Monday, December 31, 2012

नया साल मनाने का एक तरीका यह भी

हमारे मित्र मिश्रा जी, जो कि धार्मिक प्रवृति के व्यक्ति हैं, ने हमसे पूछा, "बताइये तो सही कि आप नया साल कैसे मनायेंगे?"

हमने कहा, "मिश्रा जी, जीवन में ऐसे कितने ही नये साल आए और गए। अब तो जीवन में वह उत्साह ही नहीं रह गया है जो नया साल मनाने की इच्छा पैदा करे। आप बताइये कि आप किस प्रकार से नया साल मनायेंगे?"

उन्होंने कहा, "ड्यूटी से घर वापस आते रात के लगभग दस तो बज ही जाते हैं। (वे एक पेट्रोल पंप में काम करते हैं और उनकी ड्यूटी लगभग बारह घंटे की होती है) घर आकर रोज की तरह स्नान करूँगा करूँगा। प्रातः स्नान के बाद पूजा अवश्य करता हूँ किन्तु रात्रि स्नान के बाद नहीं। पर आज नये साल के उपलक्ष्य में रात्रि स्नान के बाद भी पूजा कर लूँगा। श्रीमती जी से कहकर कुछ विशिष्ट व्यंजन बनवा लूँगा और पूजा के बाद परिवार सहित भोजन कर लेंगे। इस प्रकार से नया साल मनाना हो जाएगा।"

मैंने तो आज तक अंग्रेजी नये साल मनाने के ऐसे तरीके के बार में कभी नहीं सुना। मैंने तो यही देखा है कि अंग्रेजी नया साल मनाने के लिए लोग नाचते-गाते हैं, खुशियाँ मनाते हैं और नशे में गाफ़िल हो जाते हैं। पर हमारे मिश्रा जी के लिए पूजा-पाठ ही नाचना-गाना, खुशियाँ मनाना और नशे में गाफ़िल होना है। वे तो अंग्रेजी नये साल को हिन्दू तरीके से मना कर ही खुश होते हैं।

Thursday, December 27, 2012

अगर ब्लोगवाणी चाहे तो आज भी फिर से हिन्दी ब्लोगिंग में जान फूँक सकती है

और किसी को लगे, न लगे, पर मुझे लगता है कि हिन्दी ब्लोगिंग की प्राणशक्ति बेहद कमजोर हो चुकी है, इसके पीछे कारण यही लगता है कि हिन्दी ब्लोगिंग के लिए अच्छे एग्रीगेटर का न होना। और फिर फेसबुक ने भी तो हिन्दी ब्लोगिंग की प्राणशक्ति को चूस लिया है।

वैसे तो हिन्दी ब्लोगिंग के लिए अनेक एग्रीगेटर्स बने किन्तु हिन्दी ब्लोगिंग को सबसे अधिक किसी एग्रीगेटर ने बढ़ाया तो वह है ब्लोगवाणी। एक समय ऐसा था कि हिन्दी ब्लोगर्स अपना ब्लॉग बाद में खोलते थे, ब्लोगवाणी पहले खोल लिया करते थे। फिर हिन्दी ब्लोगिंग के दुर्भाग्य का उदय हुआ और ब्लोगवाणी ने हिन्दी ब्लोग्स के अपडेट देना बंद कर दिया। शायद कुछ विघ्नसंतोषी लोगों के द्वारा ब्लोगवाणी की भावनाओं को लगातार ठेस पहुँचाते रहना ही इसका कारण रहा हो सकता है। उसके कुछ दिनों बाद चिट्ठाजगत का बंद हो जाना हिन्दी ब्लोगिंग के लिए "दुबले के लिए दूसरा आषाढ़" साबित हुआ।

ब्लोगवाणी कभी भी बंद नहीं हुई, वह आज भी चल रही है, बस उसमें हिन्दी ब्लोग्स के अपडेट को बंद कर दिया गया है। अगर ब्लोगवाणी चाहे तो आज भी फिर से हिन्दी ब्लोगिंग में जान फूँक सकती है, बस इसके लिए उसे फिर से हिन्दी ब्लोग्स के अपडेट को चालू करना होगा। ब्लोगवाणी के हिन्दी ब्लोगिंग पर बहुत से उपकार हैं जिसे हिन्दी ब्लोगिंग कभी भुला नहीं पायेगी। पर आज एक बार फिर से हिन्दी ब्लोगिंग को ब्लोगवाणी के उपकार की आवश्यकता है। ब्लोगवाणी टीम यदि हिन्दी ब्लोग्स के अपडेट को फिर से चालू कर देगी तो निश्चय ही यह हिन्दी ब्लोगिंग पर उसका सबसे बड़ा उपकार होगा। हिन्दी ब्लोगिंग घिसट-घिसट कर चलने के बजाय एक बार फिर से दौड़ना शुरू कर देगी।

Monday, December 24, 2012

जब मुझे बूढ़े से बच्चा बनना पड़ा

इस पोस्ट का शीर्षक पढ़ कर शायद आप सोच रहे होंगे कि ये जी.के. अवधिया क्या बेपर की हाँक रहा है? भला आदमी बूढ़े से बच्चा कैसे बन सकता है?

 यह तो हम सभी जानते हैं कि जो समय बीत गया उसे फिर से वापस लाया नहीं जा सकता। समय बीतने के साथ ही उम्र भी बढ़ते जाती है, और बीते हुए उम्र को भी फिर से वापस नहीं लाया जा सकता। पर बीते चुके उम्र में कल्पना के सहारे जाया तो जा सकता है।

बात यह हुई कि मेरे मित्र गुप्ता जी ने मुझसे कहा कि उनके पुत्र, जो कि कक्षा पीपी२ में पढ़ता है, के स्कूल की पत्रिका छप रही है और वे अपने पुत्र के नाम से कु सामग्री उसमें छपने के लिए देना चाहते हैं, अतः मैं उन्हें या तो नेट से कुछ खोज कर दूँ या स्वयं कुछ लिख कर दूँ। मैंने सोचा कि चलो इसी बहाने कुछ लिख लिया जाए। पर मेरी सोच तो बूढ़ी हो चुकी है क्योंकि मैं बूढ़ा आदमी हूँ। इसलिए मैंने अपनी कल्पना के सहारे, अपने बचपन में वापस जाकर, स्वयं को बच्चा बनाया और उन्हें यह लिखकर दियाः

क्रिसमस की छुट्टी

क्रिसमस की छुट्टी हैं आईं।
खुशियों की ये लहरें लाईं॥
चुन्नू मुन्नू मेरे घर आए।
सब मिलकर हम नाचे गाये॥

मम्मी पापा प्यार जताते।
अपने संग पिकनिक ले जाते॥
खुशियों के हम गीत हैं गाते।
मामा मेरे ढोल बजाते॥

चह चह चहके चिड़िया रानी।
दाना चुगाती इसे है नानी॥
बहना मेरी बड़ी सयानी।
होकर बड़ी ये बनेगी रानी॥

