूमती है, से अंग्रेजी शासन इतनी भयभीत हुई थी कि इसके प्रथम संस्करण के छपते ही इसे खतरे की चीज समझकर ब्रिटिश-सरकार ने इस पुस्तक को जब्त कर लिया था।
चलते-चलते

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Thursday, June 10, 2010

भगवान राम भला करे उसका जो "वाल्मीकि रामायण" पर भी नापसन्द का चटका लगाता है

सभी की अपनी अपनी पसन्दगी और नापसन्दगी होती है। हम जानते हैं कि पसन्द और नापसन्द व्यक्ति का अपना निजी मामला होता है इसीलिये हमारे ब्लोग "धान के देश में" में किसी पोस्ट के प्रकाशित होते ही नापसन्द का चटका लग जाने पर हमें कभी भी आश्चर्य नहीं होता। किन्तु हमारे "संक्षिप्त वाल्मीकि रामायण" के कल के अन्तिम पोस्ट में एक नापसन्द का चटका लगे देखकर हमें किंचित आश्चर्य अवश्य हुआ क्योंकि प्रायः देखा यही गया है कि किसी ऐसे ग्रंथ को जिसे कि सम्पूर्ण विश्व में मान्यता प्राप्त हो यदि कोई पसन्द नहीं कर पाता तो उसके प्रति, शिष्टाचार के नाते ही सही, अपनी नापसन्दी भी नहीं जताता।



अस्तु, किसी की पसन्द और नापसन्द से हमें भला करना ही क्या है, हम तो भगवान श्री राम से यही प्रार्थना करते हैं कि उस भले मानुष का कल्याण करे!

भले ही किसी की पसन्द और नापसन्द से हमें कुछ लेना देना ना हो किन्तु ब्लोगवाणी नापसन्द बटन के विषय में जरूर कुछ कहना चाहेंगे क्योंकि यह बहुत सारे ब्लोगर्स को प्रभावित करता है। इस विषय में हम एक बार फिर से अपने पोस्ट "नापसन्द बटन याने कि बन्दर के हाथ में उस्तरा" कही गई बात को दुहराना चाहेंगे कि:

खुन्नस रखने वालों के लिये नापसन्द का यह बटन "बन्दर के हाथों उस्तरा" ही साबित हो रहा है।


चलते-चलते

A good man in an evil society seems the greatest villain of all.

खराब समाज में सभी लोगों को एक अच्छा आदमी सबसे बड़ा खलनायक जैसा लगता है।

A lie can be halfway around the world before the truth gets its boots on.

सत्य से पराजित होने के पूर्व झूठ आधी दुनिया की यात्रा कर लेता है।

Bad news travels fast.

खराब समाचार तेजी से फैलता है।

An empty vessel makes the most noise.

खाली बर्तन अधिक आवाज करता है। अधजल गगरी छलकत जाय।

All that glisters is not gold.

हर चमकने वाली चीज सोना नहीं होती।

Wednesday, June 9, 2010

संगीतप्रेमी श्वान बनाम हिज मास्टर्स व्हायस... संगीत... मेलॉडी... हारमोनी...

क्या आपको हिज मास्टर्स व्हायस के रेकॉर्ड्स याद हैं जिसमें संगीत का आनन्द लेते हुए श्वान महाशय का चित्र हुआ करता था? अवश्य ही याद होगा क्योंकि आप इन एसपी और एलपी रेकार्ड्स को अपने रेकॉर्ड प्लेयर पर सुना करते थे
और आनन्द-विभोर हो जाया करते थे। पर हमारे बचपन के दिनों में तो, जब रेकॉर्ड प्लेयर नाम की चीज ही नहीं थी, हमारे घर में ग्रामोफोन हुआ करता था जिसका तवा बगैर बिजली के स्प्रिंग द्वारा घूमा करता था और उसमें से बिना किसी स्पीकर के सिर्फ डॉयफ्राम और भोंपू की सहायता से गाने की आवाज आया करती थी - "चली कौन से देश गुजरिया तू सजधज के, जाऊँ पिया के देश ओ रसिया मैं सजधज के..."। छत्तीसगढ़ी गाने का भी एक रेकॉर्ड हुआ करता था हमारे यहाँ - "नरवा तीर में मोर कारी नौरंगी सँवरपड़री टोरथे भाजी नरवा तीर में ..."


