Saturday, December 18, 2010

हम.... याने कि करमहीन खेती करे, बैल मरे या सूखा पड़े

शिरीष के सूखे फल की भाँति, जो कि वृक्ष के फूल-पत्ते झड़ जाने तथा पेड़ के ठूँठ जैसा हो जाने के बावजूद भी, पेड़ से लटकते और खड़खड़ाते ही रहता है, हम भी, साठ साल की उम्र पार कर जाने परवाह न करते हुए, ब्लोगिंग और इंटरनेट के संसार रूपी वृक्ष के सूखे फल बनकर लटके ही हुए हैं। साफ जाहिर है कि "कब्र में पाँव लटक रहा है" फिर भी हम "सींग कटा कर बछड़ों में शामिल" हैं। हमें पता है कि "अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता" और "अकेला हँसता भला न रोता भला", फिर भी हम यह सोचकर कि "जब ओखली में सर दिया तो मूसलों से क्या डरना" अपने ब्लोग में अकेले "अपनी ही हाँके जा रहे हैं" क्योंकि यह ब्लोगिंग हमारे लिए "उगले तो अंधा, खाए तो कोढ़ी" याने कि "साँप के मुँह में छुछूंदर" बनकर रह गई है।

पाँच-छः साल पहले स्वेच्छा से सेवानिवृति लेकर अतिरिक्त आमदनी की आशा लेकर नेट की दुनिया में आए थे, शुरू-शुरू में अंग्रेजी ब्लोगिंग से कुछ कमाई की भी, भले ही वह "ऊँट के मुँह में जीरा" जैसी रही हो। किन्तु बाद में फँस गए हिन्दी ब्लोगिंग के चक्कर में और हमारी "गरीबी में आटा गीला" होने लगा क्योंकि इस चक्कर में फँस जाने के बाद ही हमें पता चला कि "इन तिलों में तेल नहीं है"। अब तो आप समझ ही चुके होंगे कि हम सिर्फ यही कहना चाहते हैं कि "आए थे हरि भजन को, ओटन लगे कपास"। हमारे साथ तो अब तक "करमहीन खेती करे, बैल मरे या सूखा पड़े" जैसी ही स्थिति बनी रही है पर हमने भी सोच लिया है "जितना पावे उतना खावे, ना पावे तो भूखे सो जावे" क्योंकि ये हिन्दी ब्लोगिंग तो हमारे पास "आई है जान के साथ पर जाएगी जनाजे के साथ"। इतना पढ़कर अब तो आप यही सोच रहे होंगे कि अजब सनकी बुड्ढा है ये तो, "अपनी-अपनी ढपली, अपना-अपना राग" वाला।

भले ही हमारा ब्लोग "कहीं की ईंट कहीं का रोड़ा, भानमती ने कुनबा जोड़ा" हो पर हम तो "कर लिया सो काम, भज लिया सो राम" का सिद्धान्त अपना कर अपने इस ब्लोग में पोस्ट पेले ही चले जाएँगे। कभी न कभी तो "अंधे को अंधेरे में बड़ी दूर की सूझी" जैसे हमारा भी कोई पोस्ट आप लोगों को पसंद आएगा ही। हम तो सिर्फ यही जानते हैं कि "अटकेगा सो भटकेगा", और फिर "खाली बनिया क्या करे, इस कोठी का धान उस कोठी में धरे"। हो सकता है "कर सेवा तो खा मेवा" जैसे कभी हिन्दी ब्लोगिंग से आमदनी होना भी चालू हो जाए क्योंकि आप तो जानते ही हैं "बिन माँगे मोती मिले, माँगे मिले न भीख"। पर हमें तो यह भी सोचना पड़ता है कि ऐसा होना हमारे लिए "का वर्षा जब कृषी सुखाने" जैसा न हो जाए क्योंकि वैसा समय आने तक कहीं हम लुढ़क ना चुके हों। पर चिंता करने की कोई बात ही नहीं है क्योंकि "आदमी को ढाई गज कफन काफी है"!