कल कल करती नदिया बहती।
झर झर बहता झरना॥
नदिया झरना कहते हमसे।
सीखो हमसे आगे बढ़ना॥

तो ऐसे बनना पड़ा मुझे बूढ़े से बच्चा।

Wednesday, November 14, 2012

छत्तीसगढ़ का "गोंड़िन गौरा" पर्व

दीपावली की रात्रि को छत्तीसगढ़ के गोंड़ "गोंड़िन गौरा" पर्व मनाते हैं। दीपावली की रात्रि आरम्भ होते ही गीली मिट्टी से शिव-पार्वती की मूर्तियाँ बनाई जाती हैं। इसके लिए लकड़ी के एक पाटे पर चारों कोनों में खम्भे बनाये जाते हैं तथा उनके ऊपरी भाग में दिये रखने के लिये गढ़े कर दिये जाते हैं। बीच में शिवजी की मूर्ति बनाई जाती है। शिव जी की मूर्ति की बायीं ओर गौरा माता की मूर्ति का निर्माण किया जाता है। फिर खम्भों और मूर्तियों को रुपहले और सुनहले वर्क से आच्छादित किया जाता है। उसके बाद लाल सिन्दूर की मोटी लकीर से भरी हुई माँग वाली एक स्त्री बाल बिखरा लिये और पाटे को सिर पर रखती है। उस स्त्री के साथ युवक, वृद्ध, बच्चे और स्त्रियाँ बाजे-गाजे के साथ जुलूस के रूप में पूरे गाँव भर या शहरों में मुहल्ले मुहल्ले घूमते हैं। यह जुलूस शिव जी की बारात होती है।

लटें बिखरा कर औरतों का झूमना, हाथों में 'साँटी' (कोड़े) लगवाना आदि इस बारात के आकर्षण होते हैं।

रात भर गलियों में घूमने के बाद 'गौरा चबूतरे' पर पाटा रख दिया जाता है और औरतें गाती हैं -

महादेव दुलरू बन आइन, घियरी गौरा नाचिन हो,
मैना रानी रोये लागिन, भूत परेतवा नाचिन हो।
चन्दा कहाँ पायेव दुलरू, गंगा कहाँ पायेव हो,
साँप कहाँ ले पायेव ईस्वर, काबर राख रमायेव हो।
गौरा बर हम जोगी बन आयेन, अंग भभूत रमायेन हो,
बइला ऊपर चढ़के हम तो, बन-बन अलख जगायेन हो।

अन्त में मूर्तियाँ तालाब में विसर्जित कर दी जाती हैं।

शिव-पार्वती की इस पूजा को 'गोड़िन गौरा' कहा जाता है जो कि वास्तव में शिव-विवाह की वार्षिक स्मृति है।

Sunday, May 13, 2012

बेटी बचाओ, सृष्टि बचाओ

लेखः के.आर. मीना
भरतपुर


कांई थारो करयो रे कसूर

 सही है सरकारें आर्थिक मदद के अलावा कर क्या सकती हैं। वे जो परम्पराएँ हैं, जो बेटी वालों से दुश्मन-सा व्यवहार करती हैं। वो जो झूठी शान है जो बेटियों के पिता को झुकने पर मजबूर करती है, उन्हें कौन बंद करेगा? अगर आर्थिक प्रोत्साहन से बेटियां बराबरी का दर्जा पा सकतीं तो भला पैसे वाले, पढ़े-लिखे लोगों में बेटों की बेजा चाह क्यों होती? आखिर पूरा समाज और वो माँएँ, जो इस समूची सृष्टि की निर्माता हैं, बेटी को बचाने, उसे मान दिलाने कब आगे आयेंगी?

सात वार, नौ त्यौहार

 राजस्थान पूरे देश में एक अलग ही उदहारण है। बेटी के घर वालों को बेटे वाले दुश्मन की तरह देखते हैं। बड़े और गढ़े हुए छोटे-मोटे त्योहारों पर भी बेटे वालों को झोली भरकर मिठाई चाहिए। सास का बेस, ससुर के कपड़े। जेठ का सूट, जेठानी की साड़ी। बगल वाली उस चाची का भी बेस, जिससे 10 साल से बोलचाल बंद है। अनगिनत लिफाफे- देवर का पाँच सौ का, दोस्तों के दो-दो सौ के। ये क्या है? क्यों है? कौन रोकेगा? कहा जाता है, बेटे को पढाया-लिखाया है। हमारे भी अरमान हैं। तो क्या बेटी और बेटी वालों के अरमान मर गये? उन्होंने भी सोचा होगा - भले, अपने जैसे समधी मिलें। जब इतना सब कुछ हर त्यौहार पर सालों साल मांगते रहेंगे, तो आप भले कैसे हुए?

झुके कौन?

मानसिकता यह भी है कि बेटी पैदा हुई तो शादी होगी। बेटे वालों के आगे झुकना होगा। इसलिए या तो बेटी को पैदा ही नहीं होने देते। या पैदा होने के बाद मार देते हैं। या नहीं मारते तो अच्छी शिक्षा नहीं देते। बेटा अच्छे, मँहगे स्कूल में। ....और बेटी सरकारी स्कूल में। क्यों? हैरत देखिए- अपनी बेटी के लिए सबकुछ अच्छा चाहने वाली माँ ही सास बनकर बहू के घरवालों को उम्र भर इसलिए कोसती रहती है कि देवर के दोस्तों का एक लिफाफा (लिफाफे में बंद कुछ रूपये-पैसों के रूप में दी जाने वाली भेंट या विदाई) कम पड़ गया था। हो सकता कि यह कु-व्यवस्था पुरुषों ने ही शुरू की हो। लेकिन महिलाएँ इन्हें धर्म मानकर इनका पालन करती रहीं हैं जिससे महिला ही महिला कि दुश्मन बनती गई और आज भी बनी हुई है। यही हाल रहा तो सृष्टि को, वंश को आगे बढ़ाने वाली माँ ही एक दिन चीख कर कहेगी कि मुयी कोख न होती तो मैं दुनिया के सारे झंझटों से आजाद हो जाती। तब क्या होगा? सृष्टि का। वंश का। सास के बेस का। जेठ-जेठानी के कपड़ों का। देवर के लिफाफे और दूल्हे की कार का? जरा सोचिए। ठहर कर एक मिनिट तो सोचिए। बेटियाँ भी बेटों से बढ़ कर होती हैं। उन्हें मत मारिए। उनका मान कीजिए। आप बहुत बड़े हो जाएँगे। अपनी बेटियों की नजर में। दुनियां की नजर में। खुद की नजर में।