तो हम बात कर रहे थे  हिज मास्टर्स व्हायस के रेकॉर्ड्स की। कितना सार्थक प्रतीक चिह्न था संगीत के रेकॉर्ड्स बनाने वाली इस कंपनी हिज मास्टर्स व्हायस का! चित्र को देखते ही लगने लगता था कि संगीत में सिर्फ मनुष्य को तो क्या प्राणीमात्र को प्रभावित की शक्ति है, संगीत को सुनकर श्वान महाशय भी भाव-विभोर हो सकते हैं।

ऐसा माना जाता है कि मेलॉडी भारतीय संगीत की आत्मा है जबकि पाश्चात्य संगीत का आधार हारमोनी है। आखिर क्या है ये मेलॉडी और हारमोनी?

क्योंकि मेलॉडी और हारमोनी संगीत के अन्तर्गत आते हैं इसलिये पहले संगीत को ही समझना अधिक उचित होगा। संगीत को आप केवल इतने से ही समझ सकते हैं कि कर्णप्रिय लगने वाली ध्वनि संगीत कहलाती है और कानों को कर्कश लगने वाली ध्वनि शोर कहलाता है। कोयल की कूक हमें मधुर प्रतीत होती है अतः वह एक संगीत है किन्तु कौवे का काँव-काँव करना शोर होता है। बाँसुरी से जब लयबद्ध धुन निकलती है तो वह संगीत होता है किन्तु उसी बाँसुरी में यदि जोर की फूँक मार दी जाये तो निकलने वाली ध्वनि कर्कश होने के कारण शोर कहलायेगा।

जब एक ही स्वर से संगीत का प्रभाव उत्पन्न किया जाता है तो मेलॉडी होता है याने कि यदि कंठ से 'ओऽऽऽऽऽऽऽऽम' की ध्वनि निकल रही हो तो बाँसुरी, वीणा आदि वाद्ययंत्रों से भी, कंठस्वर के साथ ही साथ, 'ओऽऽऽऽऽऽऽऽम' ध्वनि ही निकलेगी और उन समस्त ध्वनियों का संयोग मेलॉडी होगा। इसके विपरीत जब विभिन्न स्वरों के मेल से संगीत का प्रभाव उत्पन्न होता है तो वह हारमोनी कहलाता है। कल्पना कीजिये कि आप किसी समुद्र के तट पर बैठे हैं, लहरों की गर्जना अलग हो रही है, हवा चलने की हहर-हहर करती आवाज अलग आ रही है और दूर समुद्र में किसी नाव पर बैठे हुए माझी के गीत का स्वर अलग सुनाई पड़ रहा है किन्तु इन समस्त ध्वनियों को मेल आपको आनन्द-विभोर कर रहा है। यही है हारमोनी! ध्वनियों का मेल तो सड़क पर भी होता है, सड़क पर जाम लग गया है, कई गाड़ियों के हार्न बज रहे हैं, किनारे पर गन्ना रस निकालने वाली मशीन से 'चूँऽऽऽचररऽऽ' करती अलग प्रकार की आवाज निकल रही है, एक आदमी अपने आगे वाले आदमी को चिल्ला कर कह रहा है 'अबे साइड हो'... किन्तु सड़क पर होने वाली इन ध्वनियों का मेल आपको मधुर लगने के बजाय कर्कश लगता है इसलिये यह शोर होता है न कि हारमोनी। याने कि संगीत में जब कंठस्वर से अलग सुर निकल रहा हो, वायलिन से अलग और बाँसुरी से कुछ अलग किन्तु इन सभी सुरों का मेल मधुर हो तो हारमोनी होगा।

