Saturday, October 29, 2011

"घास खोद रहा हूँ - इसी को अंग्रेजी में रिसर्च कहते हैं" - श्रीलाल शुक्ल

व्यंग और कटाक्ष के माध्यम से कटुसत्य उघाड़ कर रख देना हर किसी के बस की बात नहीं है। श्रीलाल शुक्ल इसी विधा के धनी थे। लोकहित और प्रजातन्त्र के नाम पर आज जो राजनीतिक संस्कृति फल-फूल रही है, उसे एक छोटे से कस्बे शिवपालगंज की पंचायत, वहाँ के कॉलेज प्रबन्धन समिति और कोऑपरटिव्ह सोसाइटी के सूत्रधार वैद्यजी का रूप देकर अत्यन्त सरलता के साथ प्रस्तुत कर देने जैसा कार्य शुक्ल जी के विलक्षण व्यंग लेखन का अद्वितीय उदाहरण है। उनका लेखन भारतीय ग्राम्य तथा नगरीय जीवन के नैतिक पतन, स्वार्थपरता और मूल्यहीनता को परत-दर-परत उघाड़ कर रख देता है।

इस देश के नियम और कानून को दर्शाते हुए वे लिखते हैं -

"स्टेशन-वैगन से एक अफसरनुमा चपरासी और एक चपरासीनुमा अफसर उतरे। खाकी कपड़े पहने हुये दो सिपाही भी उतरे। उनके उतरते ही पिंडारियों-जैसी लूट खसोट शुरू हो गयी। किसी ने ड्राइवर का ड्राइविंग लाइसेंस छीना, किसी ने रजिस्ट्रेशन-कार्ड; कोई बैक व्ह्यू मिरर खटखटाने लगा, कोई ट्रक का हार्न बजाने लगा। कोई ब्रेक देखने लगा। उन्होंने फुटबोर्ड हिलाकर देखा, बत्तियाँ जलायीं, पीछे बजनेवाली घंटी टुनटुनायी। उन्होंने जो कुछ भी देखा, वह खराब निकला; जिस चीज को भी छुआ, उसी में गड़बड़ी आ गयी। इस तरह उन चार आदमियों ने चार मिनट में लगभग चालीस दोष निकाले और फिर एक पेड़ के नीचे खड़े होकर इस प्रश्न पर बहस करनी शुरू कर दी कि दुश्मन के साथ कैसा सुलूक किया जाये।"