Saturday, May 5, 2012

चैटिंग - एक सजा या मजा

लेखः मुकेश कैन

चैटिंग का नशा एक भयंकर रोग के जैसा होता है। ये जिसे एक बार लग गया, तो समझो वो सारे काम-धंधे से गया। भारत में दिनों-दिन इंटरनेट यूजर्स बढ़ते जा रहे हैं, और लोग इस नशे का शिकार होते जा रहे हैं। इसकी चपेट में सबसे ज्यादा भारतीय छात्र-छात्राए एवं शादी सुदा जोड़े है।  फेसबुक, याहू, स्काइप, जीमेल आदि साइट्स पर हर कोई दूसरे से अनजान बनकर चैट करते रहते हैं। वो इतना रोमांचित होता है के इंसान स्वयं के बस में नहीं रहता, और कुछ नया, और कुछ नया की चाह में घंटो-घंटो इन्टरनेट पर लगे रहते है। इसका अंजाम बहुत बुरा होता है। इसका नशा ऐसा होता है कि न दिन में चैन रहता है और न रात को नींद आती है। ना खाने की सुध ना नहाने का समय। कई बार तो पति पत्नी स्वयं एक दूसरे से ही चैटिंग कर रहे होते और उन्हें लगता है के उन्हें उनका पसंदीदा साथी मिल गया जबकि वे वास्तविक जीवन में एक दूसरे से दूरिया बनाये रखते है  । कई बार तो चैटिंग करने वाले लोग गलत लोगो के जाल में भी फँस जाते है। कुछ साइट्स पर लड़किया इसे वैश्यावृति के लिए भी इस्तेमाल कर रही है। भोले-भाले लोग उन्हें आम लड़की समझ कर बातचीत करते है और उनसे दोस्ती कर बैठते है, और बाद में हकीकत सामने आने पर भी कुछ नहीं कर पाते है। कुछ लोग इसे अन्य लोगों को ठगने के लिए भी इस्तेमाल करते है, अपने आप को किसी स्वयंसेवी संस्था से जुड़ा हुआ बताते है और अनाथो या विधवाओ की सेवा के बहाने पैसा ऐंठते है। और कई बार तो लक्की ड्रा जेसे लुभावने जाल में फंसाते है।

हमें जरूरत है ऐसे धोखेबाजों से बचने की। सावधानी से इस उपयोगी सॉफ्टवेयर के इस्तेमाल करने की। यदि हम चैटिंग का सावधानीपूर्वक उपयोग करें तो ये बहुत काम की चीज है। मान लीजिये आप का कोई रिश्तेदार सात समुंदर पार आपसे बहुत दूर बैठा है और आपको उसे देखना या उससे बात करना चाहते हैं तो चैटिंग बहुत ही काम की चीज हो सकती है। आज के भाग-दौड वाले जीवन में लोग पैसा कमाने के लिए विदेश चले जाते है। ऐसे में बूढ़े माँ-बाप अपने बच्चो को देखना चाहते है। उनसे बातें करना मोबाइल या टेलीफोन के जरिये काफी माँगा पड़ता है। टेलीफोन के मुकाबले इन्टरनेट पर बात करना और अपनों को लाइव देखना बहुत ही सस्ता होता है लगभग ना के बराबर खर्च पर।

अब ये आप के ऊपर है कि आप चैटिंग को कैसे इस्तेमाल करते है। इस लेख का मकसद अनजान लोगो को सचेत करना मात्र है ना की किसी व्यक्ति विशेष अथवा किसी संस्था को बदनाम करना।

Friday, April 20, 2012

मुफ्त में कीजिये अपना डाटा रिकवर

लेखः मुकेश कैन

एक छोटी सी गलती और डाटा गायब!

किसी ने अनजाने में डाटा ड्राईव को फॉर्मेट कर दिया तो डाटा गायब!

किसी जरुरी फाइल को शिफ्ट के साथ डिलीट दबा दिया और फाइल पूरी तरह से कंप्यूटर से गायब!

क्या करेंगे आप अगर ऐसा हो जाये तो?

आम लोगो को डाटा रिकवरी वालो के पास जाना पड़ता है, जिसका वो 2000 से 20000 तक या उससे भी ज्यादा चार्ज करते है। और अगर डाटा रिकवरी सॉफ्टवेर खरीदना चाहें तो ये सॉफ्टवेयर आम आदमी की खरीद से बाहर होते हैं। क्योकि आम आदमी को इस तरह के सॉफ्टवेयर की कम ही जरूरत होती है। लेकिन जब जरूरत होती है तो आसानी से मिलना मुश्किल होता है। यदि किसी साईट पर मिलते भी हैं तो वे डेमो वर्जन होते हैं, जिनका आप पूरीतरह से उपयोग ही नहीं कर सकते।

आइये ले चलते है आप को एक फुल वर्जन फ्री सॉफ्टवेयर की तरफ। और एक सॉफ्टवेयर डाउनलोड करने वाली अच्छी सॉफ्टवेर साईट की तरफ जहा से आप जरूरत के फ्री सॉफ्टवेयर्स आसानी से डाउनलोड कर सकते है -

http://www.filehippo.com/download_recuva/download/538dee0c339f04561301a77744a5fc60/

इस साइट के माध्यम से आपके कंप्यूटर में rcsetup142.exe फाइल डाउनलोड हो जायेगी जिसके माध्यम से आप डिलीट अथवा गलती से फॉर्मेट की हुई पेन ड्राइव, हार्ड ड्राइव, एक्सटर्नल ड्राइव से डाटा रिकवर कर सकते हैं, वह भी बगैर किसी की मदद से तथा फ्री! यह हर प्रकार से आपकी मदद करेगा। आप की फोटो, वीडियो, अथवा दोकुमेंट रिकवर कर देगा अगर डिलीट फाइल है तो नार्मल रिकवर से फाइल रिकवर हो जायेगी और अगर फॉर्मेट ड्राइव है तो डीप स्केन से काम हो जायेगा।

तो rcsetup142.exe  डाउनलोड करने के लिए क्लिक करे

http://www.filehippo.com/download_recuva/download/538dee0c339f04561301a77744a5fc60/

और बाकी काम के सॉफ्टवेर डाउनलोड करने के लिए क्लिक करे

www.filehippo.com

Friday, April 6, 2012

लक्ष्य प्राप्त करना चाहते हो तो हनुमान जी के चरित्र से शिक्षा लो

चैत्र माह की पूर्णिमा अर्थात् हनुमान जयन्ती। आज ही के दिन वानरराज केसरी और अंजना के घर हनुमान जी का जन्म हुआ था। समस्त भारतवर्ष में आज के दिन हनुमान जी के भक्त श्रद्धा और उल्लास के साथ हनुमान जयन्ती का पर्व मनाते हैं। मान्यता है कि हनुमान जी भगवान शंकर के ग्यारहवें रुद्र के अवतार हैं।