भारतीय फिल्म संगीत के स्वर्णिम काल (1950-80) में हमारे संगीतकारों ने मेलॉडी और हारमोनी का इतना सुन्दर प्रयोग किया कि उनकी धुनें अमर हो गईं।

यह तो आप सभी जानते हैं कि संगीत के सात सुर होते हैं, चलिये आज उन सुरों के नाम भी जान लें:
  1. षडज - सा
  2. ऋषभ - रे
  3. गान्धार - गा
  4. मध्यम - म
  5. पंचम - प
  6. धैवत - ध
  7. निषाद - नि

उपरोक्त सात सुरों के पाँच सहायक स्वर भी होते हैं - कोमल रे, कोमल ग, तीव्र म, कोमल ध और कोमल नि।

आपकी जानकारी के लिये मैं बता दूँ कि मैं कोई संगीत विशेषज्ञ नहीं हूँ किन्तु संगीत के विषय में थोड़ी सी जानकारी मुझे थी उसे आज मैंने इस पोस्ट में प्रस्तुत कर दिया। शायद आप लोगों में से कुछ को पसन्द आये।

Tuesday, June 8, 2010

मतलब निकल गया है तो पहचानते नहीं

युवक ने पहली बार अपनी गर्ल-फ्रेंड को अपने कमरे में इन्व्हाइट किया। लड़की इन्व्हीटेशन कबूल करके उसके साथ चल पड़ी। लड़के का कमरा ऊपर की मंजिल पर था जिसके लिये लकड़ी की सीढ़ियाँ बनी थीं। चौथी सीढ़ी के बाद पाँचवी सीढ़ी पर पैर रखते समय लड़के ने लड़की को बड़े प्यार से बताया, "अगली सीढ़ी पर संभल कर पैर रखना क्योंकि उसमें एक छेद है जिसमें पाँव फँस जाने का डर है।"

आधे घंटे के बाद जब वे दोनों वापस जाने के लिये सीढ़ियाँ उतर रहे थे तो लड़की का पैर सीढ़ी के छेद में फँस ही गया। उसे फँसे देखकर लड़के ने बड़ी रुखाई के साथ उससे कहा, "आँख की अंधी होने के साथ ही साथ अकल की भी अंधी है क्या? आधे घंटे पहले ही बताई बात को याद नहीं रख सकती?"

तो मित्रों, यह संसार ऐसा ही है जहाँ पर लोग सिर्फ मतलब का व्यवहार रखते हैं। इसीलिये तो 'गिरिधर' कवि ने कहा हैः

सांई सब संसार में, मतलब को व्यवहार।
जब लग पैसा गाँठ में, तब लग ताको यार॥
तब लग ताको यार, यार संगही संग डोलैं।
पैसा रहा न पास, यार मुख से नहिं बोलैं॥
कह 'गिरिधर' कविराय जगत यहि लेखा भाई।
करत बेगरजी प्रीति यार बिरला कोई सांई॥

Monday, June 7, 2010

तिकड़म से ही मिलती हैं टिप्पणियाँ

टिप्पणियाँ पाना भला किसे अच्छा नहीं लगता? ऊपर-ऊपर से भले ही हम कहें कि हम टिप्पणियों की परवाह नहीं करते पर जब हम अपने भीतर झाँकते हैं तो लगता है कि हमें भी टिप्पणियाँ पाने में खुशी होती है। हिन्दी ब्लोगिंग में टिप्पणियों के महत्व को इतना बढ़ा-चढ़ा दिया गया है कि प्रतीत होने लगा है कि हिन्दी ब्लोगिंग का मुख्य उद्देश्य मात्र टिप्पणी पाना ही है। हिन्दी ब्लोगरों के प्राण टिप्पणियों में ही बसते हैं। अधिकतर ब्लोगर जिन्हें टिप्पणियाँ नहीं मिलतीं या कम टिप्पणियाँ मिलती हैं, स्वयं को अधमरा सा महसूस करने लगते हैं क्योंकि नामी-गिरामी, बड़े तथा नंबर एक ब्लोगर वे ही माने जाते हैं जिनके पोस्टों में टिप्पणियों के अंबार लगे रहते हैं।

