Saturday, October 9, 2010

ब्लोग या वेबसाइट बनाने का क्या उद्देश्य होना चाहिए?

प्रायः लोग अपना ब्लोग या वेबसाइट बनाते हैं। कोई भी कार्य बिना उद्देश्य के नहीं होता, अतः ब्लोग या वेबसाइट बनाने का भी कुछ न कुछ उद्देश्य अवश्य ही होना चाहिए। क्या होना चाहिए वह उद्देश्य?

प्रायः अपनी रचनाओं तथा प्रतिभाओं को सार्वजनिक करना ही ब्लोग या वेबसाइट बनाने का मुख्य उद्देश्य होता है। इस उद्देश्य को अनुचित नहीं कहा जा सकता। किन्तु यदि अपने ब्लोग या वेबसाइट के जरिये अपनी रचनाओं तथा प्रतिभाओं को सार्वजनिक करने के साथ ही साथ कुछ जन-कल्याण का कार्य या अपनी संस्कृति, सभ्यता, भाषा आदि को बढ़ावा देने का कार्य भी किया जाए तो "सोने में सुहागा" हो जाए।

आज नेट में हिन्दी को आगे बढ़ाने के लिए ब्लोग के अलावा जनकल्याणकारी वेबसाइट्स, वेब डायरेक्टरीज़, आर्टिकल डायरेक्टरीज़ आदि का भी निर्माण जरूरी हो गया है।

फिल्म बावर्ची में एक बहुत ही सुन्दर सन्देश दिया गया है कि "दूसरों को सुख प्रदान करने से जो सुख मिलता है वही सच्चा सुख है।" यह सन्देश मुझे बहुत ही प्यारा लगता है। आज जरूरत है स्वयं के कल्याण के साथ ही साथ दूसरों का भी कल्याण करने का।

ऐसे ही उद्देश्य को लेकर अलबेला खत्री जी ने, हमारे देश के हजारों-लाखों कलाकारों की प्रतिभा को सर्वसामान्य के समक्ष लाने के लिए, अलबेलाखत्री.कॉम का निर्माण किया है। वे अपने निवेदन में लिखते हैं किः

विशेष निवेदन :

मित्रो ! ये एक खेल मात्र नहीं है, बल्कि ये उस महती कार्य को अंजाम तक पहुँचाने का प्रयास है जिसका सपना मैंने बहुत पहले देखा था। ऐसे कितने ही प्रतिभाशाली लोग हैं जो फ़िल्मों, टी वी और स्टेज के अलावा म्यूजिक इंडस्ट्री में नाम और दाम कमा सकते हैं लेकिन वे दूर दराज के क्षेत्रों में रहते हैं या उनके पास कोई प्रोपर एप्रोच नहीं होती इसलिए उनकी कला केवल उनके घर-आँगन तक ही सीमित रहती है www.albelakhatri.com ने पहली बार एक ऐसा मंच तैयार किया है जहाँ बिना कोई खर्च किये कोई भी कलाकार अपने को कितना भी प्रमोट कर सकता है और बड़े प्रोडक्शन हाउसेस की नज़रों में आ सकता है । यदि उसमे प्रतिभा है तो उसे अवसर मिल ही जाये, ऐसा प्रबन्ध हम कर रहे हैं और ज़्यादा से ज़्यादा निर्माता-निर्देशक व इवेंट ओर्गेनाइज़र on line talent search के ज़रिये उन तक पहुँच सकें इसकी व्यवस्था हम कर रहे हैं।


और भी बहुत कुछ है । जैसे www.albelakhatri.com पर आप अपना विज्ञापन ख़ुद बना कर निशुल्क लगा सकते हैं । साथ ही मित्र समूह बना कर प्रत्येक मित्र पर 40 पॉइंट कमा सकते हैं वगैरह वगैरह।

खत्री जी का यह प्रयास सराहनीय है और हम सभी का कर्तव्य है कि उनके इस प्रयास को सफल बनाने में अपना पूर्ण सहयोग दें।

Friday, October 8, 2010

सत्तर की उम्र और नटनी से आशनाई

लेखक – आचार्य चतुरसेन

गुलाबजान के एक और चाहनेवाले थे, नवाब मुज़फ्फरबेग, जो नवाब बल्लभगढ़ के नाम से मशहूर थे। बल्लभगढ़ मुक्तेसर की पूर्वी दिशा में अब एक छोटा-सा वीरान गाँव है। उस जमाने में यहाँ बड़ी रौनक थी, जिसका सबूत नवाब की विशाल गढ़ी, हवेली और बारहदरी तथा कचहरी के खण्डहर हैं, जिन पर अडूसे और धतूरे के पेड़ उग आए हैं। उन दिनों यहाँ बहुत धूम-धड़ाका रहता था। नवाब मुज़फ्फरबेग ठस्से के रईस थे। रुपया नकद इनके पास बहुत था। इलाका भी छोटा न था। असल बात यह थी, उन दिनों आज के जैसे न तो बम्बई, कलकत्ता और दिल्ली जैसे विशाल नगर थे, जहाँ देश-भर के पढ़े-लिखे लोग पेट के धन्धे के फेर में फँसकर खटमल और मच्छरों की भाँति छोटे-छोटे दरबों में रहते हैं। जिन्हें सुबह नौ से दस बजे तक और शाम को पाँच से छः बजे तक टिड्डीदल की भाँति दफ्तर से आते-जाते आप देख सकते हैं। और न बड़े-बड़े मिल-कारखाने खुले थे, जहाँ लाखों मजदूर एक साथ मजदूरी करके पेट पालते और मुर्गे-मुर्गियों की भाँति गन्दे दरबों में रहते हैं। पापी पेट के लिए लाखों-करोड़ों स्त्री-पुरुष, गाँव-देहात छोड़ अब इन शहरों में आ बसे हैं। उन दिनों ये सब देश में समान भाव से फैले हुए देहातों में रहते थे। खेती करते या घर पर अपने-अपने हजारों धन्धे करते थे। शहर और कस्बे की बात तो दूर, छोटा-मोटा गाँव भी उ दिनों अपनी हर जरूरत के लिए आत्मनिर्भर था। और हर एक आदमी बहुत कम खर्च में सीधे-सादे ढंग से मजे में रहता था। अपना मालिक आप! तब न इतनी पुलिस थी, न इन्तजाम। जमींदारों की स्वेच्छाचारिता थी। कम्पनी बहादुर के अहलकारों की आपाधापी थी। चोरों, ठगों, सांखियों, कंजरों, डाकुओं का भय था। अराजकता थी। पर फिर भी लोग खुश थे। अपने में सम्पूर्ण, आत्मनिर्मभर। परिश्रम, सादा जीवन और आत्मनिर्भरता उनके स्वभाव का अंग बन गए थे क्योंकि उनके बिना एक क्षण भी चलता न था। वह जमाना ही ऐसा था।