शुक्ल जी के कटाक्ष हर किसी को तिलमिला कर रख देते हैं। उनकी कृति "राग दरबारी" से लिए गए उनके कटाक्ष के कुछ नमूने यहाँ पर प्रस्तुत हैं -
  • आज रेलवे ने उसे धोखा दिया था। स्थानीय पैसेंजर ट्रेन को रोज की तरह दो घंटा लेट समझकर वह घर से चला था, पर वह सिर्फ डेढ़ घंटा लेट होकर चल दी थी। शिकायती किताब के कथा साहित्य में अपना योगदान देकर और रेलवे अधिकारियों की निगाह में हास्यास्पद बनकर वह स्टेशन से बाहर निकल आया था। रास्ते में चलते हुये उसने ट्रक देखा और उसकी बाछें- वे जिस्म में जहां कहीं भी होती हों- खिल गयीं।
  • प्राय: सभी में जनता का एक मनपसन्द पेय मिलता था जिसे वहां गर्द, चीकट, चाय, की कई बार इस्तेमाल की हुई पत्ती और खौलते पानी आदि के सहारे बनाया जाता था। उनमें मिठाइयां भी थीं जो दिन-रात आंधी-पानी और मक्खी-मच्छरों के हमलों का बहादुरी से मुकाबला करती थीं। वे हमारे देशी कारीगरों के हस्तकौशल और वैज्ञानिक दक्षता का सबूत देती थीं। वे बताती थीं कि हमें एक अच्छा रेजर-ब्लेड बनाने का नुस्ख़ा भले ही न मालूम हो, पर कूड़े को स्वादिष्ट खाद्य पदार्थों में बदल देने की तरकीब दुनिया में अकेले हमीं को आती है।
  • रिश्वत, चोरी, डकैती- अब तो सब एक हो गया है.....पूरा साम्यवाद है!
  • विद्यालय के एक-एक टुकड़े का अलग-अलग इतिहास था। सामुदायिक मिलन -केन्द्र गाँव-सभा के नाम पर लिये गये सरकारी पैसे से बनवाया गया था। पर उसमें प्रिंसिपल का दफ्तर था और कक्षा ग्यारह और बारह की पढ़ाई होती थी। अस्तबल -जैसी इमारतें श्रमदान से बनी थीं। टिन -शेड किसी फ़ौजी छावनी के भग्नावशेषों को रातोंरात हटाकर खड़ा किया गया था। जुता हुआ ऊसर कृषि-विज्ञान की पढ़ाई के काम आता था। उसमें जगह-जगह उगी हुई ज्वार प्रिंसिपल की भैंस के काम आती थी। देश में इंजीनियरों और डॉक्टरों की कमी है। कारण यह है कि इस देश के निवासी परम्परा से कवि हैं। चीज़ को समझने के पहले वे उस पर मुग्ध होकर कविता कहते हैं। भाखड़ा-नंगल बाँध को देखकर वे कहते हैं, "अहा! अपना चमत्कार दिखाने के लिए, देखो, प्रभु ने फिर से भारत-भूमि को ही चुना।" ऑपरेशन -टेबल पर पड़ी हुई युवती को देखकर वे मतिराम-बिहारी की कविताएँ दुहराने लग सकते हैं।
  • उन्हें देखकर इस फिलासफी का पता चलता था कि अपनी सीमा के आस-पास जहाँ भी ख़ाली ज़मीन मिले, वहीं आँख बचाकर दो-चार हाथ ज़मीन घेर लेनी चाहिए।
  • अंग्रेजों के ज़माने में वे अंग्रेजों के लिए श्रद्धा दिखाते थे। देसी हुकूमत के दिनों में वे देसी हाकिमों के लिए श्रद्धा दिखाने लगे। वे देश के पुराने सेवक थे। पिछले महायुद्ध के दिनों में, जब देश को ज़ापान से ख़तरा पैदा हो गया था, उन्होने सुदूर-पूर्व में लड़ने के लिए बहुत से सिपाही भरती कराये। अब ज़रूरत पड़ने पर रातोंरात वे अपने राजनीतिक गुट में सैंकड़ों सदस्य भरती करा देते थे। पहले भी वे जनता की सेवा जज की इजलास में जूरी और असेसर बनकर, दीवानी के मुकदमों में जायदादों के सिपुर्ददार होकर और गाँव के ज़मींदारों में लम्बरदार के रूप में करते थे। अब वे कोऑपरेटिव यूनियन के मैनेजिंग डाइरेक्टर और कॉलिज के मैनेजर थे। वास्तव में वे इन पदों पर काम नहीं करना चाहते थे क्योंकि उन्हें पदों का लालच न था। पर उस क्षेत्र में ज़िम्मेदारी के इन कामों को निभानें वाला कोई आदमी ही न था और वहाँ जितने नवयुवक थे, वे पूरे देश के नवयुवकों की तरह निकम्मे थे; इसीलिए उन्हें बुढ़ापे में इन पदों को सँभालना पड़ा था।
  • पुनर्जन्म के सिद्धांत की ईजाद दीवानी की अदालतों में हुई है, ताकि वादी और प्रतिवादी इस अफ़सोस को लेकर मर सकते हैं कि मुक़दमे का फ़ैसला सुनने के लिए अभी अगला जन्म तो पड़ा ही है।
  • तब वकीलों ने लंगड़ को समझाया। बोले कि नक़ल बाबू भी घर-गिरिस्तीदार आदमी है। लड़कियाँ ब्याहनी हैं। इसलिए रेट बढ़ा दिया है। मान जाओ और पाँच रूपये दे दो। पर वह भी ऐंठ गया। बोला कि अब यही होता है। तनख्वाह तो दारू-कलिया पर खर्च करते हैं और लड़कियाँ ब्याहने के लिए घूस लेते हैं। नक़ल बाबू बिगड़ गया। गुर्राकर बोला कि जाओ, हम इसी बात पर घूस नहीं लेंगे। जो कुछ करना होगा क़ायदे से करेंगे। वकीलों ने बहुत समझाया कि ‘ऐसी बात न करो, लंगड़ भगत आदमी है, उसकी बात का बुरा न मानो,’ पर उसका गुस्सा एक बार चढ़ा तो फिर नहीं उतरा।
श्रीलाल शुक्ल जी की व्यंग रचना "राग दरबारी", जिसका अंग्रेजी तथा पन्द्रह भारतीय भाषाओं में अनुवाद हो चुका है, ऐसे कटाक्षों से भरी पड़ी है। यद्यपि शुक्ल जी का नश्वर शरीर अब इस संसार में नहीं है किन्तु उनकी रचनाओं ने उन्हें अमर बना दिया है।