यदि आपने अच्छी पोस्ट लिखी है तो हो सकता है कि दो-चार टिप्पणियाँ बिना किसी प्रयास के मिल जायें किन्तु ढेर सारी टिप्पणियाँ बिना तिकड़म के मिलना मुश्किल ही नहीं असम्भव है। अब ये तिकड़म क्या होते हैं यह मत पूछियेगा। यदि पूछेंगे तो भी आपको जवाब नहीं मिलने वाला क्योंकि सभी के अपने-अपने तिकड़म होते हैं जो कि उनके बिजनेस सीक्रेट्स होते हैं। अक्सर छोटे-मोटे तिकड़म तो हम भी भिड़ाते हैं पर कल हमने अपने पोस्ट "वैदिक कर्मकाण्ड के सोलह संस्कार" के लिये कुछ भी तिकड़म जानबूझ कर नहीं भिड़ाया क्योंकि हम जानना चाहते थे कि क्या ऐसे भी कुछ लोग हैं जो सोलह संस्कारों को जानने की रुचि रखते हैं। नतीजा यह हुआ कि पोस्ट पूरी तरह से पिट गई। पसन्द के नाम पर शून्य रहा वह पोस्ट पर सौभाग्य से चार टिप्पणियाँ मिल गईं। किन्तु हम जानते हैं कि हमारे इस पोस्ट की उम्र मात्र चौबीस घंटे ना होकर बहुत लंबी है और ऐसे पाठक, जिन्हें सोलह संस्कारों के विषय में जानने की रुचि होगी, हमेशा सर्च इंजन से खोज कर आते रहेंगे हमारे इस पोस्ट में।

कभी-कभी संयोग से बिना तकड़म भिड़ाये भी अच्छी-खासी टिप्पणियाँ मिल जाती हैं क्योंकि हिन्दी ब्लोगिंग भी हिन्दी फिल्मों जैसा है जहाँ पर अच्छी फिल्में पिट जाती हैं और "जै संतोषी माँ" जैसी फिल्में सालों तक बॉक्स आफिस में हिट बनी रह जाती हैं। किन्तु ऐसा बार-बार नहीं बल्कि कभी-कभार ही होता है।

विषय आधारित ब्लोग्स को या तो टिप्पणियाँ मिलती ही नहीं हैं या फिर नहीं के बराबर मिलती हैं, शायद यही कारण है कि हिन्दी में विषय आधारित ब्लोग बनाने का चलन नहीं के बराबर है। हम तो सोचते थे कि ब्लोगिंग का उद्देश्य समाज, भाषा साहित्य आदि की सेवा करते हुए स्वयं का भी कल्याण करना है और इसीलिये हमने "संक्षिप्त वाल्मीकि रामायण" जैसा विषय आधारित ब्लोग बनाया था। किन्तु आजकर जिस प्रकार से टिप्पणियाँ पाने के लिये के लिये घमासान मचा हुआ है उसे देखकर लगता है कि हमारी सोच बिल्कुल गलत है और ब्लोगिंग का उद्देश्य महज टिप्पणियाँ बटोर कर आत्म-तुष्टि पाना ही है। "संक्षिप्त वाल्मीकि रामायण" अब अपनी समाप्ति की ओर है। इसके समाप्त होने पर हमने तुलसीकृत "रामचरितमानस" की पर ब्लोग बनाने का निश्चय किया था किन्तु अब इस विषय में सोचना पड़ेगा।

पुनश्चः कभी कभी हिन्दी ब्लोगिंग की दशा देखकर इतनी निराशा छा जाती है कि नकारात्मक बातें सूझने लगती हैं किन्तु रंजन जी की टिप्पणी ने मुझे संबल प्रदान किया है और मैं "रामचरितमानस" पर ब्लोग अवश्य बनाऊँगा।