लोग खुश थे, मस्त थे और उसका नतीजा था कि आमतौर पर रियाया में ऐयाशी एक हद तक फैली थी। आप इसे चरित्रहीनता कह सकते हैं। बाल-बच्चेदार रईस, नवाब रंडियाँ, नटनियाँ रखते, खुल्लमखुल्ला घरों पर नाच-मुज़रे होते, छोटे-बड़े सभी उनमें भाग लेते, नशा-पानी होता। होली-दीवाली का हुर्दंग होता। नटनियाँ, वेश्याएँ, जो ताबे होतीं, रईसों के घरों पर आती-जातीं। घर के बच्चे उनसे वही रिश्ता रखते जो घर की स्त्रियों से होता है। कोई शर्म-झिझक न थी। चाची, मामी का रिश्ता और वही सुलूक। बड़े घर की अमीरज़ादियाँ खातिरख्वाह इन कसबियों को भीतर जनाने में बुलातीं, खातिर करतीं, इनाम देतीं, पास बिठातीं। इस प्रकार ये नटनियाँ, कंजरियाँ, पतुरियाँ, डेरेवालियाँ, डोमनियाँ भी सभ्य समाज का एक अंग थीं। उनके बिना समाज सूना था, उदास था।

नवाब साहब की उम्र सत्तर के करीब थी। मुँह में एक दाँत न था। कमर झुककर दुहरी हो गई थी। सिर के और दाढ़ी के बाल रुई के गोले के समान सफेद। मगर रहते थे नौरतन बने-ठने। कैंचुली का अंगरखा, गुलबदन का पायजामा, जिसमें लाल रेशम का जालीदार नेफा। मसालेदार टोपी, बालों में कीमती चमेली का तेल, कपड़े इत्र-हिना से तर अब कहिए इस उम्र में भी रंडी से आशनाई।

मुँहलगे यार-दोस्त पूछते, “हुजूर, अब इस उम्र में तो खुदा की बंदगी और तस्बीह की सोहबत मुनासिब है।” तो तड़ाक से कहते, “बेहूदा बकते हो। खुदा की बन्दगी और तस्बीह की क्या कोई खास उम्र होती है? हम तो पैदाइशी बन्दे-खुदा हैं। हर वक्त वज्द में रहते हैं। तुम दो दिन के लौंडे क्या जानों। मगर हमारी सरकार में जहाँ शान-शौकत के और सब सामान व फज़ले-खुदा मुहैया है, वहाँ हमारी जानोमाल की सलामती बनाने के लिए जलूसियों में एक रंडी भी चाहिए।”

सौ रुपये मुशाहरा गुलाबजान को इस सरकार से मिलता था। इसपर नवाब जबरदस्तखां को भी ऐतराज न था। बूढ़े की सनक पर वे भी हँसते थे, बल्कि अपनी महफिल में ब-ज़िद बुलाकर बिठा लेते और उनके चुटकुलों का और जिन्दादिली का मज़ा लेते थे। गाने और सितारबाजी में उस्ताद थे। दमखम और आवाज अब नहीं रही थी, मगर जब आलाप लेते तो तबलची-सारंगियों के दाँतों पसीना आ जाता था। ध्रुपद-धमाल के धनी थे। बड़े-बड़े उस्तादों की आँखें देखे हुए थे। बड़ी-बड़ी नामी-गिरामी रंडियाँ और गवैये उनके सामने जूतियाँ सीधी करते और उन्हें औलिया कहते थे। आवाज में वह सोज-लचक थी कि दिल तड़प जाता था।

ताज़ियादारी इनकी ठाठ की होती थी। दूर-दूर की रंडियाँ मर्सिये गाने आतीं। लखनऊ, दिल्ली और बनारस के कलावन्त अपना करतब दिखाते। अशरा मुहर्रम में दस दिन रोज मज़लिस होती थी। चेहलम तक हर जुमेरात को खास धूम-धाम रहती थी। सैकड़ों मुँहताज मोमिनीन लंगर खाते थे।

वही मामला होली पर होता था। पूरे हफ्ते-भर होली का हुर्दंग रहता। वे भूल जाते कि मुसलमान हैं। रंग, अबीर, गुलाल में सराबोर। शराब,भंग की माजूम, बर्फियाँ और बादा; केसर मलाई डाली हुई दूधिया छनती – शहर-भर की पहुनाई होती। नवाब घर-घर जाते, रंग डालते, अबीर लगवाते, लोगों से गले मिलते थे, इस मौके पर बनारस और लखनऊ से मशहूर भांड बुलाए जाते थे। क्या बहार थी, बस बल्लभगढ़ उन दिनों इन्द्र का अखाड़ा बन जाता था। जिन्दगी उमड़ी पड़ती थी।

नवाब की बेगम कायम थीं। उम्र उनकी भी नवाब से कम न थी। दोनों में मुहब्बत ऐसी कि जवान भी लज्जित हों। नवाब साहब का बँधा दस्तूर था कि रात के नौ बजे और जनानखाने में दाखिल। लाख काम हो, बाहर नहीं आते थे। असल बात यह है कि नवाब बूढ़े जरूर थे पर थे प्यार करने के काबिल।

हापुड़ में नवाब साहब की पुख्ता हवेली थी। जब आते वहीं मुकाम करते थे। जितने दिन मुकाम रहता, रंग, बहार, मजलिस, महफिल, दावत, शिकार, अगलम-बगलम, हँसी-मजाक और सब कुछ। मगर निहायत सलीके से। शेर भी कह लेते थे। सुनने के पक्के शौकीन, बस, मुशायरों की भी एक-दो वारदातें हो जातीं। लुफ्त रहता।

दीवाली बीत चुकी थी। गुलाबी सर्दी पड़ने लगी थी। लोग लिहाफ-रजाइयों से मुँह निकालकर सोने लगे थे – मौसम पुरलुफ्त था। आसमान में चाँदनी चटखती तो रात जैसे खुलकर हँसती थी। मुक्तेसर में गंगा-स्नान में मेले की चढ़ाई थी। लख्खा आदमियों का हुजूम मुक्तेसर पर उमड़ा पड़ता था। आस-पास के देहातों से अमीर-गरीब, अपनी हैसियत के अनुसार बहलों, गाड़ियों, रथों, मंझोलियों में, घोड़ों पर, पालकियों में आ रहे थे। सवारियों का तांता बँधा था। हापुड़ में भी आदमियों का भारी हुजूम था। एक मेला लगा था। दूर-दूर के बिसाती, दूकानदार दूकानें सजाए तरह-तरह की जिन्सें बेच रहे थे। हलवाइयों और मोदियों की चाँदी थी।

