Friday, February 25, 2011

प्राचीन भारत में परमाणु विस्फोट

आदिकाल से प्रकृति सदैव सृजन का कार्य करती रही है और मानव विनाश का। मानव के द्वारा किए गए गए विनाश की भयावहता की कोई सीमा नहीं है। मनुष्य मनुष्य का विनाश करता है, भाई भाई का ही वध करता है। महाभारत का युद्ध आखिर भाइयों के बीच ही तो युद्ध था जिसमें उन्होंने एक दूसरे का अत्यन्त भयावह विनाश किया। वह विनाश कितना भयावह था इसका अनुमान महाभारत के निम्न स्पष्ट वर्णन से लगाया जा सकता हैः
अत्यन्त शक्तिशाली विमान से ब्रह्माण्ड की शक्ति से युक्त शस्त्र प्रक्षेपित किया गया।

धुएँ के साथ अत्यन्त चमकदार ज्वाला, जिसकी चमक दस हजार सूर्यों के चमक के बराबर थी, का अत्यन्त भव्य स्तम्भ उठा।

वह वज्र के समान अज्ञात अस्त्र साक्षात् मृत्यु का भीमकाय दूत था जिसने वृष्ण और अंधक के समस्त वंश को भस्म करके राख बना दिया।

उनके शव इस प्रकार से जल गए थे कि पहचानने योग्य नहीं थे। उनके बाल और नाखून अलग होकर गिर गए थे।

बिना किसी प्रत्यक्ष कारण के बर्त टूट गए थे और पक्षी सफेद पड़ चुके थे।

कुछ ही घण्टों में समस्त खाद्यपदार्थ संक्रमित होकर विषैले हो गए ....

उस अग्नि से बचने के लिए योद्धाओं ने स्वयं को अपने अस्त्र-शस्त्रों सहित जलधाराओं में डुबा लिया।
अब यदि उपरोक्त वर्णन दृश्य रूप देकर उसकी तुलना यदि हिरोशिमा और नागासाकी में परमाणु विष्फोट के दृश्य से किया जाए तो स्पष्ट रूप से दोनों में पूर्ण साम्य दृष्टिगत होता है।

तो क्या महाभारत के युद्ध में परमाणु प्रक्षेपास्त्र का प्रयोग हुआ था? यदि हम अपने समस्त पूर्वाग्रहों को त्यागकर अपनी बुद्धि प्रयोग करें तो हम निर्णायक रूप से कह सकते हैं कि महाभारत के युद्ध में परमाणु प्रक्षेपास्त्र का प्रयोग अवश्य ही हुआ था।


रामायण में भी ऐसे आग्नेय अस्त्रों का विवरण मिलता है जो निमिष मात्र में सम्पूर्ण पृथ्वी का विनाश कर सकते थे और उनके द्वारा विनाश के दृष्य का वर्णन पूरी तरह से आज के परमाणु विनाश के दृष्य से साम्य रखता है। हमारे प्राचीन ग्रंथों में वर्णित ब्रह्मास्त्र, आग्नेयास्त्र जैसे अस्त्र अवश्य ही परमाणु शक्ति से सम्पन्न थे। किन्तु हम स्वयं ही अपने प्राचीन ग्रंथों में वर्णित विवरणों को मिथक मानते हैं और उनके आख्यान तथा उपाख्यानों को कपोल कल्पना। हमारा ऐसा मानना केवल हमें मिली दूषित शिक्षा का परिणाम है जो कि, अपने धर्मग्रंथों के प्रति आस्था रखने वाले पूर्वाग्रह से युक्त, पाश्चात्य विद्वानों की देन है। पता नहीं हम कभी इस दूषित शिक्षा से मुक्त होकर अपनी शिक्षानीति के अनुरूप शिक्षा प्राप्त कर भी पाएँगे या नहीं।

प्राचीन भारत में परमाणु विस्फोट के अन्य और भी अनेक साक्ष्य मिलते हैं। राजस्थान में जोधपुर से पश्चिम दिशा में लगभग दस मील की दूरी पर तीन वर्गमील का एक ऐसा क्षेत्र है जहाँ पर रेडियोएक्टिव्ह राख की मोटी सतह पाई जाती है। वैज्ञानिकों ने उसके पास एक प्राचीन नगर को खोद निकाला है जिसके समस्त भवन और लगभग पाँच लाख निवासी आज से लगभग 8,000 से 12,000 साल पूर्व किसी परमाणु विस्फोट के कारण नष्ट हो गए थे। एक शोधकर्ता के आकलन के अनुसार प्राचीनकाल में उस नगर पर गिराया गया परमाणु बम जापान में सन् 1945 में गिराए गए परमाणु बम की क्षमता के बराबर का था।

