Saturday, March 19, 2011

मोहे रहि-रहि मदन सतावै पिया बिना नींद नहिं आवै

टेसू के पेड़ों ने अपने पत्र-पल्लव के वस्त्रों को त्याग कर रक्तवर्ण पुष्प-गुच्छों से अपना श्रृंगार कर लिया है। सेमल के गगनचुम्बी वृक्षों पर भी पत्तों के स्थान पर केवल लाल-लाल फूल ही दृष्टिगत होने लगे हैं। खेतो ने सरसों के पीतवर्ण फूलों से स्वयं को आच्छादित कर लिया है। आसमान भी पीले-पीले पतंगों से सुसज्जित हो गया है। जिस तरफ भी दृष्टि जाती है, वसन्त की छटा ही दिखाई पड़ती है। वसन्त का यह सौन्दर्य समस्त संज्ञायुक्त तथा संज्ञाहीन चर-अचर प्राणियों को अपनी मर्यादा त्याग कर काम के वशीभूत होने के लिए विवश कर रहा है। वृक्षों की डालियाँ लताओं की और झुकने लगीं हैं और नदियाँ उमड़-उमड़ कर समुद्र की ओर दौड़ने लगीं हैं। जहाँ प्रेमी-युगल अति प्रसन्न हैं वहीं एक विरहन, जिसका प्रिय परदेस में है, अपनी व्यथा से व्यथित हैः

नींद नहि आवै पिया बिना नींद नहि आवै।
मोहे रहि-रहि मदन सतावै पिया बिना नींद नहि आवै॥

सखि लागत मास असाढ़ा, मोरे प्रान परे अति गाढ़ा,
अरे वो तो बादर गरज सुनावै, परदेसी बलम नहि आवै।
पिया बिना नींद नहि आवै॥

सखि सावन मास सुहाना, सब सखियाँ हिंडोला ताना,
अरे तुम झूलव संगी-सहेली, मैं तो पिया बिना फिरत अकेली।
पिया बिना नींद नहि आवै॥

सखि भादों गहन गंभीरा, मोरे नैन बहे जल-नीरा,
अरे मैं तो डूबत हौं मँझधारे, मोहे पिया बिना कौन उबारे।
पिया बिना नींद नहि आवै॥

सखि क्वाँर मदन तन दूना, मोरे पिया बिना मन्दिर सूना,
अरे मैं तो का से कहौं दुःख रोई, मैं तो पिया बिना सेज ना सोई।
पिया बिना नींद नहि आवै॥

सखि कातिक मास देवारी, सब दियना बारै अटारी,
अरे तुम पहिरौ कुसुम रंग सारी, मैं तो पिया बिना फिरत उघारी।
पिया बिना नींद नहि आवै॥

सखि अगहन अगम अंदेसू, मैं तो लिख-लिख भेजौं संदेसू,
अरे मैं तो नित उठ सुरुज मनावौं, परदेसी पिया को बुलावौं।
पिया बिना नींद नहि आवै॥

सखि पूस जाड़ अधिकाई, मोहे पिया बिन सेज ना भाई,
अरे मोरे तन-मन-जोबन छीना, परदेसी गवन नहि कीन्हा।
पिया बिना नींद नहि आवै॥

सखि माघ आम बौराए, चहुँ ओर बसंत बिखराए,
अरे वो तो कोयल कूक सुनावै, मोरे पापी पिया नहिं आवै।
पिया बिना नींद नहि आवै॥

सखि फागुन मस्त महीना, सब सखियन मंगल कीन्हा,
अरे तुम खेलव रंगे गुलालै, मोहे पिया बिना कौन दुलारै।
पिया बिना नींद नहि आवै॥