नवाब का आम दस्तूर था कि इन दिनों वे हापुड़ में आ मुकीम होते थे। गंगा-स्नान के हफ्ते-भर बाद तक डटे रहते। यात्रियों के लिए पौसाला लगाते थे। शर्बत पिलाते थे। मगर असल बात यह थी – जाटनियों के गीत सुनने का उन्हें शौक था, जो आस-पास के देहातों से सिमटकर झण्ड के झुण्ड पैदल या बैलगाड़ियों में राह चलते गला मिलाकर गाती थीं। बस वह गाना बेमिसाल था। क्या गातीं खाक-धूल समझ नहीं पड़ता, परन्तु उनकी मिली-जुली हो-हो पर नवाब लट्टू थे। हवेली उनकी आम रास्ते पर थी। कोठी में आरामकुर्सी पर बैठे अम्बरी तमाखू खुशबू की मस्त महक का मजा लेते हुए चटख चाँदनी रात में सामने सड़क पर गुजरती हुई बैलगाड़ियों में हिचकोले खाती हुई जाटनियों के अजीब लहरी गानों का लुत्फ लेते रहते थे।

…………

मेले की भीड़-भाड़ जब घट गई तो गुलाबजान ने एक ठाठ के जल्से की नवाब साहब को दावत दी। कोठे पर महफिल सजाई। कीमती शीशे-आलात की रोशनी, साफ दूध-सी सफेद चाँदनी का फर्श, ईरानी कीमती कालीन, उसपर जरबफ्त की मसनदें और गुलगुले गावतकिए, रंग-बिरंगे मरदेगें, हांडिया रोशन, इत्र-फुलेल, गुलाब, केवड़ा, हिना, चम्पा, जूही, मालती की गहगही खुशगवार खुशबू के साथ मिली-जुली लखनऊ के कीमती मुश्की अम्बरी खसीरी तमाखू की महक। तमाम कस्बे में महफिल की धूम मच गई। मगर क्या मजाल कि पंछी पर मार जाए। सिर्फ चुनिंदा सोहबत। कस्बे की सब मशहूर नौचियाँ, कंचनी, डोमनी, डेरेदार, नटनियाँ एक से एक खूबसूरत, सब गहनों गोदनी की तरह लदी हुईँ, इठलाती, बन-ठनी, तोलवाँ जोड़े पहने। गोरी, साँवली, ठिगनी, मझोली, लम्बी – सभी किस्म की बला। कोई मखमली धानी दुपट्टे से फूटी पड़ती है। किसी का ऊदी गिरंट का पायजामा संभाले नहीं संभलता। किसी की फँसी-फँसी कुर्ती गज़ब ढा रही है। किसी के हाथ-गले में हलका जेवर, किसी की नाक में हीरे की कील, कानों में सोने की आँतियों की बहार, किसी के हाथौं में भारी-भारी सोने के कड़े, गले में मोतियों का कण्ठा, कोई चंचल, कोई तुनकमिज़ाज, कोई गोरी-चिट्टी, किसी का खुलता साँवला रंग, किताबी चेहरा, सतुवाँ नाक, बड़ी-बड़ी आँखें, स्याह पुतली, उसपर काजल की लकीर, किसी का काही दुपट्टा करेब का, बनात टँकी हुई, जर्द गिरंट का पायजामा। कोई गहनों से लदी-फदी, कोई फूलों के गजरों से आरास्ता, जैसे चौथी की दुलहिन। बात-बात में शोखी-शरारत। कोई आँखें लड़ा रही है, कोई मुँह बना रही है, गर्ज हुस्न का बाजार लगा था। चाँदी की तश्तरी में गुलाब-केवड़े में बसी पानी की गिलौरियाँ, बसे हुए हुक्के। जल्से का वह रंग कि जिसका नाम।

नवाब मुज़फ्फरबेग कारचोबी काम की मसनद पर उठँगे हुए, गिलौरियाँ कचर रहे हैं। तनज़ेब का अंगरखा, ऊदी सदरी, नुक्केदार टोपी, चुस्त घुटन्ना, बगल में नवाब जबरदस्तखां, कीमती भारी अरकाट दुशाला, कोई दो हजार की कीमत का, कमर में लपेटे, दूसरा सर से बाँधे, हाथ में हुक्के की नली, छत की ओर ताकते मुश्की धुएँ का अम्बार बना रहे हैं।

दीवान परसादीलाल, सत्तर से भी ढले हुए। दुबले-पतले कोई साढ़े चार माशे के आदमी, ऐनक आँखों पर चढ़ाए। माथे पर बल, कान में कलम, मखमल का अंगा और ढीले पायचों का पायजामा। चाँदनी का कोना दबाए सिकुड़े बैठे कभी-कभी परी-पैकरों को देखते, कभी अपने मालिक नवाब जबरदस्तखां के तेवरों को।

एक वकील, सादा घुटा सिर, सदली मंडील सिर पर, तराशी हुई मूछें। पूरे खुर्राट। हरएक को घूरते और मुस्कुराते हुए।

दो चोबदार अदब से दीवारों में चिपके हुए। दरवाजे के पास एक मशालची खड़ा था। एक मुख्तार साहब और दो शरीफज़ादे कालीन पर बैठे थे।

बी गुलाबजान के ठस्से का क्या कहना, चाँदी की गुड़गुड़ी मुँ से लगी है, सामने पानदान खुला हुआ है, एक-एक को पान लगाकर देती जाती हैं। नौचियाँ लपक-लपककर पानों की तश्तरी रईसों को पेश करती हैं, रईस हैं कि कलाबत्तू हुए जा रहे हैं। पान की गिलौरियाँ कचरते हैं, गंगा-जमुनी काम के पेचवन में कश लेते हैं। दीदारबाजी और फिकरेबाजी चल रही है। कहकहे उड़ रहे हैं। चुहलें हो रही हैं। उधर वह उठी, इधर आवाज आई – जरा संभल के। ये चली हैं छमाछम, तो किसी की परवाह नहीं। यहाँ रईस हैं कि आँखें बिछा रहे हैं, नज़रों के तीर-तमंचे चल रहे हैं, बिना माँगे लोग कलेजा निकालकर दे रहे हैं। कोई दिल हथेली पर रखे हुए है। मगर वे हैं कि कोई बात नज़र में ही नहीं समाती। गरूर का यह हाल कि बादशाह भी इनकी ठोकर पर हैं। नाज़ और अन्दाज़ पर मरनेवाले मर रहे हैं, जो जिन्दा हैं, ठण्डी साँसे भर रहे हैं। एक है कि रूठी बैठी है, लोग मना रहे हैं।