मुंबई से उत्तर दिशा में लगभग 400 कि.मी. दूरी पर स्थित लगभग 2,154 मीटर की परिधि वाला एक अद्भुत विशाल गढ़ा (crater), जिसकी आयु 50,000 से कम आँकी गई है, भी यही इंगित करती है कि प्राचीन काल में भारत में परमाणु युद्ध हुआ था। शोध से ज्ञात हुआ है कि यह गढ़ा (crater) पृथ्वी पर किसी 600.000 वायुमंडल के दबाव वाले किसी विशाल के प्रहार के कारण बना है किन्तु  इस गढ़े (crater) तथा इसके आसपास के क्षेत्र में उल्कापात से सम्बन्धित कुछ भी सामग्री नहीं पाई जाती। फिर यह विलक्षण गढ़ा (crater) आखिर बना कैसे? सम्पूर्ण विश्व में यह अपने प्रकार का एक अकेला गढ़ा (crater) है।



हड़प्पा और मोहनजोदड़ो की खुदाई में भी ऐसे स्थान मिले हैं जहाँ पर मानवों की अस्थियों के इस प्रकार के ढाँचे पाए गए हैं मानो वे भय और दहशत के कारण हाथ उठाकर दौड़ते हुए मरे हों। वहाँ के एक स्थान पर एक सोवियत विद्वान ने मनुष्य की अस्थि का एक ऐसा ढाँचा प्राप्त किया है जो कि सामान्य से पचास गुना अधिक रेडियोएक्टिव्ह है। ऐसा प्रतीत होता है कि सिंधु घाटी सभ्यता का विनाश भी किसी परमाणु विस्फोट के कारण ही हुआ था।

Thursday, February 24, 2011

पर पत्नी को नाराज भी तो नहीं कर सकते....


यदि आपने कल का हमारा पोस्ट पढ़ा है तो आज के पोस्ट का शीर्षक पढ़ कर अवश्य ही आप सोच रहे होंगे कि हमारी श्रीमती जी ने जरूर हमारी खिंचाई की है और अब हमने उन्हें खुश करने के लिए यह पोस्ट लिखा है। हम जानते हैं कि आप कभी गलत नहीं सोच सकते इसलिए बताए देते हैं कि कल इधर पोस्ट प्रकाशित हुआ और उधर पड़ोस से वे वापस आईं। पूरा पोस्ट पढ़ लिया। अब वे इतनी कमअक्ल तो वे हैं नहीं कि सब कुछ पढ़ लेने के बाद भी न समझें कि उनपर भरपूर आक्षेप हुआ है। आखिर पुराने जमाने की ग्रेजुएट हैं भइया।

अब इससे पहले कि वे रौद्ररूप धारण करके कहना आरम्भ करें कि “हे आर्यपुत्र! इस ब्लोगिंग ने आपकी बुद्धि को भ्रष्ट कर दिया है। आप विक्षिप्त होते जा रहे हैं....." आदि आदि, हमने भी उनके क्रोध को शान्त करने का तरीका सोच लिया। आखिर पत्नी को नाराज भी तो नहीं किया जा सकता न! यदि नाराज होकर वे हमें छोड़कर तत्काल मायके चले जाएँ तो हो गई ना हमारी छुट्टी। जब साक्षात् भगवान विष्णु के अवतार श्री रामचन्द्रजी पत्नी वियोग से दुःखी रहे तो हमारे जैसे लोगों की क्या औकात है कि पत्नी के बिना चैन से रह पायें?

किन्तु कई बार ऐसा भी होता है कि पत्नी अपने पति पर कभी डायरेक्ट आक्षेप नहीं करती। जैसे कि पत्नी यदि हँसे वहाँ तक तो ठीक है पर यदि मुख पर आँचल दे के हँसे तब तो फिर ऊपर वाला ही मालिक है। समझ लीजिये कि आपकी पूरी किरकिरी हो चुकी है या फिर होने वाली है। अब देखिये न, माता पार्वती जी भी तो अपने स्वामी भगवान शंकर के सम्मुख मुख में आँचल दे कर हँस रही हैं:

"भभूत लगावत शंकर को अहि-लोचन मध्य परौ झरि कै।
अहि की फुँफकार लगी शशि को तब अमृत बूँद गिरौ चिरि कै।
तेहि ठौर रहे मृगराज तुचाधर तब गर्जत भे वे चले उठि कै।
सुरभी सुत वाहन भाग चले तब गौरि हँसीं मुख आँचल दै॥"