Friday, December 17, 2010

हर कोई यह सोचता है कि मैं संसार को बदल दूँगा

हर कोई यह सोचता है कि मैं संसार को बदल दूँगा पर यह कोई नहीं सोचता कि मैं स्वयं को बदल लूँ।
लियो टॉल्स्टाय

अपनी तुलना इस संसार के किसी अन्य व्यक्ति से कभी भी न करें। यदि आप ऐसा करते हैं तो स्वयं का अपमान करते हैं।
एलेन स्ट्राइक

यदि हम उस व्यक्ति से प्रेम नहीं कर सकते जिसे कि हम देख रहे हैं तो हम भगवान से कैसे प्रेम कर सकेंगे जिन्हें कि हम देख नहीं सकते?
मदर टेरेसा

विजय का अर्थ हमेशा सर्वप्रथम होना नहीं होता बल्कि विजय का अर्थ होता है कि आप किसी काम को पहले से बेहतर ढंग से कर रहे हैं।
बोनी ब्लेयर

मैं यह नहीं कहूँगा कि मैं 1000 बार असफल हुआ बल्कि मैं यह कहूँगा कि असफल होने के 1000 रास्ते हैं।
थामस एडीसन


हर किसी पर विश्वास कर लेना खतरनाक बात है पर उस से भी खतरनाक बात है किसी पर भी विश्वास न करना।
अब्राहम लिंकन

यदि कोई यह समझता है कि उसने अपने जीवन में कभी भी कोई गलती नहीं की है तो इसका मतलब हुआ कि उसने अपने जीवन में कभी भी कुछ नया नहीं किया।
आइंसटीन

विश्वास, वादा, सम्बन्ध और दिल - इन चारों में से कभी किसी को न तोड़ें टूटने पर ये आवाज उत्पन्न नहीं करते सिर्फ अत्यधिक दर्द उत्पन्न करते हैं।
चार्ल्स

Thursday, December 16, 2010

देवनागरी लिपि - पूर्णतः वैज्ञानिक लिपि

शायद आपको पता होगा कि हमारी हिन्दी की वर्णमाला, वास्तव में देवनागरी वर्णमाला, पूर्णतः वैज्ञानिक है। वर्ण या अक्षर ध्वनि को प्रदर्शित करने वाले संकेत होते हैं और देवनागरी वर्णमाला को पूर्णतः ध्वनि की उत्पत्ति के आधार पर ही बनाया गया है। मनुष्य ध्वनि उत्पन्न करने के लिये अर्थात् बोलने के लिये कंठ से होठों तक के तंत्र का प्रयोग करता है और देवनागरी वर्णमाला में इस बात का पूरा ध्यान रखा गया है कि एक ही प्रकार से उत्पन्न होने वाली ध्वनियों का विशेष वर्ग हो।

कंठ से निकलने वाली ध्वनियों को स्वर कहा जाता है और उन ध्वनियों को जिनके उच्चारण के लिये उनके साथ स्वरों का मेल होना आवश्यक होता है व्यंजन कहा जाता है। देवनागरी के स्वर अ, आ इ, ई, उ, ऊ ए, ऐ, ओ, औ, अं तथा अः सीधे कंठ से उत्पन्न होते हैं तथा इनके बोलने में अन्य स्वर तंत्र जैसे कि जीभ, तालू, मूर्धा, होठ आदि का कहीं प्रयोग नहीं होता। इन 12 स्वरों के अतिरिक्त देवनागरी के चार और स्वर ऋ, ॠ, ऌ तथा ॡ हैं जो कि सीधे कंठ से उत्पन्न नहीं होते किन्तु माने स्वर ही जाते हैं। इनमें से अंतिम तीन स्वरों का प्रयोग केवल संस्कृत में ही होता है, इनका प्रयोग हिन्दी में बिल्कुल ही नहीं होता। अन्य लिपियों में भी सीधे कंठ से निकलने वाली ध्वनियों को स्वर (vowel) कहा जाता है जैसे कि अंग्रेजी में a e i o u स्वर (vowel) हैं।

शेष 36 व्यंजन हैं जिन्हें कि उनकी उत्पत्ति के आधार पर आठ वर्गों में बाँटा गया है जो कि नीचे दर्शाये जा रहे हैं

क ख ग घ ङ (क वर्ग)
च छ ज झ ञ (ख वर्ग)
त थ द ध न (त वर्ग)
ट ठ ड ढ ण (ट वर्ग)
प फ ब भ म (प वर्ग)
य र ल व
स श ष ह
क्ष त्र ज्ञ

एक वर्ग के वर्णो के उच्चारण करने पर हर बार ध्वनि तंत्रों की एक ही जैसी क्रिया होती है जैसे कि प वर्ग के वर्णों को बोलने में दोनों होठ आपस में जुड़ कर अलग होंगे।

यहाँ पर यह भी बता देना उचित है कि ड़ तथा ढ़ की गणना देवनागरी के 52 अक्षरों में नहीं होती बल्कि ये संयुक्ताक्षर कहलाते हैं।

देवनागरी लिपि का पूर्णतः वैज्ञानिक आधार पर होने के ही कारण माना जाता है कि यह कम्प्यूटर के लिये सर्वथा उपयुक्त लिपि है किन्तु अक्षरों के अनेकों प्रकार से मेल होने की जटिलता के कारण इस लिपि में कैरेक्टर्स की संख्या का निर्धारण न हो पाने के कारण इसका कम्प्यूटर की भाषा में सही सही प्रयोग हो पाना अभी तक सम्भव नहीं हो सका है।

Wednesday, December 15, 2010

महमूद गजनवी का सत्रह बार आक्रमण - इतिहास का सच या कपोल कल्पना?