खिदमतगार सुनहरी काम का हुक्का तैयार करके हाजिर हुआ। बी गुलाबजान ने इशारा किया, बड़े नवाब के सामने लगा दो। नवाब साहब ने गुड़गुड़ी नवाब जबरदस्तखां के आगे सरकाकर कहा, “शौक कीजिए।” नवाब जबरदस्तखां ने तपाक से, जरा-सा मसनद से उकसकर तसलीम बजाई और कहा, “किब्ला पहले आप।”

बूढ़े नवाब ने मुनाल मुँह लगाई। मजे ले-लेकर हुक्का पीने लगे। बी गुलाबजान ने पानदान सरकाया। पान पर कत्था-चूना लगा, डलियों का चूरा चुटकी भर डाला, इलायची के दाने पानदान के ढकने पर कुचलकर गिलौरी बनाई और खुद उठकर बड़े नवाब को पेश की।

नवाब ने कहा, “दाँत कहाँ से लाऊँ जो पान खाऊँ?”

“हुजूर, खाइए तो, आप ही के लायक मैंने बनाया है।”

नवाब जबरदस्तखां ने मुस्कराकर कहा, “वल्लाह, बनाने में तो तुम एक ही हो।”

गुलाबजान ने तड़ाक से जवाब दिया, “लेकिन हुजूर बनाती ही हूँ, बिगाड़ती किसी की नहीं।”

बूढ़े नवाब ने धुएँ के बादल बनाते हुए एक ठण्डी साँस भरी और कहा, “शुक्र है खुदा का।”

इस पर एक गहरा कहकहा पड़ा।

दीवान परसादीलाल ने दस्तबस्ता अर्ज़ की, “हुजूर, यह क्या बात है; जिस पर सरकार की नज़र पड़ती है; उसस पर लाखों नज़रें पड़ती हैं; रश्क के मारे लोग जले जाते हैं।”

नवाब ने संजीदगी से कहा, “ये जान-बूझकर जलाती हैं।”

जबरदस्तखां ने हँसकर कहा, “साहब, पहले तो वही खुद मरती हैं।”

गुलाबजान ने झट दूसरा बीड़ा नवाब जबरदस्तखां के मुँह में ठूँसते हुए कहा, “अय हुजूर, यह नया कल्मा कहा। मरें हमारे दुश्मन।”

“मरें इनके दुश्मन, ठीक तो है। न जाने कितने मर चुके। उनके घर में रोना-पीटना मचा है, ये बैठी यारों के साथ कहकहे लगा रही हैं। जरा उगालदान दीजिए।”

एक नौची ने आगे बढ़कर उगालदान नवाब के आगे किया। नौची नवेली, कमसिन, अल्हड़, पर रंग ऐसा कि उलटा तवा। चेचक के दाग, छोटी-छोटी आँखें, भद्दी-सी नाक, नीचे को बैठी हुई, बड़े-बड़े नथुने। कद ठिगना, मोट-मोटे होंठ। गले में सोने की चम्पाकली, नाक में पीतल का बुलाक। देहाती धज। नबाब भाँप गए, मजाक का मसाला मिला। आहिस्ता से बोले -

“क्या नाम है तुम्हारा बीबीजान?”

“हुजूर, मुझे धनिया कहते हैं।”

“वाह, क्या मुफ़ीद नाम है।” दीवान सहब की तरफ मुखातिब होकर, “दीवान साहब, धनिये की क्या तासीर है?”

दीवान साहब पूरे घाघ! खट से हाथ बाँधे बोले, “सरकार, दिल को ठण्डक पहुँचाता है।”

कहकहा फर्माइशी पड़ा। धनिया झेंप गई। उठकर जाने लगी तो बड़े नवाब ने कहा, “ठहरो तो बीबी, यह बुलाक तुमने कहाँ बनवाया?”

नौची ने झेंपते हुए कह, “नखलऊ से मोल लिया था सरकार।”

“नखलऊ भी बड़ा गुलज़ार शहर है।” दीवान साहब की ओर मुखातिब होकर बोले, “क्या खयाल है दीवान साहब?”

दीवान साहब छाती पर हाथ धरकर बोले, “क्या कहने हैं हुजूर नखलऊ शहर के, एक से एक बढ़कर एक कारीगर बाकमाल आदमी बसते हैं वहाँ। मगर कुछ लोग उस शहर को लखनऊ कहते हैं।”

“कहते होंगे, हमें तो नखलऊ ही प्यारा लगता है।” नवाब ने एक बार नौची की ओर देखा। फिर कहा, “जरा देख सकता हूँ मैं तुम्हारा यह जेवर?”

अब नौची गरीब क्या करे। दबी नज़र इधर-उधर देखा। मुआ पीतल का बुलाक, दो पैसे का। खूब फँसी। नीचा मुँह किया, नाक से निकाला, रूमाल से साफ किया और बड़े नवाब की हथेली पर रख दिया।

नवाब साहब बड़े गौर से देखते रहे। फिर गुड़गुड़ी में, एक कश खींचकर बोले, “निहायत नफ़ीस चीज़ है, इसे तुम बीबी, हमें दे सकती हो? कीमत जो चाहो ले लो।”

गुलाब मजाक को समझ न रही थे, नौची शर्म से ज़मी में धँसी जा रही थी, मगर पुराने खूँसट दीवान मजा ले रहे थे। आहिस्ता से बोले, “इस अदद को खरीदकर क्या करेंगे हुजूर?”

नवाब ने निहायत संजीदा होकर कहा, “क्या कहूँ दीवानजी, हमारी एक कुतिया है, कुत्ते हरामज़ादे उसे बहुत दिक करते हैं, सोचता हूँ यह बुलाक…..”

बात पूरी न हो पाई कि नौची भागी पत्तातोड़। सारी रंडियाँ मुँह पर दुपट्टा डालकर हँसने लगीं। वह कहकहा पड़ा कि खुदा की पनाह।

लेकिन नवाब हैं कि संजीदा बने बैठे हैं, हैरान हैं कि आखिर यह कहकहे किसलिए? “मालूम होता है, आप लोग बहुत खुश हैं!”

नवाब जबरदस्तखां ने कहा, “जी हाँ, ये लोग हुजूर को मुबारकबाद देना चाहते हैं।”

“आखिर किस सिलसिले में?”