अर्थात् पार्वती जी के द्वारा भगवान शंकर के ललाट में भभूत लगाते समय जरा सा भभूत झर कर (शिव जी के वक्ष से लिपटे हुये सर्प की आँखों में) पड़ा। (आँखों में भभूत पड़ जाने के कारण निकली हुई) सर्प की फुँफकार (भगवान शंकर के माथे में शोभित) चन्द्रमा को लगी और (फुँफकार लगने से चन्द्रमा के काँप जाने से उसके भीतर स्थित) अमृत बूँद छलक कर गिरा। वहाँ पर (शिव जी के आसन के रूप में) मृगचर्म था जो कि (गिरे हुये अमृत के प्रभाव से जीवित होकर) उठ कर गर्जना करते हुये चला। (सिंह की गर्जना सुन कर) गाय का पुत्र बैल जो कि शंकर जी का वाहन है भागा तब गौरी जी अपने मुख पर आँचल दे कर हँसीं। (मानो कह रही हों देखो मेरे वाहन से डर कर आपका वाहन कैसे भाग रहा है! - पार्वती जी का एक रूप दुर्गा होने से सिंह उनका वाहन हुआ।)

तो साहब, हँसी-ठिठोली, हास-परिहास। घात-प्रतिघात, ब्याज-स्तुति, ब्याज-निंदा तो चलते ही रहते हैं। ये सब न हों तो जीवन में रस ही क्या रह जाता है?

एक बात तो माननी ही पड़ेगी, पत्नी चाहे पति को गुलाम बनाये या चाहे पति की गुलामी करे, होती वह सच्चा साथी है। जीवन के सारे सुख-दुःख में साथ निभाने वाली। वैसे भी जग विदित है कि संसार में निस्वार्थ भाव से सिर्फ दो लोग ही साथ निभाते हैं और वे हैं (1) माँ और (2) पत्नी। माँ का साथ तो पत्नी के साथ की अपेक्षा स्वाभाविक रूप से कम कम ही मिल पाता है अतः जीवन के अन्तिम क्षणों तक साथ केवल पत्नी ही निभाती है। तो बन्धु, पत्नी पुराण की नसीहत को याद रखकर यदि आप पत्नी से मधुर सम्बन्ध बनाये रखेंगे तो मैं गारंटी के साथ कह सकता हूँ कि हमेशा सुखी ही रहेंगे।

'अवधिया' या संसार में, मतलब के सब यार।
पत्नी ही बस साथ दे, बाकी रिश्ते बेकार॥

(नोटः मूलतः हम कवि नहीं हैं इसलिए उपरोक्त दोहे में मात्रा की गलती हमारे लिए क्षम्य है, हम जानते हैं कि दोहे के प्रथम और तृतीय चरणों में तेरह-तेरह और द्वितीय तथा चतुर्थ चरणों में ग्यारह-ग्यारह मात्राएँ होनी चाहिए किन्तु हमारे इस दोहे के प्रथम और तृतीय चरणों में चौदह-बारह और द्वितीय तथा चतुर्थ चरणों में ग्यारह-बारह मात्राएँ हैं।)

Wednesday, February 23, 2011

जरूरी तो नहीं कि प्रत्येक पति जोरू का गुलाम हो

अब पत्नी चाहे अवधिया जी की हो, चाहे पात्रो जी की हो, चाहे गुप्ता जी की हो या चाहे किसी अन्य व्यक्ति की हो, सभी में एक समानता तो जरूर पाई जाती है। वे सभी चाहती हैं कि अपने पति को अपनी मुट्ठी में ही रखें। और 99.99% पत्नियाँ अपने इस उद्देश्य में सफल रहती हैं। आप पूछेंगे कि 0.01% क्यों सफल नहीं हो पातीं? तो भैया अब यदि हम पत्नी पुराण लिखने बैठे हैं तो तो क्या 100% पतियों को जोरू का गुलाम बना दें? अरे नहीं भइ, ये पतियों के प्रति एकदम अन्याय हो जायेगा। हम समझते हैं कि कम से कम 0.01% पतियों को भी इस बात का श्रेय दिया जाये कि वे इस तथ्य को अच्छी प्रकार से समझते हैं कि उनकी पत्नियाँ उन्हें अपनी मुट्ठी में रखना चाहती हैं और वे बचने के लिये स्वयं पर इतनी चिकनाई लगा कर रखते हैं कि मुट्ठी में आते ही वे फिसल के बाहर निकल आयें।