हमारा इतिहास हमें बताता है कि महमूद गज़नवी ने सन् 1000-1027 के बीच भारत के राजाओं के साथ 17 बार आक्रमण किया था तथा भारत के पंजाब, मथुरा, गुर्जर आदि विस्तृत क्षेत्रों पदाक्रान्त किया था।

मथुरा किसी अन्य दिशा में है तो सोमनाथ किसी अन्य दिशा में। इसका अर्थ यह हुआ कि महमूद ने चतर्दिक् आक्रमण किया था और जिन क्षेत्रों में उसने आक्रमण किया था वह हजारों मील के दायरे में विस्तीर्ण था। उसके साथ हजारों-लाखों की संख्या में घुड़सवारों के साथ ही पैदलों की सेना थी। उस काल में आज जैसे मोटरयान, रेलयान और वायुयान जैसी सुविधाए उपलब्ध नहीं थीं अर्थात् महमूद की कुछ सेना तो घोड़ों पर चला करती थी और अधिकतर सेना पैदल चला करती थी। अब सवाल यह उत्पन्न होता है कि हजारों मील के क्षेत्र को पार करने के लिए उस पैदल सेना को कितना समय लगा होगा? आखिर उसकी सेना की गति क्या थी? क्या उसकी सेना दिन-रात चौबीसों घंटे चलते ही रहती थी या उन्हें पड़ाव भी डालना पड़ता रहा होगा?

भारत के क्षेत्र उसके लिए अनजाने स्थान थे इसलिए भारत के विभिन्न आक्रमणस्थलों तक पहुँचने के मार्गों का पता लगाने के लिए अवश्य ही उसे अपने जासूसों के साथ ही स्थानीय लोगों की सहायता भी लेनी पड़ती रही होगी। अपने आक्रमण के लिए सहायता पहुँचाने वाले स्थानीय लोग क्या तत्काल प्राप्त हो जाया करते थे? और यदि तत्काल नहीं प्राप्त होते थे तो वैसे लोगों को बहलाने-फुसलाने या खरीदने के लिए उसे कितना समय लगता था?

गज़नी से विभिन्न आक्रमण स्थलो तक के मार्ग भौगोलिक रूप से सिर्फ मैदानी ही नहीं थे जो कि आसानी के साथ पार कर लिए जा सकते हैं, बल्कि उनके मध्य अनेक अगम्य पर्वत-मालाएँ, अथाह जल को कलकल ध्वनि से प्रवाहित करने वाली चौड़ी तथा गहरी नदियाँ, जलरहित, कँटीले कैक्टस के रक्तवर्ण पुष्पों तथा रेत से सुसज्जित विशाल मरुभूमि भी थे। इन दुर्गम पहाड़ों-नदियों-मरुभूमि आदि को वह तथा उसकी सेना कैसे और कितने समय में पार किया करती थी?

मार्ग के मध्य अवश्य ही अनेक छोटे-मोटे राज्य, जागीर आदि भी थे जिनकी सुरक्षा के लिए उनके अपने दुर्ग थे। हो सकता है कि उनमें से अधिकांश ने महमूद के समक्ष समर्पण कर दिया हो, पर कुछ ने अवश्य ही युद्ध किया होगा। उस काल में युद्ध के दौरान अनेक बार दुर्गों को महीनों तक घेरा भी डालना होता था। ऐसे दुर्गों को जीतने के लिए उसकी सेना ने कितने समय तक घेरा डाला होगा?

इतिहास यह भी बताता है कि प्रायः अपनी जीत के पश्चात् वह लूटी अपार सम्पदा को सुरक्षित करने तथा युद्धबन्दियों को गुलाम के रूप में बेचने के लिए वापस गज़नी चला जाया करता था। कुछ काल वहाँ रह कर वह पुनः आक्रमण के लिए भारत आता था। इस प्रकार बार-बार आने-जाने में उसने कितना समय व्यतीत किया होगा?