“हुजूर की कद्रदानी और गैहरशिनासी के सिले में। वाह, क्या दाना बीना है। बस बी धनिया की तो तकदीर खुल गई।”

“तो बी धनिया पर ही क्या मौसूफ है। हमारी तो तबियत ही ऐसी है, सुना गुलाबजान, जरा ध्यान रखना। कोई हसीन नया चेहरा नज़र आए, और मैं जिन्दा होऊँ तो उम्मीदवारों में मेरा नाम लिख लेना, और जो मर जाऊँ तो कहना मेरे नाम पर फातिहा पढ़ ले।”

दीवान साहब खुशामदी लहजे में बोले उठे, “खुदा न करे।”

मगर गुलाबजाने ने तड़ाक से कहा, “और अगर कोई हसीन मर्द नज़र आए?”

“तब तो तुम उसकी उम्मीदवार बनोगी ही, मेरा नाम उसकी बहन के उम्मीदवारों में लिख लेना।”

इस हाजिरजवाबी पर फिर एक फर्माइशी कहकहा मचा। आखिर दीवान साहब ने कहा, “हुजूर, ये खुशगप्पियाँ तो होती ही रहेंगी, अब जरा तानारीरी का भी लुत्फ़ उठाया जाए। उधर देखिए चौथ का चाँद बदली में क्या अठखेलियाँ कर रहा है! हवा कैसी मीठी बह रही है! तिलस्मात का आलम है, बस केदारे की एक चीज़ हो जाए हुजूड़।”

बड़े नवाब मसनद पर लुढ़क गए। हुक्के की नाल मुँह से लगाते हुए बोले, “क्या मुजायका है, बशर्तें गुलाबजान को कोई ऐतराज न हो।”

गुलाबजान ने कहा, “तो हुजूर हुक्म हो तो पहल धनिया करे।”

नवाब न जानते थे कि धनिया फने-मौसिकी में माहिर है। गला कयामत का कुदरत से पाया था, मालूमात बहुत अच्छी थी। रियाज़ कमाल का था। नवाब के होठों पर मुस्कान फैल गई।

धनिया ने आकर नवाब साहब को सलाम किया। करीने से बैठी, उस्ताद सारंगिए ने सफ बाँधी। एक नौची ने तानपूरा संभाला।

धनिया ने नवाब से पूछा, “हुजूर, क्या गाऊँ?”

“गाना गाओ बीबी!”

“कौन राग?”

“राग? खैर, केदारा ही सही।”

“क्या? अस्थाई, ध्रुपद, तराना?”

नवाब मसनद पर से उठकर सीधे बैठे। नौची की आँख में आँख डालकर कहा, “ध्रुपद गाओ।”

धनिया ने स्वर बाँधा, धीरे-धीरे आलाप लेना शुरू किया। पर जब मूर्छना उसके गले से निकलने लगी तो तबलची बेहाल हो गया। नवाब ने झपटकर तबला अपनी रानों में दबाया। फिर तो उनकी पुरानी उँगलियाँ कमाल का जौहर दिखाने लगीं। घड़ी-भर ही में बेखुदी का आलमतारी हो गया। न किसी के मुँह से वाह निकलती है न आह। सब बुत बने बैठे हैं। और सुर हैं जो हवा में तैरते हुए धरती-आसमान को जर्रा-जर्रा कर रहे हैं। दून की बाढ़ आई और फिर तीन ग्राम मे उँगलियाँ थर्राने लगीं। इसी बेखुदी के आलम में गुलाबजान नाचने उठ खड़ी हुई, फिर तो वह समां बँधा कि वाह! चार घड़ी सुर तड़पते रहे। राग, मूर्छना, स्वर, ताल, लय, आलाप, उच्चार, सब कुछ ऐसा जो बड़े-बड़े कलावन्तों का भी न सुना था।

गाना बन्द कर धनिया ने नवाब को आदाब झुकाया। नवाब ने हाथों की अँगूठियाँ, जेब की घड़ी, गले का लॉकेट, जेब के रुपए-पैसे, अशरफी जो कुछ था धनिया के ऊपर बखेर दिया। कद्रदान आदमी थे, आँखों में आँसू भर लाए। उसके दोनों हाथों को आँखों से लगाकर बोले, “जीती रहो, शर्मिन्दा हूँ बीबी, मैंने तुम्हारे साथ मजाक किया। अब से तुम जहाँ रहो, वहीं पचास रुपया माहवार मुशाहरा तुम्हें जब तक मैं जिन्दा हूँ, मिलता रहेगा। और तुम पर कोई पाबन्दी नहीं है।”

धनिया बार-बार सलामें झुकाती हट गई। गुलाबजान ने कहा, “अब?”

देर तक सन्नाटा रहा। आखिर नवाब हुक्के की नली छोड़ उठ खड़े हुए। उन्होंने आहिस्ता से कहा, “जल्सा बर्खास्त।”

(आचार्य चतुरसेन के उपन्यास “सोना और खून” का अंश)

(इससे पूर्व की कहानी यहाँ पढ़ें - जमींदार नटनी गुलाबजान)

Thursday, October 7, 2010

"सही शब्दों का प्रयोग" या "शब्दों का सही प्रयोग"?

विचित्र होते हैं ये शब्द भी। प्रयोग के अनुसार सामने वाले को मोह सकते हैं तो कभी अर्थ का अनर्थ बनाकर भड़का भी सकते हैं। लखनवी शैली में यदि युवक युवती से "खादिम हूँ आपका" कहता है तो युवती प्रसन्न होती है किन्तु भूल से भी यदि "खादिम" के स्थान पर "खाविंद" शब्द का प्रयोग हो जाए अर्थात् युवक "खाविंद हूँ आपका" कह दे तो आप स्वयं ही सोच सकते हैं कि युवती पर क्या प्रतिक्रया होगी। लखनवी शैली की बात चली है तो आपको बता दें कि एक नवाब साहब ने निर्धन कवि को अपने महल में निमंत्रित किया था। नवाब साहब के द्वारा बारम्बार अपने शानदार महल को "गरीबखाना" कहने पर निर्धन कवि सोचने लगा कि जब ये अपने इतने बड़े महल को "गरीबखाना" कह रहे हैं तो मैं अपनी झोपड़ी को भला क्या कहूँ? अन्त में बेचारे ने नवाब साहब से कहा, "आपके यहाँ आकर बहुत प्रसन्नता हुई, आप भी कभी मेरे 'पायखाना' में आने का कष्ट कीजिएगा।"

जहाँ साहित्य तथा सामान्य बोल-चाल की भाषा में "सही शब्दों के प्रयोग" को उचित माना जाता है वहीं कानूनी दाँव-पेंचों वाले अदालती मामले में "शब्दों के सही प्रयोग" ही उचित होता है। हम जब बैंक अधिकारी थे तो हमारे द्वारा स्वीकृत एक ऋण का प्रकरण अदालत में चला गया और हमें गवाह के तौर पर पेश किया गया। ऋणी के वकील ने जब हमसे पूछा कि 'क्या आपने इसे ऋण दिया था?' तो हमारा जवाब था कि 'ऋण के लिए इसने आवेदन दिया था जिसे हमने स्वीकृत किया था।' वकील के प्रश्न के उत्तर में यदि हमने सिर्फ "हाँ" कहा होता तो वकील उसका अर्थ यही निकालता कि बैंक ने ही ऋण दिया था, ऋणी ने ऋण माँगा नहीं था। कानूनी मामलों में "शब्दों का सही प्रयोग" बहुत जरूरी होता है अन्यथा कभी भी अर्थ का अनर्थ निकाला जा सकता है।

अब जरा अंग्रेजी के इस वाक्य पर गौर फरमाएँ:

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उपरोक्त वाक्य में "सेकंड" शब्द का प्रयोग तीन बार हुआ है और तीनों ही बार उसका अर्थ अलग है, याने कि अंग्रेजी का यमक अलंकार!