हम जानते हैं कि दूसरा प्रश्न आपके दिमाग में कुलबुला रहा है और आप पूछेंगे कि लेखक की पत्नी किस श्रेणी में आती हैं, 99.99% वाली श्रेणी में या 0.01% वाली में? तो जवाब सुन कर खुश हो जाइये कि वे भी उसी श्रेणी में आती हैं जिस श्रेणी में आपकी श्रीमती जी आती हैं। अब आप इससे अधिक खुलासा करने के लिये मत आग्रह कीजियेगा क्योंकि यदि आप आग्रह करेंगे भी तो हम इससे अधिक खुलासा नहीं करने वाले।

मूलतः पत्नियाँ दो प्रकार की होती हैं पहला पति को गुलाम बना कर रखने वाली और दूसरा पति की गुलामी करने वाली। पहला प्रकार बहुतायत से पाया जाता है और दूसरा प्रकार लुप्तप्राय हो रहा है। हमें तो लगता है कि कुछ ही अरसे में दूसरा प्रकार पूरी तरह से लुप्त हो जायेगा। दूसरे प्रकार के लुप्त होने में ज्यादा योगदान आजकल के सिस्टम का ही है। पहले जाति के आधार पर बने मुहल्लों में रहने का सिस्टम था पर अब आधुनिक कालोनियों में रहने का सिस्टम हो गया है जहाँ पर अधिकांशप्राय अपने ही विभाग के सहकर्मी लोग रहा करते हैं। अब देखिये ना जब हम अपने पुराने मुहल्ले में रहते थे तो मंहगाई भत्ते का एरियर्स, बोनस आदि की राशि को बड़े मजे के साथ खुद डकार जाया करते थे, पत्नी को हवा तक नहीं लगती थी। पर जबसे हमने अपने विभाग वाली कालोनी में आकर रहना शुरू किया है ऐसा बिल्कुल नहीं कर पाते। हमारे पड़ोसी सहकर्मी की श्रीमती जी पहले ही आकर हमारी पत्नी को बता जाती हैं कि उन्हें उनके पति ने बताया है कि एक दो दिन में ही मंहगाई भत्ते के एरियर्स का पेमेन्ट होने वाला है। और हमारे आफिस से आते ही पत्नी का पहला प्रश्न होता है, "मंहगाई भत्ते का एरियर्स मिल गया क्या?" तो इस आधुनिक सिस्टम ने हमारी पत्नी को पहले प्रकार से निकाल कर दूसरे प्रकार में ला दिया है।

कालोनी में आने के शुरुवाती दौर में हम प्रत्येक इतवार को अपने माता-पिता (जो आज भी पुराने मुहल्ले में रहते हैं) से मिलने चले जाया करते थे। पर आजकल हमें हर इतवार को पत्नी के साथ उनके मायके अर्थात् अपनी ससुराल में जाना पड़ता है क्योंकि कालोनी के अधिकांश निवासियों के द्वारा इसी प्रथा को निभाया जाता है। जब कालोनी के सभी परिवारों में यही रिवाज है तो क्या हमारी पत्नी इस रिवाज से दूर रह कर कालोनी में अपमानित होना पसंद करेंगीं?

पत्नियों के इन दो मूल प्रकारों से हट कर एक और प्रकार की पत्नी भी कभी हुआ करती थीं जो अपने पति को कह देती थीं:

"लाज न आवत आपको, दौरे आयहु साथ।
धिक् धिक् ऐसे प्रेम को, कहा कहौं मैं नाथ॥
अस्थिचर्ममय देह यह, ता पर ऐसी प्रीति।
तिसु आधो रघुबीरपद, तो न होति भवभीति॥"

पर साहब, पत्नी का वह प्रकार एक अपवाद था।

लिखना तो अभी और भी बहुत कुछ चाहता था पर फिलहाल यहीं समाप्त करना पड़ रहा है क्योंकि पत्नी का पड़ोस से वापस आने का समय हो गया है। चलिये बाकी बातें किसी और दिन लिख देंगे यदि पत्नी ने इजाजत दी तो।

Tuesday, February 22, 2011

संविधान की बन्दिनी


(स्व. श्री हरिप्रसाद अवधिया रचित कविता)

अशोक वाटिका में बन्दिनी सीता-
सहमी थी राक्षसियों से घिरी हुई,
आज हिन्दी बन्दिनी है संविधान में,
अन्य भाषाओं की हुंकार से डरी हुई।

