रीतिकालीन कवियों में सेनापति का ऋतु वर्णन अत्यन्त प्रसिद्ध है। सेनापति नाम से बोध होता है कि यह वास्तविक नाम न होकर उपनाम ही होगा। सेनापति का वास्तविक नाम अब तक ज्ञात नहीं हो पाया है। निम्न कवित्त से उनका थोड़ा सा परिचय मिलता हैः

दीक्षित परसुराम दादौ है विदित नाम,
जिन कीन्हैं जज्ञ, जाकी बिपुल बड़ाई है।
गंगाधर पिता गंगाधर के समान जाके,
गंगातीर बसति अनूप जिनि पाई है॥
महाजामनि, विद्यादान हूँ में चिन्तामनि,
हीरामनि दीक्षित ते पाई पंडिताई है।
सेनापति सोई सीतापति के प्रसाद जाकी,
सब कवि कान दै सुनत कविताई है॥

उपरोक्त छंद से ज्ञात होता है कि सेनापति के पिता का नाम गंगाधर और पितामह का नाम परशुराम दीक्षित था और हीरामणि दीक्षित उनके गुरु थे। तात्पर्य यह कि उन्होंने दीक्षित कुल में जन्म लिया था और अनूप नगर के निवासी थे।

सेनापति के विषय में कहा गया हैः

रितु वर्णन अद्भुत कियौ सेनापति कविराज।
एकै रचना नाम कौ तब सुकवि समाज॥

आइये रसपान करें उनके ऋतु वर्णन का:

वसंत ऋतु

बरन बरन तरु फूले उपवन वन,
सोई चतुरंग संग दल लहियतु है।
बंदी जिमि बोलत विरद वीर कोकिल है,
गुंजत मधुप गान गुन गहियतु है॥
आवे आस-पास पुहुपन की सुवास सोई
सोने के सुगंध माझ सने रहियतु है।
सोभा को समाज सेनापति सुख साज आजु,
आवत बसंत रितुराज कहियतु है॥

ग्रीष्म ऋतु

वृष को तरनि तेज सहसौं किरन करि
ज्वालन के जाल बिकराल बरखत हैं।
तचति धरनि, जग जरत झरनि, सीरी
छाँह को पकरि पंथी पंछी बिरमत हैं॥
सेनापति नैकु दुपहरी के ढरत, होत
धमका विषम, जो नपात खरकत हैं।
मेरे जान पौनों सीरी ठौर कौ पकरि कोनों
घरी एक बैठी कहूँ घामैं बितवत हैं॥

वर्षा ऋतु

दामिनी दमक, सुरचाप की चमक, स्याम
घटा की घमक अति घोर घनघोर तै।
कोकिला, कलापी कल कूजत हैं जित-तित
सीतल है हीतल, समीर झकझोर तै॥
सेनापति आवन कह्यों हैं मनभावन, सु
लाग्यो तरसावन विरह-जुर जोर तै।
आयो सखि सावन, मदन सरसावन
लग्यो है बरसावन सलिल चहुँ ओर तै॥

शरद ऋतु

कातिक की रति थोरी-थोरी सियराति,
सेनापति है सुहाति सुखी जीवन के गन हैं।
फूले हैं कुमुद, फूली मालती सघन वन,
फूलि रहे तारे मानो मोती अनगन हैं॥
उदित विमल चंद, चाँदनी छिटकि रही,
राम कैसो जस अध-ऊरध गगन है।
तिमिर हरन भयो, सेत है बरन सबु,
मानहु जगत छीर-सागर मगन है॥

शिशिर ऋतु

सिसिर में ससि को सरूप वाले सविताऊ,
घाम हू में चाँदनी की दुति दमकति है।
सेनापति होत सीतलता है सहज गुनी,
रजनी की झाँईं वासर में झलकति है॥
चाहत चकोर सूर ओर दृग छोर करि,
चकवा की छाती तजि धीर धसकति है।
चंद के भरम होत मोद है कुमुदिनी को,
ससि संक पंकजनी फूलि न सकति है॥