शब्द चाहे किसी भी भाषा के हों, एक ही शब्द के अनेक अर्थ होते हैं जिनका गलत प्रकार से प्रयोग होने पर जहाँ अर्थ का अनर्थ का अनर्थ होने की सम्भावना होती है वहीं उन अर्थों का सही प्रयोग होने पर भाषा का रूप निखर आता है। हिन्दी भाषा तो शब्दों तथा उनके अनेक अर्थों के मामले में अत्यन्त सम्पन्न है। विश्वास न हो तो "अमरकोष" उठा कर देख लीजिए, आपको एक ही शब्द कें अनेक अर्थ तथा उसके अनेक विकल्प मिल जाएँगे। उदाहरण के लिए अमरकोष के अनुसार "हरि" शब्द के निम्न अर्थ होते हैं:

यमराज, पवन, इन्द्र, चन्द्र, सूर्य, विष्णु, सिंह, किरण, घोड़ा, तोता, सांप, वानर और मेढक

और अमरकोष में ही बताया गया है कि विश्वकोष में कहा गया है कि वायु, सूर्य, चन्द्र, इन्द्र, यम, उपेन्द्र (वामन), किरण, सिंह घोड़ा, मेढक, सर्प, शुक्र और लोकान्तर को 'हरि' कहते हैं।

एक दोहा याद आ रहा है जिसमें हरि शब्द के तीन अर्थ हैं:

हरि हरसे हरि देखकर, हरि बैठे हरि पास।
या हरि हरि से जा मिले, वा हरि भये उदास॥

 (अज्ञात)

पूरे दोहे का अर्थ हैः

मेढक (हरि) को देखकर सर्प (हरि) हर्षित हो गया (क्योंकि उसे अपना भोजन दिख गया था)। वह मेढक (हरि) समुद्र (हरि) के पास बैठा था। (सर्प को अपने पास आते देखकर) मेढक (हरि) समुद्र (हरि) में कूद गया। (मेढक के समुद्र में कूद जाने से या भोजन न मिल पाने के कारण) सर्प (हरि) उदास हो गया।

उपरोक्त दोहा हिन्दी में यमक अलंकार का एक अनुपम उदाहरण है।

अब थोड़ा जान लें कि यह यमक अलंकार क्या है? जब किसी शब्द का प्रयोग एक से अधिक बार होता है और हर बार उसका अर्थ अलग होता है तो उसे यमक अलंकार कहते हैं, जैसे किः

कनक कनक ते सौ गुनी मादकता अधिकाय।
ये खाए बौरात हैं वे पाए बौराय॥


भूषण कवि ने की निम्न रचना में तो हर पंक्ति में यमक अलंकार का प्रयोग किया गया हैः

ऊँचे घोर मंदर के अन्दर रहन वारी,
ऊँचे घोर मंदर के अन्दर रहाती हैं।
कंद मूल भोग करें कंद मूल भोग करें
तीन बेर खातीं, ते वे तीन बेर खाती हैं।
भूषन शिथिल अंग भूषन शिथिल अंग,
बिजन डुलातीं ते वै बिजन डुलाती हैं।
‘भूषन’ भनत सिवराज बीर तेरे त्रास,
नगन जड़ातीं ते वे नगन जड़ाती हैं॥


यमक अलंकार के विपरीत, जब किसी शब्द का सिर्फ एक बार प्रयोग किया जाता है किन्तु उसके एक से अधिक अर्थ निकालते हैं तो "श्लेष" अलंकार होता है, उदाहरण के लिएः

पानी गए ना ऊबरे मोती मानुष चून।

तो ऐसी समृद्ध भाषा है हमारी मातृभाषा हिन्दी! इस पर हम जितना गर्व करें कम है!

चलते-चलते

डॉ. सरोजिनी प्रीतम की एक हँसिकाओं में यमक और श्लेष अलंकार के उदाहरणः

यमकः

तुम्हारी नौकरी के लिए
कह रखा था
सालों से सालों से!

श्लेषः

क्रुद्ध बॉस से
बोली घिघिया कर
माफ कर दीजिये सर
सुबह लेट आई थी
कम्पन्सेट कर जाऊँगी
बुरा न माने गर
शाम को 'लेट' जाऊँगी।

Wednesday, October 6, 2010

मारो स्साले को जूता... याने कि जुतियाना

किसी को जुतियाने का चलन एक लम्बे काल से चला आ रहा है। यद्यपि आज के जमाने में अनेक प्रकार के हथियार उपलब्ध हैं किन्तु एक हथियार के रूप में जूते का महत्व आज भी बना हुआ है। जूता जहाँ अस्त्र है वहीं शस्त्र भी है क्योंकि किसी को मारने के लिए इसका प्रयोग इसे हाथ में पकड़े-पकड़े भी किया जा सकता है और फेंक कर भी। किसी को जूता मारने पर जहाँ उसे शारीरिक पीड़ा होती है वहीं उसके भीतर अपमानित होने का भाव भी उत्पन्न होता है जिसके कारण उसे मानसिक संत्रास भी मिलता है।

लम्बे समय से जुतियाने का प्रयोग होने के कारण जुतियाने के अनेक तरीके भी ईजाद हो चुके हैं किन्तु 'श्रीलाल शुक्ल' जी ने "राग दरबारी" में जुतियाने का जो तरीका बताया है वही तरीका हमें जुतियाने का सबसे अच्छा लगता है। हमारे विचार से तो उससे अच्छा तरीका और हो ही नहीं सकता। उनके तरीके के अनुसार यदि किसी को जुतियाना हो तो उसे गिन कर 100 जूते लगाने चाहिये, न एक कम और न एक ज्यादा। और गिनती के 93-94 तक पहुँचने पर भूल जाना चाहिये कि अब तक कितने जूते लग चुके हैं। अब भूल गये तो फिर से जुतियाना तो शुरू करना ही पड़ेगा।