उस काल की परिस्थितियों तथा सुविधाओं को दृष्टिगत रखते हुए सत्रह बार आक्रमण करने के लिए क्या सत्ताइस-अट्ठाइस वर्षों का समय पर्याप्त है? यदि यह समय पर्याप्त नहीं है तो गज़नी के महमूद द्वारा भारत पर सत्रह बार आक्रमण करना इतिहास का सच है या मात्र कपोल कल्पना?

Tuesday, December 14, 2010

भारत में नापतौल पद्धति

मनुष्य जीवन के लिए नापतौल की बहुत ही महत्वपूर्ण भूमिका है। यह कहना अत्यन्त कठिन है कि नापतौल पद्धति का आविष्कार कब और कैसे हुआ होगा किन्तु अनुमान लगाया जा सकता है कि मनुष्य के बौद्धिक विकास के साथ ही साथ आपसी लेन-देन की परम्परा आरम्भ हुई होगी और इस लेन-देन के लिए उसे नापतौल की आवश्यकता पड़ी होगी। प्रगैतिहासिक काल से ही मनुष्य नापतौल पद्धतियों का प्रयोग करता रहा है। समय मापने के लिए वृक्षों की छाया को नापने चलन से लेकर कोणार्क के सूर्य मन्दिर के चक्र तक अनेक पद्धतियों का प्रयोग किया जाता रहा है।

भारत में विभिन्न कालों में नापतौल की विभिन्न पद्धतियाँ प्रचलित रही हैं। मनुस्मृति के 8वें अध्याय के 403वें श्लोक में कहा गया हैः

राजा को प्रति छः माह पश्चात् भारों (बाटों) तथा तुला (तराजू) की सत्यता सुनिश्चित करके राजकीय मुहर द्वारा सत्यापित करना चाहिए।

इससे स्पष्ट है कि भारत में अत्यन्त प्राचीनकाल से नापतौल की पद्धतियाँ रही हैं। प्रचलित जानकारी के अनुसार सिन्धु घाटी की पुरातात्विक खुदाई में मिले नापतौल के विभिन्न अवशेषों से ज्ञात होता है कि ईसा पूर्व 3000-1500 में सिन्धु घाटी सभ्यता के निवासियों ने मानकीकरण की एक परिष्कृत प्रणाली विकसित किया था। सिन्धु घाटी सभ्यता के इस नापतौल पद्धति को विश्व के प्राचीनतम पद्धतियों में से एक माना जाता है। सिन्धु घाटी सभ्यता की नापतौल प्रणाली कितनी परिष्कृत थी यह इसी से पता चलता है कि उस काल में भवन निर्माण के लिए प्रयोग की जाने वाली ईंटों की लम्बाई, चौड़ाई तथा ऊँचाई की माप सुनिश्चित थी जो कि 4:2:1 के अनुपात में होती थीं।

आज से लगभग 2400 वर्ष पहले चंद्रगुप्त मौर्य काल में भी माप तथा नापतौल के लिए अच्छी प्रकार से परिभाषित पद्धति का प्रयोग किया जाता था तथा राज्य के द्वारा माप के भारों (बाटों) एवं तुला (तराजू) की सत्यता सत्यापिक करने की परम्परा थी। उस काल की प्रणाली के अनुसार भार की सबसे छोटी इकाई एक परमाणु तथा लंबाई की सबसे छोटी इकाई अंगुल थी। लम्बी दूरी के लिए योजन का प्रयोग किया जाता था।

मध्यकाल में मुगल बादशाह अकबर ने भी नापतौल की एकरूप (uniform) प्रणाली विकसित किया था जिसका प्रयोग सम्पूर्ण देश में किया जाता था। अबुल फज़ल रचित आईने अकबरी के अनुसार उस काल में भूमि नापने की इकाई "इलाही गज" हुआ करती थी जो कि वर्तमान 33 इंच से 34 के बराबर थी। वजन नापने की इकाई "सेर" हुआ करता था।

ब्रिटिश काल में अंग्रेजों ने भी देश भर में नापतौल की एकरूप (uniform) प्रणाली विकसित किया वजन की इकाइयाँ मन, सेर, छँटाक, तोला, माशा और रत्ती थीं। भूमि मापने के लिए मील, एकड़, गज, फुट, इंच का प्रयोग किया जाता था। अंग्रेजों के द्वारा विकसित उस प्रणाली का प्रयोग स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद भी सन् 1956 तक होता रहा। सन् 1956 में भारत सरकार ने नापतौल के नए मानक स्थापित किया और देश भर में नापतौल की मीटरिक पद्धति का चलन हो गया।

नीचे नापतौल की कुछ ब्रिटिश पद्धतियों के रूप दिए जा रहे हैं:

वजन

8 रत्ती     = 1 माशा
12 माशा = 1 तोला
5 तोला     = 1 छँटाक
16 छँटाक = 1 सेर
40 सेर = 1 मन

लंबाई

12 इंच = 1 फुट
3 फुट = 1 गज
220 गज = 1 फर्लांग
8 फर्लांग = 1 मील

मुद्रा

4 पैसा = 1 आना
16 आना = 1 रुपया

Monday, December 13, 2010

हिन्दी ब्लोगरों के गुणवत्तादल (Bloggers' Quality Circles)

यद्यपि अन्य भाषाओं, विशेषतः अंग्रेजी भाषा, में ब्लोगिंग की तुलना में हिन्दी ब्लोगिंग का विकास बहुत धीरे हुआ किन्तु यह भी सही है कि हिन्दी ब्लोगिंग अब बड़ी तेजी के साथ पैर पसारते जा रही है। हिन्दी ब्लोगिंग को अब मीडिया भी महत्व देने लगी है। निकट भविष्य में केन्द्र तथा राज्यों के सरकारों को भी हिन्दी ब्लोगिंग को महत्व देने के लिए विवश होना पड़ेगा। हिन्दी ब्लोग्स को अब सर्च इंजिन से भी पाठक प्राप्त होने लग गए हैं तथापि हिन्दी ब्लोग्स के पाठकों की संख्या आज भी बहुत कम है।

देखा जाए तो अंग्रेजी ब्लोगिंग और हिन्दी ब्लोगिंग में बहुत सारे अन्तर हैं किन्तु सबसे बड़ा अन्तर यह है कि जहाँ अंग्रेजी ब्लोगिंग एक आभासी दुनिया (virtual world) के रूप में लोगों के समक्ष आया वहीं हिन्दी ब्लोगिंग एक ब्लोगर परिवार या ब्लोगर समाज के रूप में उभर रहा है। हिन्दी ब्लोगिंग का परिवार या समाज के रूप में उभरने का सबसे बड़ा फायदा यह हुआ है कि देश-विदेश के हिन्दी ब्लोगरों में परस्पर प्रेम बढ़ते जा रहा है और वे एक-दूसरे के सुख-दुःख के सहभागी होते जा रहे हैं। किन्तु इसका एक ऋणात्मक पहलू यह भी है कि हिन्दी ब्लोगरों को पाठकों से जितना जुड़ना चाहिए, उतना वे जुड़ नहीं पा रहे हैं। पोस्ट लेखन के समय जितना ध्यान ब्लोगरों तथा उनसे मिलने वाली टिप्पणियों का रखा जा रहा है, उतना ध्यान पाठकों की रुचि की ओर नहीं दिया जा रहा है और इसीलिए ब्लोगरों के पोस्टों को प्रायः ब्लोगर ही पढ़ते हैं तथा उन्हें सामान्य पाठक नहीं मिल पाते। यदि हम सिर्फ अपनी और अन्य ब्लोगरों की रुचि को ही ध्यान में रखकर पोस्ट लिखेंगे और नेट पर आने वाले लोग क्या चाहते हैं इस बात का ध्यान ही नहीं रखेंगे तो हमें सामान्य पाठक कैसे मिल पाएँगे? ब्लोगरों में परस्पर सौहार्द्र यद्यपि बहुत अच्छी बात है किन्तु ब्लोगरों के लिए एक बड़ी संख्या में सामान्य वर्ग के पाठकों का होना भी अति आवश्यक है।