हम कार्य करते हैं लक्ष्य की प्राप्ति के लिए। किन्तु किए गये कार्य के परिणामस्वरूप कभी लक्ष्य प्राप्त होता है तो कभी नहीं भी होता। यदि हम रामभक्त हनुमान जी के चरित्र का अध्ययन करें तो हमें पता चलता है कि उन्होंने जो भी कार्य किया, वह सफल ही हुआ। दुर्गम से दुर्गम कार्य को हनुमान जी ने सुगमता के साथ पूर्ण किया। इसीलिए गोस्वामी श्री तुलसीदास जी "हनुमान चालीसा" में लिखते हैं -

दुर्गम काज जगत के जेते। सुगम अनुग्रह तुम्हरे तेते॥

रामायण में आदिकवि वाल्मीकि ने हनुमान जी के चरित्र को सर्वोच्च बना दिया है। सीता की खोज में जाने वाले वानरों में सिर्फ हनुमान जी पर ही श्री राम को सर्वाधिक भरोसा था, यही वजह है कि उन्होंने सीता जी से भेंट होने पर पहचान स्वरूप देने के लिए अपनी मुद्रिका किसी अन्य वानर को देने के स्थान पर सिर्फ हनुमान जी को ही दिया था। श्री राम को पूर्ण विश्वास था कि हनुमान अवश्य ही सीता जी को खोज कर उनसे भेंट करेंगे।

लक्ष्य की प्राप्ति के लिए प्रमुख बातें हैं -

लक्ष्य के प्रति समर्पित होना - चाहे राम को सुग्रीव का मित्र बनाने का कार्य हो, चाहे सीता जी की खोज का कार्य, हनुमान जी सदैव अपने लक्ष्य के प्रति समर्पित रहते हैं।

लक्ष्य प्राप्ति के लिए सुगम मार्ग का निर्धारण करना - लंका नगरी में प्रवेश करना एक अत्यन्त कठिन कार्य था किन्तु हनुमान जी इसके लिए भी सुगम मार्ग निकाल ही लेते हैं।

आत्मविश्वास से परिपूर्ण होना - हनुमान जी आत्मविश्वास से कितने परिपूर्ण थे यह इसी बात से पता चलता है कि दुश्मन की नगरी लंका में वे एक बार भी विचलित नहीं होते।

कठिन से कठिन समय में भी त्वरित निश्चय लेना - सीता जी से भेंट होने के बाद लंका से वापस आने के पहले हनुमान जी तत्काल निश्चित कर लेते हैं कि शत्रु को अपना बल प्रदर्शित करके उसका नुकसान भी करना है ताकि शत्रु का आत्मबल कम हो जाए।

यदि हम हनुमान जी के चरित्र से शिक्षा ग्रहण करते हुए अपने लक्ष्य की प्राप्ति हेतु कार्य करें तो लक्ष्य की प्राप्ति में कदापि कोई सन्देह न रहे।

Thursday, April 5, 2012

विक्रम बेताल - भ्रष्टाचार कथा

हमेशा की तरह बेताल ने कहानी शुरू की, "सुन विक्रम! जिसे तू जम्बूद्वीप अथवा आर्यावर्त के नाम से जानता है, कालान्तर में उस देश का नाम भारतवर्ष हो गया। भारतवर्ष में अनेक राज्य थे और विभिन्न राजा उन राज्यों में राज्य किया करते थे। राष्ट्रीय भावना की कमी होने के कारण वे राजा आपस में ही लड़ते रहते थे। उनकी आपसी फूट की इस कमजोरी का लाभ विदेशियों ने उठाया और भारतवर्ष पहले तो यवनों और बाद में मलेच्छों के अधीन हो गया। सहस्र से भी अधिक वर्षों तक भारत परतन्त्र ही रहा। जब भारतवर्ष मलेच्छों के अधीन था तो उसी समय द्वितीय विश्वयुद्ध छिड़ गया। इस विश्वयुद्ध ने मलेच्छों की शक्ति को क्षीण कर दिया जिसके कारण मलेच्छों को भारतवर्ष को स्वतन्त्र करने के लिए विवश होना पड़ा।

"भारतवर्ष के स्वतन्त्र हो जाने के बाद 64 वर्षों तक निरन्तर विकास की गंगा बहती रही। किन्तु विकास की गति से कई गुना अधिक गति से भ्रष्टाचार भी निरन्तर बढ़ता गया। अनेक प्रकार के घोटाले हुए। देश का धन काले धन के रूप में विदेशी बैंकों में जमा होने लगा।"

इतनी कथा सुनाकर बेताल ने विक्रम से पूछा, "बता विक्रम स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद भारत में भ्रष्टाचार तीव्र गति से क्यों बढ़ा?"

विक्रम ने उत्तर दिया, "द्वितीय विश्वयुद्ध भारत तथा उन अन्य देशों के लिए जो मलेच्छों के गुलाम थे, एक वरदान सिद्ध हुआ। इसी वरदान स्वरूप भारत को स्वतन्त्रता मिली। किन्तु भारत को अभिशाप स्वरूप ऐसे राजनेता भी मिले जिन्होंने अपने स्वार्थपूर्ति के लिए देश को गर्त में ढकेल दिया। उन राजनेताओं के प्रचार स्वरूप भारत की प्रजा समझने लगी कि भारत का विकास हो रहा है जबकि विकास के नाम पर विदेशी शिक्षा, सभ्यता, संस्कृति को ही उन राजनेताओं ने भारत में पनपाया और आगे बढ़ाया। मलेच्छों का एकमात्र उद्देश्य था भारत को लूटना। अतः उन्होंने अपने इस उद्देश्य को ध्यान में रखकर ही भारत में ऐसा संविधान बनाया था जो लुटेरों के पक्ष में हो। भारत की प्रजा को मानसिक रूप से सदा के लिए गुलाम बनाने के लिए भी उन्होंने विशेष शिक्षा-नीति तैयार किया था। जहाँ भारत की प्राचीन शिक्षा-नीति परोपकार, कर्तव्यनिष्ठा, धैर्य, सन्तोष आदि की शिक्षा देती थी वहीं मलेच्छों की शिक्षा-नीति व्यक्ति को स्वार्थ, भ्रष्टाचार आदि की शिक्षा देती थी। स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात भारत की बागडोर जिन राजनेताओं के हाथ में आई वे वस्तुतः दिखने में भारतीय तो थे किन्तु मन से अंग्रेज ही थे। उनकी शिक्षा-दीक्षा भी अंग्रेजों के देश में हुई थी। उन राजनेताओं का भी उद्देश्य अंग्रेजों की भाँति भारत को लूटना ही था। इसी कारण से उन्होंने अंग्रेजों के बनाए संविधान, न्याय-व्यवस्था, शिक्षा-नीति आदि को ज्यों का त्यों, या किंचित फेर-बदल के साथ अपना लिया ताकि भारत को लूटने का कार्य आगे भी जारी रहे। स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् भी जो देश अपनी संस्कृति और सभ्यता को भूल कर विदेशी संस्कृति और सभ्यता को ही अपनाता है उस देश का पतन निश्चित होता है और उस देश में भ्रष्टाचार तथा घोटालों का तीव्र गति से बढ़ना एक सामान्य बात होती है।"

विक्रम के उत्तर देते ही बेताल वापस पेड़ पर जाकर लटक गया।

Monday, March 12, 2012

अपने इतिहास की पुस्तकों को पढ़कर क्या अजीब-सा नहीं लगता?