जब भी इंसान को गुस्सा आता है, किसी न किसी को जुतियाने का मन हो ही जाता है। अक्सर तो होता यह है कि गुस्सा किसी और पर आता है और जुतियाया कोई और जाता है। अब आप अपने से जादा ताकतवर को नहीं जुतिया सकते ना, पर गुस्सा शांत करने के लिये जुतियाना जरूरी भी है। इसीलिये जब आफिस में बॉस और घर में बीबी पर गुस्सा आता है तो चपरासी और नौकर ही जुतियाये जाते हैं।

राजनीति, खास करके आज के जमाने की राजनीति, और जुतियाने में चोली दामन का सम्बन्ध है। जिस नेता के पास जुतियाने वाले चम्मचों की टीम नहीं होती, वास्तव में वह असली नेता ही नहीं होता। जुतियाना नेताओं के चम्मचों का जन्मसिद्ध अधिकार होता है। शक्ति प्रदर्शन करके अपना बड़प्पन स्वीकार करवाने का एक मात्र माध्यम जुतियाना ही है।

जुतियाना शब्द तो जूते से बना है। तो प्रश्न यह उठता है कि जब इस संसार में जूता नहीं हुआ करता था तो लोग भला कैसे अपना गुस्सा उतारते रहे होंगे? शायद जूते की जगह खड़ाऊ लगा कर। तो 'जुतियाने' को अवश्य ही 'खड़ुवाना' कहा जाता रहा होगा। और शायद उस जमाने में नेता के चम्मच के बजाय राजाओं के मुसाहिब और खुशामदी लोग 'खड़ुआते' रहे होंगे।

जुतियाने का सबसे बढ़िया प्रयोग तो फिल्म 'शोले' में किया गया था संजीव कुमार के द्वारा अमजद खान को बड़े बड़े कील वाले जूते खिलवा कर। सच्ची बात तो यह है कि जो जितना अधिक जुतियाने का प्रयोग करेगा वह उतना ही आगे बढ़ेगा। हम तो आज तक आगे नहीं बढ़ पाये क्योंकि हमें जुतियाना ही नहीं आता।

Tuesday, October 5, 2010

खाना तो वो होता है जिसे देखकर ही मुँह में पानी आ जाए


पूरन पूरी हो या दाल बाटी, तंदूरी रोटी हो या शाही पुलाव, पंजाबी खाना हो या मारवाड़ी खाना, जिक्र चाहे जिस किसी का भी हो रहा हो, केवल नाम सुनने से ही भूख जाग उठती है। भारतीय भोजन की अपनी एक विशिष्टता है और इसी कारण से आज संसार के सभी बड़े देशों में भारतीय भोजनालय पाये जाते हैं जो कि अत्यंत लोकप्रिय हैं। विदेशों में प्रायः सप्ताहांत के अवकाशों में भोजन के लिये भारतीय भोजनालयों में ही जाना अधिक पसंद करते हैं।

इस बात में तो दो मत हो ही नहीं सकता कि भारतीय खाना 'स्वाद और सुगंध का मधुर संगम' होता है!

स्वादिष्ट खाना बनाना कोई हँसी खेल नहीं है। इसीलिये भारतीय संस्कृति में खाना बनाने को कला माना गया है अर्थात् खाना बनाना एक कला है। भारतीय भोजन तो विभिन्न प्रकार की पाक कलाओं का संगम ही होता है! इसमें पंजाबी खाना, मारवाड़ी खाना, दक्षिण भारतीय खाना, शाकाहारी खाना, मांसाहारी खाना आदि सभी सम्मिलित हैं।

भोजन की सबसे बड़ी विशेषता तो यह है कि यदि पुलाव, बिरयानी, मटर पुलाव, वेजीटेरियन पुलाव, दाल, दाल फ्राई, दाल मखणी, चपाती, रोटी, तंदूरी रोटी, पराठा, पूरी, हलुआ, सब्जी, हरी सब्जी, साग, सरसों का साग, तंदूरी चिकन न भी मिले तो भी आपको आम का अचार या नीबू का अचार या फिर टमाटर की चटनी से भी भरपूर स्वाद प्राप्त होता है।

भारत में पाककला का अभ्युदय हजारों वर्षों पहले हुआ था। वाल्मीकि रामायण में निषादराज गुह के द्वारा राम को भक्ष्य, पेय, लेह्य आदि, जिनका निर्माण पकाये गए अन्नादि से होता था, भेंट करने का वर्णन आता है। इसका अर्थ यह हुआ कि रामायण काल में भी भारत में भोजन बनाने की परम्परा रही है। सुश्रुत के अनुसार भोजन छः प्रकार के होते हैं – चूष्म, पेय, लेह्य, भोज्य, भक्ष्य और चर्व्य। भोज्य पदार्थों को सुश्रुत के द्वारा इस प्रकार से विभाजन भी भारत में पाककला के अत्यन्त प्राचीन होने को इंगित करता है। यहाँ तक माना जाता है कि भारत में पाककला उतना ही पुराना है जितना कि स्वयं मनुष्य।

इन हजारों वर्षों के दौरान भारत में अनेकों शासक हुए जिनके प्रभाव से भारतीय पाककला भी समय समय में परिवर्तित होती रही। विभिन्न देशों से आने वाले पर्यटकों का भी यहाँ के पाककला का प्रभाव पड़ता रहा। आइये देखें कि विभिन्न काल में भारतीय पाककला में कैसे कैसे परिवर्तन हुएः

माना जाता है कि मोहनजोदड़ो और हड़प्पा सभ्यता के काल में, जो कि ईसा पूर्व 2000 का काल था, तथा उससे भी पूर्व भारत में भोजन पकाने की आयुर्वेदिक परम्परा थी। भोजन पकाने की यह आयुर्वेदिक परम्परा इस अवधारणा पर आधारित थी कि हमारे द्वारा भक्ष्य भोजन का हमारे तन के साथ ही साथ मन पर भी समुचित प्रभाव पड़ता है। इस कारण से उस काल में भोजन की शुद्धता पर अत्यधिक ध्यान दिया जाता था। भोजन में षट्‍रस, अर्थात मीठा, खट्टा, नमकीन, तीखा, कसैला एवं कड़वा, के सन्तुलन को भी महत्वपूर्ण माना जाता था।

ईसा पूर्व 1000 के काल में अनेक विदेशी यात्रियों का आगमन होना आरम्भ हो चुका था। इन यात्रियों की अपनी-अपनी अलग-अलग खाना बनाने की पद्धतियाँ हुआ करती थीं जिनका प्रभाव भारतीय पाककला पर पड़ते गया और भारत में खाना बनाने की विभिन्न प्रणालियाँ विकसित होती चली गईं।