ब्लोग के रूप में हमें एक बहुत ही सशक्त माध्यम मिला है। ब्लोग में आपके द्वारा लिखे गए पोस्ट को अस्वीकार करके छपने से रोक देने वाला कोई संपादक नहीं है। यहाँ पर आपको अपनी बात कहने से कोई रोक नहीं सकता। आप चाहें तो अपने ब्लोग के माध्यम से देश और समाज को एक नई दिशा दे सकते हैं। आप अपनी भाषा का चतुर्दिक विकास कर सकते हैं। क्या यह दुःख की बात नहीं है कि हमारी भाषा हिन्दी आज भी अपने ही देश में अंग्रेजी की तुलना में दोयम दर्जे की बनी हुई है? हमारे बच्चों को अंग्रेजी की वर्णमाला रटे हुए हैं किन्तु वे हिन्दी की वर्णमाला जानते तक नहीं, वे अंग्रेजी के बारह माह का नाम बता सकते हैं किन्तु भारतीय कैलेण्डर के महीनों नाम नहीं जानते, यहाँ तक कि कभी चौंसठ कहने पर उन्हें पूछना पड़ता है कि चौंसठ का अर्थ "सिक्स्टी फोर" ही होता है न? याने कि हमारे बच्चे हिन्दी की गिनती तक नहीं जानते। हम अपने पोस्ट के माध्यम से सरकार को एक ऐसी शिक्षा नीति बनाने के लिए विवश कर सकते हैं जो अंग्रेजी की अपेक्षा हिन्दी को प्रधानता दे। ऐसा कहने में मेरा मन्तव्य अंग्रेजी का विरोध करना नहीं है, मैं अंग्रेजी तो क्या विश्व के किसी भी भाषा का विरोध कर ही नहीं सकता क्योंकि मेरा मानना है कि सभी भाषाएँ महान हैं। किन्तु मैं अपनी भाषा को अपने ही देश में किसी दूसरी भाषा की तुलना में दोयम दर्जे का होते देखना भी सहन नहीं कर सकता। और मेरा विश्वास है कि हिन्दी के ब्लोगर होने के नाते आप भी मेरे मत से सहमत होंगे। हम अपनी ब्लोगिंग से अपनी भाषा को उच्च स्थान दिला सकते हैं।

विक्रम संवत और शक संवत की अपेक्षा हमारे देश में ग्रैगेरियन कैलेण्डर को ही प्रधानता मिली हुई है। शक संवत को भारतीय पंचांग बनने के लिए ग्रैगेरियन कैलेण्डर का सहारा लेना पड़ता है। हमारे देश की नीतियों ने हमारी ही संस्कृति और सभ्यता को हमारी नजरों में गौण बना कर रख दिया है। आप अपने पोस्ट में इन बातों को उभार कर अपनी संस्कृति और सभ्यता को पुनः उनका स्थान दिला सकते हैं।

आज देश भर में बहुराष्ट्रीय कंपनियों के उत्पाद छाए हुए हैं। साधारण नमक तक हमें दूसरे देश की कम्पनियों से खरीदना पड़ता है। हमारी सरकार की नीति ने ही उन्हें बढ़ावा दे रखा है भारी मुनाफे लेकर अपने उत्पाद बेचकर हमें लूटने के लिए। हमारे देश के कुटीर उद्योग इनके कारण से पंगु हो गए हैं। हम ब्लोगर्स चाहें तो अपने पोस्ट के माध्यम से अपने देश की संपत्ति को दूसरे देशों में लूट कर ले जाने से रोक सकते हैं।

हम ब्लोगर सब कुछ करने में समर्थ हैं किन्तु सब कुछ तभी सम्भव होगा जब हमारे पास पाठकों की विशाल संख्या हो, हम अपने पोस्ट के माध्यम से देश के लाखों-करोड़ों लोगों को प्रभावित कर सकें। हमारे ब्लोग के पाठकों का न होना हमारे लिए एक बहुत बड़ी समस्या है और इस समस्या का निराकरण करने के लिए सबसे अच्छा तरीका होगा हिन्दी ब्लोगरों के गुणवत्ता दल (Bloggers' Quality Circles) बनाना।

क्या है गुणवत्ता दल (Quality Circle)

गुणवत्ता दल उन व्यक्तियों का समूह है जो किसी विशेष क्रिया-कलाप या प्रक्रिया का मूल्यांकन करने, उसकी समस्याओं को समझ कर समस्या-समाधान का प्रयास करते हैं। प्रायः यह समूह स्वयंसेवी व्यक्तियों का होता है। समूह के सदस्यों का कार्य होता है समस्यों को पहचानना, उनका विश्लेषण करना और उनका समाधान ढूँढना। वैसे तो प्रायः गुणवत्ता दलों का गठन संस्था आदि के प्रबंधन की समस्याओं के निराकरण के लिए होता है किन्तु ऐसे लोगों के भी गुणवत्ता दल बनाए जा सकते हैं जो कि एक ही प्रकार के कार्य में रत हों जैसे कि एक ही संस्थान के विद्यार्थियों, एक ही क्षेत्र के उपभोक्ताओं, एक ही मुहल्ले के सदस्यों आदि के गुणवत्ता दल। चूँकि हिन्दी के समस्त ब्लोगर भी एक ही प्रकार के कार्य में रत हैं इसलिए हिन्दी ब्लोगरों के भी गुणवत्ता दल बनाए जा सकते हैं जिनका उद्देश्य हिन्दी ब्लोगिंग की समस्याओं, जैसे कि पाठकों की कमी, किसी प्रकार के आय का न होना, सरकारी विभाग से ब्लोगों को मान्यता तथा विज्ञापनादि दिलवाना आदि, का निराकरण करना हो।