हमारे इतिहास की पुस्तकें हमें बताती हैं कि अहिंसा, महात्मा गांधी, कांग्रेस आदि के कारण अंग्रेजों ने भारत को छोड़ा और हमारा देश स्वतन्त्र हुआ। यह सब पढ़कर बड़ा अजीब-सा लगता है मुझे। सोचने लगता हूँ कि क्या अहिंसा और सत्याग्रह के कारण डाकू, स्वार्थी, क्रूर, कुटिल, अत्याचारी, हत्यारे, निर्दय, अवसरवादी, अतिमहत्वाकांक्षी अंग्रेजों का हृदय परिवर्तन हो गया? मुझे विश्वास नहीं हो पाता, और शायद न कभी होगा, कि ऐसा हुआ था। यही कारण है कि इतिहास की पुस्तकों को पढ़कर मुझे अजीब-सा लगने लगता है। क्या आपको नहीं लगता ऐसा? क्या आप विश्वास करते हैं कि केवल एक व्यक्ति की अगुवाई में एक पार्टी अहिंसा और सत्याग्रह के माध्यम से एक परतन्त्र देश को स्वतन्त्र करा सकता है?

जिस काल में अंग्रेजों ने भारत (1947) छोड़ा लगभग उसी काल में उन्हें अपने न्यू जीलैंड  (1947), बर्मा (1948), सीलोन (1948) Palestine (1948) आदि उपनिवेशों को भी छोड़ना पड़ा था। यह तो हो ही नहीं सकता कि अहिंसा और सत्याग्रह का प्रभाव अंग्रेजों पर इतना अधिक पड़ा हो को भारत के अलावा उन्होंने अपने उपरोक्त उपनिवेशों को भी छोड़ दिया हो। स्पष्ट है कि अंग्रेजों के समक्ष अपने उपनिवेशों को छोड़ने की विवशता थी। वास्तविकता यही है कि द्वितीय विश्वयुद्ध ने ब्रिटिश साम्राज्य को खोखला करके रख दिया था और उसके कारण अंग्रेज अपने उपनिवेशों में अपना नियन्त्रण रख पाने में स्वयं को असमर्थ पा रहे थे। इस विवशता के चलते उन्हें निश्चय करना पड़ा कि धक्के देकर निकाले जाने की अपेक्षा सत्ता छोड़कर इज्जत के साथ निकल लेना ही अधिक अच्छा है।

भारत में तो उनकी स्थिति और भी खराब हो गई थी। सेना उनके पास थी नहीं, वे तो स्थानीय सैनिकों को वेतन देकर उन्हीं के बल पर राज्य कर रहे थे। किन्तु समय बीतने के साथ स्थानीय सैनिकों में जागरूकता आ गई थी जिसके कारण अंग्रेजों के लिए भारत में सैनिकों का मिल पाना बहुत मुश्किल कार्य हो गया था। यदि अग्रेज भारत को न छोड़ने का निश्चय करते तो नेताजी सुभाष चन्द्र बोस की आजाद हिन्द फौज उन्हें रौंद कर रख देती। वैसे भी अंग्रेज कुटिल अवश्य थे किन्तु बुद्धिमान भी थे, वे जानते थे कि किसी भी देश को हमेशा के लिए गुलाम बनाकर नहीं रखा जा सकता, एक न एक दिन उन्हें आजाद करना ही पड़ेगा। भारत को आसानी के साथ छोड़ देने के निश्चय के पीछे उनकी यह बुद्धिमत्ता भी एक कारण थी।

किन्तु इतिहास की पुस्तकों में अंग्रेजों के भारत छोड़ने का पूरा-पूरा श्रेय व्यक्तिविशेष, दलविशेष, अहिंसा और सत्याग्रह को दे दिया गया। क्या यह अजीब नहीं लगता आपको?

Friday, March 2, 2012

परम्परागत तरीके से होली मनाने के लिए पत्नी से एनओसी लेना जरूरी

होली का त्यौहार समीप आ रहा है, ऐसे में भला मुहल्ले के युवा जागरण समिति के कर्ता-धर्ता लल्लू लाटा और कल्लू काटा भला चुप कैसे बैठ सकते हैं? सो उन्होंने युवा जागरण समिति की बैठक बुला ली। मुहल्ले के समस्त युवकों के बैठक में उपस्थित हो जाने पर लल्लू लाटा ने यह कहते हुए बैठक का शुभारम्भ किया, "प्यारे दोस्तों! होली का त्यौहार नजदीक आ गया है। यह तो आप लोग जानते ही हैं कि हम लोग हर साल होली के त्यौहार को परम्परागत तरीके से मनाते हैं। इस साल भी हमें इस त्यौहार को अपनी परम्परा के अनुसार मनाना है। वैसे तो हमारे मुहल्ले में हमेशा से भांग-ठंडाई के साथ होली मनाने का रिवाज रहा है। पर अब जमाना बदल गया है तो परम्पराएँ भी बदल गई हैं। यही कारण है कि पिछले दस-पन्द्रह सालों से हम लोग दारू-मुर्गा के साथ होली मना रहे हैं। इस साल होली में क्या और कैसे किया जाए, इसी बात पर विचार करने के लिए आज हम सब लोग यहाँ पर इकट्ठे हुए हैं।"


"इसमें विचार करने की क्या बात है? हर साल की तरह आप बस इतना बता दीजिए कि हम लोगों को सहयोग राशि कितनी देनी है। बाकी दारू-मुर्गा आदि का सारा इन्तिजाम आप हर साल तो करते ही हैं ना!" टिल्लू ने कहा।

लल्लू लाटा ने कहा, "हाँ पिछले साल तक मैं और कल्लू दोनों मिल कर सारा इन्तिजाम करते थे, पर अब हम दोनों ने डिसाइड किया है कि इस साल हम ये इन्तिजाम नहीं करेंगे।"

"वो क्यों?" चम्पू ने पूछा।

सभी लोगों ने लल्लू लाटा की ओर उत्सुकता से देखना शुरू कर दिया मानो कि चम्पू के प्रश्न का समर्थन कर रहे हों।