Sunday, June 6, 2010

वैदिक कर्मकाण्ड के सोलह संस्कार

बस सुना था कि वैदिक कर्मकाण्ड में मनुष्य के जन्म से लेकर मृत्यु तक सोलह संस्कार के प्रावधान हैं किन्तु उनमें से मात्र तीन चार के नाम ही जानता था। उत्सुकतावश नेट को खंगाला तो जो कुछ भी जानकारी मिली उसे इस पोस्ट में प्रस्तुत कर रहा हूँ। आशा करता हूँ कि अधिक जानकारी वाले लोग अवश्य ही इस विषय में मुझे और भी ज्ञान प्रदान करेंगे।

वैदिक कर्मकाण्ड के अनुसार निम्न सोलह संस्कार होते हैं:

गर्भाधान संस्कारः उत्तम सन्तान की प्राप्ति के लिये प्रथम संस्कार।

पुंसवन संस्कारः गर्भस्थ शिशु के बौद्धि एवं मानसिक विकास हेतु गर्भाधान के पश्चात्् दूसरे या तीसरे महीने किया जाने वाला द्वितीय संस्कार।

सीमन्तोन्नयन संस्कारः माता को प्रसन्नचित्त रखने के लिये, ताकि गर्भस्थ शिशु सौभाग्य सम्पन्न हो पाये, गर्भाधान के पश्चात् आठवें माह में किया जाने वाला तृतीय संस्कार।

जातकर्म संस्कारः नवजात शिशु के बुद्धिमान, बलवान, स्वस्थ एवं दीर्घजीवी होने की कामना हेतु किया जाने वाला चतुर्थ संस्कार।

नामकरण संस्कारः नवजात शिशु को उचित नाम प्रदान करने हेतु जन्म के ग्यारह दिन पश्चात् किया जाने वाला पंचम संस्कार।

निष्क्रमण संस्कारः शिशु के दीर्घकाल तक धर्म और मर्यादा की रक्षा करते हुए इस लोक का भोग करने की कामना के लिये जन्म के तीन माह पश्चात् चौथे माह में किया जाने वला षष्ठम संस्कार।

अन्नप्राशन संस्कारः शिशु को माता के दूध के साथ अन्न को भोजन के रूप में प्रदान किया जाने वाला जन्म के पश्चात् छठवें माह में किया जाने वाला सप्तम संस्कार।

चूड़ाकर्म (मुण्डन) संस्कारः शिशु के बौद्धिक, मानसिक एवं शारीरिक विकास की कामना से जन्म के पश्चात् पहले, तीसरे अथवा पाँचवे वर्ष में किया जाने वाला अष्टम संस्कार।

विद्यारम्भ संस्कारः जातक को उत्तमोत्तम विद्या प्रदान के की कामना से किया जाने वाला नवम संस्कार।

कर्णवेध संस्कारः जातक की शारीरिक व्याधियों से रक्षा की कामना से किया जाने वाला दशम संस्कार।

यज्ञोपवीत (उपनयन) संस्कारः जातक की दीर्घायु की कामना से किया जाने वाला एकादश संस्कार।

वेदारम्भ संस्कारः जातक के ज्ञानवर्धन की कामना से किया जाने वाला द्वादश संस्कार।

केशान्त संस्कारः गुरुकुल से विदा लेने के पूर्व किया जाने वाला त्रयोदश संस्कार।

समावर्तन संस्कारः गृहस्थाश्रम में प्रवेश करने की कामना से किया जाने वाला चतुर्दश संस्कार।

पाणिग्रहण संस्कारः पति-पत्नी को परिणय-सूत्र में बाँधने वाला पंचदश संस्कार।

अन्त्येष्टि संस्कारः मृत्योपरान्त किया जाने वाला षष्ठदश संस्कार।

उपरोक्त सोलह संस्कारों में आजकल नामकरण, अन्नप्राशन, चूड़ाकर्म (मुण्डन), यज्ञोपवीत (उपनयन), पाणिग्रहण और अन्त्येष्टि संस्कार ही चलन में बाकी रह गये हैं।