गुणवत्ता दल की अवधारणा

कहा जाता है कि जूता पहनने वाले को ही पता होता है कि जूता कहाँ काटता है, किसी अन्य को इसका पता नहीं होता। इसी प्रकार से एक ही प्रकृति के कार्य में रत व्यक्तियों को ही अपने कार्य की समस्याओं का सही आकलन कर सकते हैं तथा उनका निराकरण कर सकते हैं। समस्या समाधान हेतु किसी एक ही व्यक्ति के प्रयास की अपेक्षा यदि उस समस्या से जुड़ा प्रत्येक व्यक्ति स्वेच्छापूर्वक समस्या का समाधान सुझाए तो वह समाधान अधिक प्रभावशाली और सार्थक होगा। मूलतः यही सिद्धान्त गुणवत्ता दल की परिकल्पना का आधार है।

गुणवत्ता दल का इतिहास

द्वितीय विश्वयुद्ध के पश्चात् जापान के उत्पादों की विश्वनीयता निम्नतम स्तर पर पहुँच गई जिसके परिणामस्वरूप जापान की अर्थ-व्यवस्था चरमरा गई। जापान सरकार ने इस स्थिति से उबरने के लिए सन् 1950 में अमरीकी प्रबंधन विद्वानों डॉ. डेमंग तथा डॉ. जुरान को आमन्त्रित कर सेमिनार करवाए किन्तु उसका भी कुछ अधिक प्रभाव परिलक्षित नहीं हुआ। अन्ततः सन् 1962 में डॉ. इशिकावा ने गुणवत्ता नियन्त्रक दल के विचार को जन्म दिया जो कि समस्याओं के निराकरण में अनअपेक्षित रूप से प्रभावशाली रहा। उस समय उपजी गुणवत्ता दल के सिद्धान्त की उस चिंगारी ने आज दावानल का रूप धारण कर लिया है तथा समस्त विश्व में करोड़ों की संख्या में लोग गुणवत्ता दलों का गठन कर चुके हैं।

मेरा मानना है कि यदि हिन्दी ब्लोगर्स भी गुणवत्ता दलों का गठन करें तो हिन्दी ब्लोगिंग की समस्याओं का आसानी के साथ निराकरण हो सकेगा।

Sunday, December 12, 2010

सौ साल पहले चाँवल और गेहूँ के दाम

यह जानना कि आज से सौ साल पहले याने कि सन् 1910 में अनाजों के दाम क्या थे क्या आपको रोचक नहीं लगेगा? यहाँ प्रस्तुत है आज से सौ साल पहले विभिन्न प्रान्तों के प्रमुख नगरों के अनुसार चाँवल गेहूँ इत्यादि अनाजों के औसत दामः

सन् 1910 में चाँवल के औसत दामः

कलकत्ता (वर्तमान कोलकाता) में - रु.4.890 = (लगभग) 4 रुपये 14 आना 1 पैसा प्रति मन = (लगभग) 2 आना 0 पैसा प्रति सेर = (आज के हिसाब से लगभग) रु.0.13 प्रति कि.ग्रा.

बम्बई (वर्तमान मुम्बई) में - रु.4.396 = (लगभग) 4 रुपये 06 आना 1 पैसा प्रति मन = (लगभग) 1 आना 3 पैसा प्रति सेर = (आज के हिसाब से लगभग) रु.0.11 प्रति कि.ग्रा.

दिल्ली में - रु.5.714 = (लगभग) 5 रुपये 11 आना 2 पैसा प्रति मन = (लगभग) 2 आना 1 पैसा प्रति सेर = (आज के हिसाब से लगभग) रु.0.14 प्रति कि.ग्रा.

इलाहाबाद (तत्कालीन यूनाइटेड प्राव्हिंसेस का प्रमुख शहर) में - रु.4.405 = (लगभग) 4 रुपये 6 आना 2 पैसा प्रति मन = (लगभग) 1 आना 3 पैसा प्रति सेर = (आज के हिसाब से लगभग) रु.0.11 प्रति कि.ग्रा.

पटना (तत्कालीन बिहार तथा उड़ीसा प्रान्त का प्रमुख शहर) में - रु.3.150 = (लगभग) 3 रुपये 2 आना 2 पैसा प्रति मन = (लगभग) 1 आना 1 पैसा प्रति सेर = (आज के हिसाब से लगभग) रु.0.08 प्रति कि.ग्रा.