सब लोगों को अपनी ओर तकते हुए देखकर लल्लू लाटा ने कहना शुरू किया, "वो इसलिए कि पिछले साल टिल्लू और चम्पू की पत्नियों को जब पता चला कि उनके पतियों ने हमारे साथ परम्परागत तरीके से होली मनाई है तो उन दोनों ने अपने पतियों को खूब झाड़ा और मुहल्ले भर की औरतों के बीच ढ़िंढ़ोरा पीटना शुरू कर दिया कि लल्लू लाटा और कल्लू काटा दोनों मिल कर हमारे सीधे-सादे पतियों को गलत रास्ते में ले जा रहे हैं। यह तो हम सभी जानते हैं कि टिल्लू और चम्पू दोनों ही मौज-मस्ती का कोई भी मौका कभी भी नहीं छोड़ते पर पत्नियों को उसके बारे में पता भी नहीं चलने देते। यही कारण है कि उनकी पत्नियाँ उन्हें सदाचार का अवतार मानती हैं। बदनाम तो मैं और कल्लू हैं जो आप सभी के लिए सब प्रकार का इन्तिजाम करते हैं।"

कल्लू काटा ने कहा, "अरे उन दोनों ने तो मेरी और लल्लू जी की मिसेज के पास आकर कह दिया था कि तुम लोग अपने मिस्टर को सम्भाल कर नहीं रखती हो, आज के जमाने में भी पतियों से दबी रहती हो। बस फिर क्या था हम दोनों की पत्नियाँ भी शेरनी बन गई थीं। उन्हें फिर से पटरी पर लाने के लिए बहुत दिन लग गए थे हम दोनों को।"

लल्लू लाटा ने फिर कहा, "अपने पतियों को वो चाहें जितना भी झाड़ें, हमें उससे कुछ भी लेना-देना नहीं है, अगर झाड़ू बेलन का स्टॉक कम हो जाए तो हम उन्हें और दे सकते हैं। पर हमें बदनाम करने का उनको कोई अधिकार नहीं है। इसीलिए हम दोनों ने डिसाइड किया है कि इस साल हर कोई अपना इन्तजाम खुद करेगा।"


लल्लू के इस कथन से वहाँ उपस्थित अधिकतर लोगों के चेहरे बुझ-से गए क्योंकि वो लोग भी टिल्लू और चम्पू के जैसे ही थे। पीते जरूर थे पर कोशिश यह भी रहती थी कि कोई देख ना ले, कोई जान ना ले। दारू दुकान जाकर दारू खरीद कर लाना तो वो कभी कर ही नहीं सकते थे, क्या पता कौन पहचान वाला देख ले।

आखिर बल्लू ने हिम्मत करके खुशामदी लहजे में कहना शुरू किया, "अरे लल्लू-कल्लू भाई, आप लोग ऐसे नाराज ना हों। आप लोगों के बदौलत ही तो हम मुहल्ले में पर्व-त्यौहार आदि अच्छे से मना पाते हैं। फिर हर कोई अलग-अलग होली मनाएगा तो फिर मजा ही क्या आएगा? हम सब आपसे रिक्वेस्ट करते हैं कि आप हर साल की तरह से इस साल भी सारा इन्तिजाम करें। हम प्रामिस करते हैं कि हम लोग अपनी पत्नियों को भनक भी नहीं लगने देंगे।"

लल्लू लाटा बोले, "देखो भाई लोगों! आप लोग कितना भी क्यों ना छुपाओ, पत्नियाँ तो जान ही जाएँगी। अगर आप लोग चाहते हैं कि मैं और कल्लू दोनों इस साल भी इन्तजाम करें तो हमारी एक शर्त है। आप सभी को अपनी-अपनी पत्नियों से "एनओसी" लाकर हमें देना होगा, वो भी लिखित में। अगर आप लोगों की पत्नियाँ निम्न प्रारूप में लिख कर देंगी कि -
मैं श्रीमती ..........................., पत्नी श्री................ एतद् द्वारा घोषणा करती हूँ कि मेरे पति यदि होलिका दहन की रात्रि से लेकर धुलेड़ी के सायंकाल तक मुहल्ले की परम्परा के अनुसार होली मनाएँगे तो मुझे किसी भी प्रकार का ऐतराज नहीं होगा।

हस्ताक्षर श्रीमती ..........................."

तभी हम इस बार की होली का इन्तजाम करेंगे अन्यथा नहीं। एनओसी लेने के लिए चाहे आप अपनी बीबियों के पैर पकड़ो या उनके सामने नाक रगड़ो।"

सभी लोगों ने इस शर्त को वापस लेने के लिए बहुत मिन्नतें की पर लल्लू और कल्लू अपनी बात पर अड़े रहे और अन्ततः उन्हे उनका शर्त मानने के लिए मजबूर होना पड़ा।

अब हमें जानकारी मिली है कि बैठक से वापस जाने के बाद से अब तक उनकी पत्नियों की हर फरमाइश पूरी होती जा रही है, हरेक पति अपनी पत्नी के सामने भीगी बिल्ली बना हुआ है। पत्नियों को सुबह उठने पर बिस्तर पर ही चाय मिल जा रही है, किचन में आने पर उन्हें जूठे बर्तनों के स्थान पर मँजे-धुले बर्तन दिखाई देते हैं। साड़ियाँ धुली हुई और प्रेस की हुई मिल रही हैं। अब कहाँ तक बताएँ, आप तो स्वयं समझदार हैं!

हाँ तो, हमारे मुहल्ले की होली में आप सभी लोग भी सादर आमन्त्रित हैं पर इसके लिए लल्लू-कल्लू की शर्त का पालन करना होगा आपको।

Tuesday, February 28, 2012

जै जै जै शिवशंकर.... ये प्याला तेरे नाम का पिया


"अरे ये तो ठंडाई है, भोलेनाथ का प्रसाद! भांग थोड़े ही है। लीजिए ना!"

अभी शिवरात्रि के दिन लोग ऐसा ही कुछ कह रहे थे उन्हें जो शिव जी के प्रसाद के रूप में भांग मिले ठंडाई को लेने में हिचकिचा रहे थे।

देखा जाए तो भांग का सेवन हिन्दू धार्मिक रिवाज का एक अंग सा बन गया है और प्रायः लोग भांग के सेवन को बुरा या अहितकर नहीं मानते। अंग्रेजी विकीपेडिया के अनुसार ईसा पूर्व लगभग 1000 वर्ष पहले भांग हिन्दू रिवाजों में सम्मिलित हुआ। समय बीतने के साथ-साथ भांग का यह धार्मिक रिवाज एक आम बात सी हो गई। उत्तर भारत में शिव जी की बूटी के रूप में भांग का सेवन सामान्य सी बात है। जो लोग भांग का नियमित सेवन नहीं करते वे लोग भी महाशिवरात्रि, होली आदि पर्व पर भांग के नशे को गलत नहीं मानते। इन पर्वों में भांग की ठंडाई, भांग के पकोड़े, भांग मिश्रित लस्सी तथा आइसक्रीम आदि बनाया जाना सामान्य बात है।