ईसा पूर्व 600 में भारत में बौद्ध तथा जैन धर्म का आविर्भाव हुआ और इन धर्मों का समुचित प्रभाव भारतीय पाककला पर भी पड़ा। इस काल में मांस भक्षण तथा लहसुन एवं प्याज से बने भोज्य पदार्थों को त्याज्य मानने की परम्परा बनी।

मौर्य साम्राज्य तथा सम्राट अशोक के काल में, जो कि ईसा पूर्व 400 बौद्ध धर्म अपने चरम विकास पर पहुँचा तथा बौद्ध धर्म का प्रचार विदेशों में भी होने लगा। इस प्रकार से भारत से विदेशों में जाने वाले प्रचारकों के साथ भारतीय पाक प्रणालियाँ विभिन्न देशों में पहुँचती चली गईं। साथ ही उन प्रचारकों के वापस भारत आने पर अन्य देशों की भोजन पद्धतियाँ उनके साथ यहाँ आईं और उनका प्रभाव भारतीय पाककला पर पड़ा।

कहने का तात्पर्य है कि विभिन्न कालों में भारतीय पाककला पर विभिन्न प्रकार के प्रभाव पड़ते रहे तथा उसमें अनेक परिवर्तन होते चले गए। भारत में मुस्लिम साम्राज्य हो जाने पर भारतीय पाककला पर सबसे अधिक प्रभाव मुस्लिम खान-पान का ही पड़ा। उसके पश्चात् भारत में अंग्रेजों का अधिकार हो जाने के कारण भारतीय पाककला पर पश्चिमी प्रकार से खाना बनाने की विधियों का प्रभाव पड़ने लगा। आलू, टमाटर, लाल मिर्च आदि वनस्पतियों का, जिनके विषय में भारत में पोर्तुगीजों तथा अंग्रेजों के आने के पहले जानकारी ही नहीं थी, वर्चस्व भारतीय भोजन में बढ़ने लगा।

इस प्रकार से समय समय में अनेक परिवर्तन होने के कारण आज भारत में विभिन्न प्रकार से भोजन बनाने का प्रचलन है।

Sunday, October 3, 2010

लौंगा इलाइची का बीड़ा बनाया... जानें लौंग के बारे में

लौंग, जिसे कि लवांग के नाम से भी जाना जाता है,  Myrtaceae परिवार से सम्बन्धित एक पेड़ की सूखी कली को कहते हैं जो कि खुशबूदार होता है। दुनिया भर के व्यञ्जनों को बनाने में प्रायलौंग का प्रयोग एक मसाले के रूप में किया जाता है। लौंग का उद्गम स्थान इंडोनेशिया को माना जाता है। लौंग को अंग्रेजी में “क्लोव्ह” clove कहा जाता है जो कि लैटिन के शब्द clavus, जिसका अर्थ नाखून होता है, का अंग्रेजी रूपान्तर है। लौंग के नाखून के सदृश होने के कारण ही उसका यह अंग्रेजी नाम पड़ा। लौंग का उत्पादन मुख्य रूप से इंडोनेशिया, मेडागास्कर, भारत, पाकिस्तान, श्रीलंका आदि देशों में होता है।

लौंग एक सदाबहार पेड़ है जिसकी ऊँचाई 8-12 मीटर तक होती है जिसके पत्ते बड़े-बड़े तथा दीर्घवृताकार होते हैं। लौंग
के पेड़ों के शाखों के अन्तिम छोरों में लौंग के फूल समूह में खिलते हैं। लौंग की कलियों का रंग खिलना आरम्भ होते
समय पीला होता है जो कि धीरे-धीरे हरा होते जाता है और पूर्णतः खिल जाने पर इसका रंग लाल हो जाता है। इन कलियों में चार पँखुड़ियों के मध्य एक वृताकार फल होता है।

हिन्दी के साथ ही साथ उत्तर भारत की अनेक भाषाओं में इसका नाम “लौंग” अथवा “लवांग” है जबकि तेलुगु और मलयालम, जो कि दक्षिण भारतीय भाषाएँ हैं, में इसे क्रमशः “लवांगम” और “ग्राम्पू” के नाम से जाना जाता है।

चूँकि लौंग के प्रयोग से भोजन सुस्वादु हो जाता है, सम्पूर्ण भारत में प्रायः लौंग का प्रयोग विभिन्न प्रकार के व्यञ्जन बनाने में होता है। लौंग को पान के साथ भी खाया जाता है, प्रायः पान के बीड़े में लौंग को खोंस दिया जाता है जिससे बीड़े की सुन्दरता भी बढ़ जाती है। भारत के कुछ क्षेत्रों में बिना लौंग वाला पान बीड़ा देने को अशुभ माना जाता है। लौंग की तासीर गर्म होने के कारण गर्मियों के दिनों में इसका प्रयोग कम किया जाता है। मसाला चाय बनाने के लिए भी लौंग का इस्तेमाल किया जाता है।

चीन और जापान में भी एक खुशबूदार पदार्थ के रूप में लौंग को महत्वपूर्ण माना जाता है।

यूरोप, एशिया और संयुक्त राज्य अमेरिका के कई क्षेत्रों में लौंग का प्रयोग एक प्रकार के सिगरेट, जिसे कि kretek कहा जाता है, बनाने के लिए भी किया जाता है।

आयुर्वेद में लौंग का प्रयोग अनेक प्रकार की आयुर्वेदिक औषधियों के बनाने में भी किया जाता है। लौंग का तेल एक महत्वपूर्ण आयुर्वेदिक औषधि है। चीन के साथ ही साथ पश्चिम के अनेक देशों में हर्बल दवाइयाँ बनाने के लिए लौंग का प्रयोग किया जाता है। लौंग में अनेक प्रकार के औषधीय गुण होते हैं। यह उत्तेजक, पाचक, मुँह के दुर्गंध को रोकने वाला, दंत क्षय का शमन करने वाला है। लौंग में कार्बोहाइड्रेट, प्रोटीन, वाष्पशील तेल, वसा, विटामिन “सी”, विटामिन “ए” जैसे तत्व प्रचुर मात्रा में पाए जाते हैं। अनेक रोगों के निदान के लिए आयुर्वेद में लौंग का प्रयोग चूर्ण, काढ़ा तथा तेल के रूप में किया जाता है।

आपको शायद यह जानकर आश्चर्य हो कि अठारहवीं शताब्दी में ब्रिटेन में लौंग का मूल्य उसके वजन के सोने के बराबर हुआ करता था।