मोहे रहि-रहि मदन सतावै पिया बिना नींद नहि आवै॥
पिया बिना नींद नहि आवै॥

Wednesday, March 16, 2011

हरि को नचन सिखावैं राधा प्यारी

जहाँ हिन्दी भक्ति साहित्य को गोप-गोपियों, ग्वालों और कृष्ण के आत्मिक प्रेम का वर्णन रसमय बनाता है, वहीं उनका यह अलौकिक प्रेम फागुन के महीने में होली के माहौल को एक अद्भुत मस्ती भी प्रदान करता है। यदि भक्त-कवियों द्वारा रचित भजनों में इस अलौकिक प्रेम का वर्णन श्रोता के भीतर श्रद्धा और भक्ति के भाव उत्पन्न करते हैं तो 'बैजनाथ', 'पल्टू हीरामन', 'चन्द्रसखी' जैसे फाग-गीतकारों द्वारा रचित फागों में वही वर्णन भंग की तरंग और होली के माहौल से मस्त होकर फाग-गीत गाने तथा सुनने वालों को ऐसी मस्ती से भर देता है कि उनके पग अनायास ही ताल-धमाल की थाप सुनते ही धिरकने लग जाते हैं।

'बैजनाथ' की रचना तो कृष्ण को सीधे-सीधे "मन का काला" ही करार देता हैः

मिला बन में मुरलियावाला सखी, मिला बन में मुरलिया वाला सखी।

कोई कहे देखो मोहन हैं आए,
कोई कहे नन्दलाला सखी।
मिला बन में मुरलिया वाला सखी।

धर पिचकारी खड़े ग्वाल सब
कोई धरे है गुलाला सखी।
मिला बन में मुरलिया वाला सखी।

सारी साड़ी मेरो भिगोए,
देखो नन्द का लाला सखी।
मिला बन में मुरलिया वाला सखी।

'बैजनाथ' कहे श्याम सलोना,
लेकिन मन का काला सखी।
मिला बन में मुरलिया वाला सखी।

और 'पल्टू हीरामन' लिखते हैं

होरी खेलत घनश्यामा बिरिज में होरी खेलत घनश्यामा।

श्याम के संग में सकल पदारथ,
राधा के संग सुख-सामां।
बिरिज में होरी खेलत घनश्यामा।

श्याम के संग में गोकुल के ग्वाला,
राधा के संग बृजवामा।
बिरिज में होरी खेलत घनश्यामा।

'पल्टू हीरामन' रंग उड़े रे,
लाल भए गोकुल ग्रामा।
बिरिज में होरी खेलत घनश्यामा।

इसी प्रकार से 'चन्द्रसखी' बताते हैं कि किस प्रकार से कृष्ण को राधा ने नृत्य सिखायाः

नचन सिखावैं राधा प्यारी हरि को नचन सिखावैं राधा प्यारी।

जमुना पुलिन निकट वंशीवट,
शरद रैन उजियारी।
हरि को नचन सिखावैं राधा प्यारी।

रूप भरे गुन छड़ी हाथ लिए,
डरपत कृष्ण मुरारी।
हरि को नचन सिखावैं राधा प्यारी।

'चन्द्रसखी' भजु बालकृष्ण छवि,
हरि के चरण बलिहारी।
हरि को नचन सिखावैं राधा प्यारी।

धन्य है यह गोप-गोपियों, ग्वालों और श्री कृष्ण का अद्भुत, अलौकिक और आत्मिक प्रेम!

Monday, March 14, 2011

भारत को भारत रहने दो

(स्व. श्री हरिप्रसाद अवधिया रचित कविता)

तुलसी का सन्देश यही है
सियारम मय जग को जानो,
अपने भीतर सबको देखो
सबमें अपने को पहचानो।

स्वाति बूंद है राम रमापति
उसके हित चातक बन जावो,
आत्म-शक्ति जागेगी तुममें
राम-भक्त जो तुम हो जावो।

भौतिकता में रावण पलता
आध्यात्मिकता में श्री राम,
राम-राज का सुख चाहो तो
मत जगने दो मन में काम।

काम-अर्थ के चक्कर में तुम
धर्म-मोक्ष को भूल गये हो,
अति अनाचार के झूले में
रावण के संग झूल गये हो।

"मानस" पढ़ कर निज मानस में
तुलसी की ही स्मृति जगने दो,
आदर्श राम का जागृत कर
भारत को भारत रहने दो

(रचना तिथिः 04-08-1995)