राजस्थान के बीकानेर में तो भांग प्रेमियों के लिए "भैरूँ कुटिया" नामक एक स्थान ही निर्धारित है जहाँ पर प्रतिदिन सैकड़ों की तादाद में भांग प्रेमी लोग इकट्ठे होकर "भंग के तरंग" का मौज लेते हैं। भैरूँ कुटिया में भांग पीने वालों के लिए किसी भी प्रकार का बन्धन नहीं है, वहाँ पर ब्राह्मण, कायस्थ, नाई, मोची, धोबी सभी साथ बैठकर भांग पीते हैं। हरिवंशराय बच्चन जी की पंक्तियाँ "मन्दिर मस्जिद बैर कराते प्रेम बढ़ाती मधुशाला" भैरूँ कुटिया के लिए सर्वथा उपयुक्त लगता है।

बनारस के घाटों में तो किसी भी समय लोगों के समूह को भांग बनाने की प्रक्रिया में लिप्त देखा जा सकता है। सिल और लुढ़िया द्वारा भांग पीसते हुए अनेक समूहों को आप इन घाटों में कभी भी देख सकते हैं। इस प्रकार से पिसे भांग में घी, मसाले, दूध आदि मिलाकर ठंडाई तैयार की जाती है जिसे कि वे लोग अल्कोहल का एक स्वास्थ्यवर्धक विकल्प कहते हैं।

आइये अब जानें कि भांग आखिर है क्या? भांग वास्तव में एक पौधे, जिसे कि वनस्पति शास्त्र में कैनबिस सटाइवा (cannabis sativa) कहा जाता है, के पत्ते होते हैं। यह पौधा अधिकतर पर्वतीय प्रदेशों में पाया जाता है। टनकपुर, रामनगर, पिथौरागढ़, हल्द्वानी, नैनीताल, अल्मोडा़, रानीखेत,बागेश्वर, गंगोलीहाट में बरसात के बाद भांग के पौधे सर्वत्र देखे जा सकते हैं। भांग के पत्ते नशीले होते हैं। भांग के पौधे की छाल से रस्सियाँ बनती हैं तथा डंठल को मशाल के रूप में प्रयोग किया जाता है। पर्वतीय प्रदेश की कुछ जातियों के लोग भांग के रेशे से कुथले और कम्बल भी बनाते हैं।

आयुर्वेद में भांग के पौधे को एक महती औषधि बताया गया है। इससे पेट सम्बन्धी अनेक रोगों का उपचार किया जाता है। ईसा पूर्व 1000 से ही भारत में भांग का प्रचलन रहा है। भोजन के पूर्व भांग का सेवन क्षुधावर्धक (appetizer) का कार्य करता है। साधु सन्त ध्यान को एकाग्र करने के लिए इसका सेवन करते हैं।

किन्तु ध्यान रखें कि भांग का आवश्यकता से अधिक सेवन आपको मुसीबत में भी डाल सकता है क्योंकि कहा गया है "अति सर्वत्र वर्जयेत्"।

Tuesday, February 14, 2012

वैलेन्टाइन सभा

कल्लू काटा और लल्लू लाटा हमारे मुहल्ले के मुहल्ला विकास समिति के सबसे अधिक सक्रिय सदस्य हैं, बल्कि वास्तव में कहा जाए तो वे दोनों ही मुहल्ला विकास समिति के सर्वेसर्वा हैं। दोनों ही चाहते हैं कि मुहल्ले में कुछ न कुछ आधुनिक कार्यक्रम हों। इसी बात को ध्यान में रखते हुए उन्होंने मुहल्ले में वैलेन्टाइन सभा का आयोजन किया।

वैलेन्टाइन सभा में मुहल्ले के गणमान्य जन एकत्रित हो गए। कल्लू काटा ने सभा को सम्बोधित करते हुए कहा, "प्रिय मुहल्लावासियों! हमारे मुहल्ले में हर साल जन्माष्टमी, गणेशोत्सव, दुर्गोत्सव जैसे कार्यक्रम होते हैं। किन्तु आपको मालूम होना चाहिए कि सदियों से चले आ रहे ये कार्यक्रम अब किसी काम के नहीं रह गए हैं। ये सारे कार्यक्रम पोंगा-पंथियों के हैं और आज के जमाने में अब इनकी कुछ भी व्हैल्यु नहीं रह गई है। आज जरूरत है नए और आधुनिक कार्यक्रमों की। मुहल्ला विकास समिति ने मुहल्ले में इस वर्ष बड़े धूम-धाम से वैलेन्टाइन डे कार्यक्रम मनाने का निश्चय किया है और इस सन्दर्भ में आप लोगों की राय जानने के लिए इस वैलेन्टाइन सभा का आयोजन किया गया है।"

धरणीधर जी, जो कि मुहल्ले के बुजुर्ग और भारतीय सभ्यता के पक्षपाती थे, ने कहा, "आपने जन्माष्टमी, दुर्गोत्सव आदि को पोंगापंथी कार्यक्रम कैसे कह दिया? हमें लगता है कि आप वैलेन्टाइन डे मना कर मुहल्ले में मलेच्छ संस्कृति का प्रचार करना चाहते हैं।"

कल्लू काटा ने जवाब दिया, "देखिए धरणीधर जी, आप हमारे बुजुर्ग हैं इसलिए मैं आपका पूरा-पूरा सम्मान करता हूँ। पर यह सभा नौजवानों की है, आपको हमने यहाँ बुलाया भी नहीं है। अच्छा यही होगा कि आप चुपचाप  यहाँ से निकल लें।"

धरणीधर कुछ और बोल पाते इसके पहले ही लल्लू लाटा ने उन्हें सभा से जबरदस्ती बाहर कर दिया।

कल्लू काटा ने कहना जारी रखा, "मित्रों, मैंने जो कुछ भी कहा, उसका आशय यह नहीं है कि जन्माष्टमी, दुर्गोत्सव आदि मनाने में कुछ बुराई है। मैं तो यह कहना चाहता हूँ कि उनमें अब कुछ चार्म नहीं रह गया है। वैलेन्टाइन हमारे मुहल्ले के लिए भले नया हो पर हमारे देश भारत के लिए यह बहुत पुराना है। देखा जाए तो त्रेता युग में कैकसी के द्वारा विश्रवा ऋषि से प्रणय निवेदन करना वैलेन्टाइन ही था। और कैकसी ने विश्रवा से प्रणय निवेदन अपने पिता सुमाली के कहने से किया था याने कि उस समय के पैरेन्ट्स भी बेहद जागरूक थे। शूर्पणखा ने लक्ष्मण को अपना वैलेन्टाइन बनाया था, यह बात और है कि लक्ष्मण को वह वैलेन्टाइन के रूप में पसन्द नहीं आई। आज हम अपने वैलेन्टाइन को मोबाइल करके बुलाते हैं, कुन्ती के जमाने में मोबाइल नहीं था, मोबाइल की जगह मन्त्र था। कुन्ती ने क्या किया? अपने वैलेन्टाइन सूर्य को मन्त्र के द्वारा बुला लिया। वैलेन्टाइन में हम लोग प्रपोज करते हैं ना? तो दुष्यन्त ने भी तो अपने वैलेन्टाइन शकुन्तला को प्रपोज ही तो किया था। अर्जुन और सुभद्रा एक दूसरे के वैलेन्टाइन ही तो थे। सुभद्रा के पुत्र अभिमन्यु की वैलेन्टाइन थी उत्तरा। अभिमन्यु अपनी वैलेन्टाइन उत्तरा को अवश्य प्राप्त करे यही सोचकर तो उसके चचेरे भाई घटोत्कच ने अभिमन्यु का साथ दिया था! पृथ्वीराज और संयोगिता एक-दूसरे के वैलेन्टाइन ही तो थे। भारत का पूरा इतिहास भरा पड़ा है वैलेन्टाइनों से। इसलिए आप लोग यह जरा भी न सोचें कि वैलेन्टाइन डे या वीक भारत में बाहर से आया है। यह तो प्राचीनकाल से ही भारत का रहा है और विदेशियों ने इसे हमसे ही लिया है। और इसीलिए मुहल्ला विकास समिति ने हर साल बड़े धूम-धाम से वैलेन्टाइन उत्सव मनाने का निश्चय किया है।"