नागपुर (तत्कालीन सेंट्रल प्राव्हिंसेस की राजधानी) - में रु.3.559 = (लगभग) 3 रुपये 9 आना 0 पैसा प्रति मन = (लगभग) 1 आना 2 पैसा प्रति सेर = (आज के हिसाब से लगभग) रु.0.09 प्रति कि.ग्रा.

रायपुर (तत्कालीन सेंट्रल प्राव्हिंसेस का प्रमुख शहर) में - रु.3.370 = (लगभग) 3 रुपये 6 आना 0 पैसा प्रति मन = (लगभग) 1 आना 2 पैसा प्रति सेर = (आज के हिसाब से लगभग) रु.0.09 प्रति कि.ग्रा.

जबलपुर (तत्कालीन सेंट्रल प्राव्हिंसेस का प्रमुख शहर) - में रु.3.524 = (लगभग) 3 रुपये 8 आना 2 पैसा प्रति मन = (लगभग) 1 आना 2 पैसा प्रति सेर = (आज के हिसाब से लगभग) रु.0.09 प्रति कि.ग्रा.

मद्रास (तत्कालीन मद्रास प्रान्त की राजधानी) में - रु.5.391 = (लगभग) 5 रुपये 6 आना 1 पैसा प्रति मन = (लगभग) 2 आना 1 पैसा प्रति सेर = (आज के हिसाब से लगभग) रु.0.08 प्रति कि.ग्रा

सन् 1910 में गेहूँ के औसत दामः

कलकत्ता (वर्तमान कोलकाता) में - रु.3.953 = (लगभग) 3 रुपये 15 आना 1 पैसा प्रति मन = (लगभग) 1 आना 2 पैसा प्रति सेर = (आज के हिसाब से लगभग) रु.0.09 प्रति कि.ग्रा.

बम्बई (वर्तमान मुम्बई) में - रु.5.882 = (लगभग) 5 रुपये 14 आना 0 पैसा प्रति मन = (लगभग) 2 आना 1 पैसा प्रति सेर = (आज के हिसाब से लगभग) रु.0.14 प्रति कि.ग्रा.

दिल्ली में - रु.3.413 = (लगभग) 3 रुपये 06 आना 2 पैसा प्रति मन = (लगभग) 1 आना 1 पैसा प्रति सेर = (आज के हिसाब से लगभग) रु.0.08 प्रति कि.ग्रा.

इलाहाबाद (तत्कालीन यूनाइटेड प्राव्हिंसेस का प्रमुख शहर) में - रु.3.941 = (लगभग) 3 रुपये 15 आना 0 पैसा प्रति मन = (लगभग) 1 आना 2 पैसा प्रति सेर = (आज के हिसाब से लगभग) रु.0.09 प्रति कि.ग्रा.

पटना (तत्कालीन बिहार तथा उड़ीसा प्रान्त का प्रमुख शहर) में - रु.3.249 = (लगभग) 3 रुपये 4 आना 0 पैसा प्रति मन = (लगभग) 1 आना 1 पैसा प्रति सेर = (आज के हिसाब से लगभग) रु.0.08 प्रति कि.ग्रा.

नागपुर (तत्कालीन सेंट्रल प्राव्हिंसेस की राजधानी) में - रु.3.347 = (लगभग) 3 रुपये 5 आना 2 पैसा प्रति मन = (लगभग) 1 आना 1 पैसा प्रति सेर = (आज के हिसाब से लगभग) रु.0.08 प्रति कि.ग्रा.

रायपुर (तत्कालीन सेंट्रल प्राव्हिंसेस का प्रमुख शहर) - में रु.3.387 = (लगभग) 3 रुपये 6 आना 1 पैसा प्रति मन = (लगभग) 1 आना 1 पैसा प्रति सेर = (आज के हिसाब से लगभग) रु.0.08 प्रति कि.ग्रा.

जबलपुर (तत्कालीन सेंट्रल प्राव्हिंसेस का प्रमुख शहर) - में रु.3.460 = (लगभग) 3 रुपये 7 आना 1 पैसा प्रति मन = (लगभग) 1 आना 2 पैसा प्रति सेर = (आज के हिसाब से लगभग) रु.0.09 प्रति कि.ग्रा.

मद्रास (तत्कालीन मद्रास प्रान्त की राजधानी) में - आँकड़ा उपलब्ध नहीं

(मूल आँकड़े डिजिटल साउथ एशिया लाइब्रेरी से साभार)

उपरोक्त आँकड़ों से स्पष्ट है कि आज से सौ साल पहले और आज के चाँवल और गेहूँ के दामों में लगभग साढ़े तीन सौ गुना अन्तर है।