हिन्दी जब संविधान की बन्दिनी नहीं थी-
तब अरबी-फारसी ने उसे खूब नोचा
फिर गौरांगिनी अंग्रेजी ने-
उसे जी भर कर दबोचा।
आज भी अंग्रेजी हिन्दी को निगल रही है
इसी बहाने भारतीयों की मूर्खता उगल रही है।

उन दिनों-
नागरी प्रचारिणी जैसी हिन्दी संस्थाओं ने
हिन्दी के उद्धार का बीड़ा उठाया था-
सतत् अथक परिश्रम के श्रम कण से
राष्ट्रभाषा हिन्दी को आगे बढ़ाया था।

पर आज, शासन की कैद में पा कर हिन्दी को
हिन्दी संस्थाएँ भी मौन हैं,
समझ में नहीं आता कि
राष्ट्रभाषा को उसका उचित स्थान
दिलाने वाला कौन है!

हम अन्य भाषा भाषियों पर दोष मढ़ते हैं
पर हम हिन्दी के हिमायती कान्वेण्ट प्रेमी
हिन्दी का गहन अध्ययन कब करते हैं!
'हिन्दी का व्याकरण नहीं है' सुनकर भी,
हिन्दी भाषियों की शर्म नहीं जागती-
और हमारे अंग्रेजी प्रेम की श्रद्दा नहीं भागती।

संविधान की बन्दिनी हिन्दी देवकी का
हिन्दी उद्धारक कृष्ण कब अवतरेगा,
और हिन्दी में गम्भीर विचारों से
राष्ट्र का कोना-कोना कब भरेगा?
हिन्दी विरोधियों का वर्तमान राष्ट्र विरोध,
किस शुभ घड़ी में मरेगा?

हमारे शासकीय कार्यालयों में ही,
जब हिन्दी का प्रयोग नहीं होता है,
तब हम यही जानते हैं कि राष्ट्र में,
हिन्दी प्रचार का राजकीय प्रयोग
खर्राटे ले कर कुम्भकर्णी नींद सोता है।

कौन जाने कब वह मुहूर्त आवेगा
जब कट्टरता से हिन्दी में शासन चलेगा,
या फिर हमारे हृदयों में
निकम्मे संविधान का सम्मान जलेगा।
निकम्मे संविधान का सम्मान जलेगा।

(रचना तिथिः शनिवार 16-09-1986)

Monday, February 21, 2011

राष्ट्रभाषा के उद्‍गार

(स्व. श्री हरिप्रसाद अवधिया रचित कविता)

मैं राष्ट्रभाषा हूँ -
इसी देश की राष्ट्रभाषा, भारत की राष्ट्रभाषा

संविधान-जनित, सीमित संविधान में,
अड़तिस वर्षों से रौंदी एक निराशा
मैं इसी देश की राष्ट्रभाषा।
तुलसी, सूर, कबीर, जायसी,
मीरा के भजनों की भाषा,
भारत की संस्कृति का स्पन्दन,
मैं इसी देश की राष्ट्रभाषा।

स्वाधीन देश की मैं परिभाषा-
पर पूछ रही हूँ जन जन से-
वर्तमान में किस हिन्दुस्तानी
की हूँ मैं अभिलाषा?
मैं इसी देश की राष्ट्रभाषा।

चले गये गौरांग देश से,
पर गौरांगी छोड़ गये
अंग्रेजी गौरांगी के चक्कर में,
भारत का मन मोड़ गये
मैं अंग्रेजी के शिविर की बन्दिनी
अपने ही घर में एक दुराशा
मैं इसी देश की राष्ट्रभाषा।

मान लिया अंग्रेजी के शब्द अनेकों,
राष्ट्रव्यापी बन रुके हुये हैं,
पर क्या शब्दों से भाषा निर्मित होती है?
तब क्यों अंग्रेजी के प्रति हम झुके हये हैं?
ले लो अंग्रेजी के शब्दों को-
और मिला दो मुझमें,
पर वाक्य-विन्यास रखो हिन्दी का,
तो, वो राष्ट्र! आयेगा गौरव तुझमें।

'वी हायस्ट नेशनल फ्लैग एण्ड सिंग
नेशनल सांग के बदले
अगर बोलो और लिखो कि
हम नेशनल फ्लैग फहराते-
और नेशनल एन्थीम गाते हैं-
तो भी मै ही होउँगी-
नये रूप में भारत की राष्ट्रभाषा
मैं इसी देश की राष्ट्रभाषा।

मैं हूँ राष्ट्रभाषा
मैं इसी देश की राष्ट्रभाषा।

(रचना तिथिः गुरुवार 15-08-1985)