Friday, October 28, 2011

यम द्वितीया याने कि भाई दूज

पौराणिक मान्यता के अनुसार यम तथा यमुना, जो कि सूर्य एवं संज्ञा की सन्तानें थीं, में परस्पर बहुत अधिक स्नेह था। अलग-अलग दायित्व मिल जाने उन्हें एक-दूसरे से दूर होना पड़ा। यमुना ने अपने भाई यम को अपने घर आने के लिए अनेक बार निमन्त्रित किया किन्तु कार्याधिक्य तथा व्यस्तता के कारण वे यमुना के घर नहीं जा पाते थे। एक बार कार्तिक शुक्ल द्वितीया को यमराज को कुछ अवकाश मिला तो वे अपनी बहन यमुना के घर पहुँच गए। अपने घर अपने भाई यम को आए देखकर यमुना अत्यन्त प्रसन्न हुईं और उनका बहुत आदर-सत्कार किया, विविध प्रकार के व्यञ्जन बना कर उन्हें खिलाया और उनके भाल पर तिलक लगाया। बदले में यम ने भी यमुना को अनेक प्रकार के उपहार दिए।

बहन के घर से विदा लेते समय यम ने यमुना से वर माँगने का आग्रह किया। इस पर यमुना ने उनसे प्रतिवर्ष कार्तिक शुक्ल द्वितीया के दिन अपने घर आने का तथा उन समस्त भाइयों का, जो कार्तिक शुक्ल द्वितीया के दिन अपनी बहन के घर भोजन कर उन्हें भेंट दें, कल्याण करने का वचन ले लिया।

यही कारण है कि यम द्वितीया याने कि भाई दूज के दिन भाई अपने बहन के घर जाकर भोजन करते हैं तथा उन्हें भेंट देते हैं। जिनकी बहनें नहीं होतीं, उन्हें भाई दूज के दिन गाय के कोठे में बैठकर भोजन करना पड़ता है।

Wednesday, October 26, 2011

दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएँ!

माँ लक्ष्मी की कृपा से आपका जीवन सदैव धन-धान्य, सुख-सम्पत्ति से परिपूर्ण रहे।

हिन्दी वेबसाइट की ओर से दीपावली की शुभकामनाएँ
(चित्र देशीकमेंट.कॉम से साभार)

Tuesday, October 25, 2011

नरक चौदस - नरकासुर के नाश का दिन

दीपावली के पाँच दिनों के पर्व का दूसरा दिन, अर्थात् लक्ष्मीपूजा के एक दिन पहले वाला दिन, नरक चौदस कहलाता है। नरक चौदस के दिन प्रातःकाल में सूर्योदय से पूर्व उबटन लगाकर नीम, चिचड़ी जैसे कड़ुवे पत्ते डाले गए जल से स्नान का अत्यधिक महत्व है। इस दिन सूर्यास्त के पश्चात् लोग अपने घरों के दरवाजों पर चौदह दिये जलाकर दक्षिण दिशा में उनका मुख करके रखते हैं तथा पूजा-पाठ करते हैं।

नरक चौदस के साथ अनेक पौराणिक कथाएँ जुड़ी हुई हैं जिनमें से एक नरकासुर वध की कथा भी है। कहा जाता है कि नरक चौदस के दिन ही भगवान श्री कृष्ण ने नरकासुर का वध किया था। प्राग्ज्योतिषपुर में राज्य करने वाला नरकासुर एक अत्यन्त ही क्रूर असुर था। उसने इन्द्र, वरुण, अग्नि, वायु आदि सभी देवताओं को परास्त किया था तथा सोलह हजार देवकन्याओं का हरण कर रखा था। देवताओं की प्रार्थना पर भगवान श्री कृष्ण ने नरकासुर से वध करके उसका संहार किया और उन सोलह हजार कन्याओं को मुक्ति दिलाई। उन समस्त कन्याओं ने अपने मुक्तिदाता श्री कृष्ण को पति रूप में स्वीकार किया। नरकासुर का वध करने के कारण ही श्री कृष्ण को 'नरकारि' के नाम से भी जाना जाता है, 'नरकारि' शब्द नरक तथा अरि के मेल से बना हुआ है, नरक अर्थात नरकासुर और अरि का अर्थ है शत्रु। नरकासुर का मित्र मुर नामक असुर का भी श्री कृष्ण ने वध किया था इसलिए उनका नाम 'मुरारि' भी है।

नरकासुर का अत्याचार रूपी तिमिर का नाश होने की स्मृति में ही आज भी नरक चौदस के दिन अन्धकार पर प्रकाश की विजय के रूप में दिए जलाए जाते हैं।

हिन्दी वेबसाइट की ओर से दीपावली की शुभकामनाएँ
(चित्र देशीकमेंट.कॉम से साभार)