कल्लू काटा के इस भाषण पर तालियों की गड़गड़ाहट से सभा गूँज उठी।

गंगू बाई, जो मुहल्ले के घरों में कामवाली का काम करती थी, ने कहा, "वैलेन्टाइन उत्सव मनाने का बना के आपने बहुत अच्छा किया साहेब! अइसा करने से अब मेरी परेशानी कम हो जाएगी। अब लोग मेरे से साल भर प्रपोज करने के बदले इस त्यौहार में ही करेंगे। अभी 'किस डे' के दिन मैं कितना परेशान थी, जिस घर में काम करने जाती थी वहीं का साहेब मेरे को किस करने को कहता था। मोहिनी बाई ने तो देख भी लिया के उसका घरवाला मेरे को किस किया है। वो  मेरे को नौकरी से निकाल रही थी तो मैंने कहा बाई माफ कर दे अपने साहब को। किसन भगवान भी तो गोपियों से रास रचाते थे पर रुकमनी, सतभामा ने उने माफ किया के नइ? तू साहब को माफ कर देगी तो साहब तेरे लिए हीरे का नेकलेस ला देने को भी तैयार हैं। और तू मेरे को नौकरी से निकालेगी तो सोच तेरे घर का काम कौन करेगा? मैं किसी दूसरे कामवाली बाई को तो आनेच् नइ दूँगी ये मोहल्ले में। तो साहेब, ये वैलेन्टाइन उत्सव हो जाने से मेरी किल्लत कम होयेंगी।"

फेकूलाल जी ने कहा, "वैलेन्टाइन उत्सव मनाना शुरू करना वास्तव में ही राष्ट्रहित का काम है, इससे हमारी प्राचीन परम्परा कायम रहेगी। इस उत्सव को तो हर शहर के हर गली-कूचे में मनाया जाना चाहिए। हमें यह भी कोशिश करना चाहिए कि हमारी सरकार इस उत्सव को विशेष महत्व दे और इस अवसर पर अवकाश या कम से कम अविवाहितों के लिए विशेष आकस्मिक अवकाश की घोषणा करे।"

इतने में ही किसी ने आकर बताया कि धरणीधर वैलेन्टाइ विरोधियों के दल को लेकर इसी तरफ आ रहे हैं और सभा से सारे लोग ऐसे गायब हो गए जैसे कि गधे के सिर से सींग।

Monday, February 13, 2012

ऐसा रहा हमारा वैलेन्टाइन

देखा कि श्रीमती जी का मूड अच्छा था सो हमने कह दिया, " हैप्पी हग डे डार्लिंग!"

श्रीमती जी ने नाक को आँचल से दबाकर, मुख-मुद्रा को वीभत्स बनाते हुए, कहा, "छिः छिः, क्या गन्दगी वाली बातें कहते हैं आप भी।"

हमने कहा, "अरे मैं हिन्दी के 'हग' के बारे में नहीं, अंग्रेजी के 'हग' के बारे में कह रहा हूँ। ग्रेजुएशन कैसे कर लिया था तुमने जब कि अंग्रेजी का 'हग' भी नहीं जानती?"

"क्या मैं कन्व्हेंट में पढ़ती थी जो ये सब जानूँ? आप अच्छी तरह से जानते हैं कि मेरा मीडियम हिन्दी था।"

"आज वैलेन्टाइन वीक का छठवाँ दिन है 'हग डे', इसीलिए मैंने 'हैप्पी हग डे डार्लिंग' कहकर तुम्हें विश किया था।"

"इतनी उम्र हो गई आपकी और आपको शर्म भी नहीं आती ऐसा कहते हुए? बच्चे सुन लें तो जाने क्या सोचें?"

"बच्चे अब बच्चे नहीं रह गए हैं, गृहस्थी वाले हो गए हैं, वो सब समझते हैं बल्कि खुद भी बहुओं को यही कह रहे होंगे।"

"वो कुछ भी करें, वो नये जमाने के हैं। पर आपको अपने जमाने के साथ चलना चाहिए। 'सींग कटा कर बछड़ों में शामिल होना' भला कोई अच्छी बात है?"

"कुछ भी कहो, पर मुझे तो लगता है कि मेरे और तुम्हारे साथ तो वही मिसल हो गई कि 'बन्दर क्या जाने अरदक का स्वाद' या कहें कि 'अन्धा क्या जाने बसन्त बहार'!"

श्रीमती जी ने तत्काल तुनक कर जवाब दिया, "देखिये जी, न तो आप बन्दर हैं और न मैं बन्दरिया। हम दोनों अन्धे भी नहीं हैं। अगर आप समझते हैं कि लच्छेदार भाषा में मुझसे बात करके आप मुझ पर रौब गाँठ लेंगे, तो जान लीजिए कि आप गलत समझ रहे हैं।"

'खिसियानी बिल्ली खम्भा नोचे' के अन्दाज में हमने कहा, "अरे भई, मैं तो यह कह रहा था हमारे जमाने में वैलेन्टाइन वीक होती ही नहीं थी और हम उसका मजा उठा ही नहीं पाए।"

"अच्छा, अगर उस जमाने में वैलेन्टाइन वीक होता तो क्या करते आप?" श्रीमती जी ने हम पर तरस खाने के अन्दाज में कहा।

"तो मैं 7 फरवरी याने कि 'रोज डे' के दिन तुम्हें गुलाब के बहुत सारे खूबसूरत फूल उपहार में देता।"

"येल्लो, थर्ड क्लास में फिल्म देखने के लिए तो आपके पास चालीस पैसे तो होते नहीं थे उन दिनों। अपनी छोटी बहन तक से पैसे माँग लेते थे टिकट के लिए। मैं ही चुपके से आपकी बहन को पैसे दे दिया करती थी जिसे वो आपको देती थी। फिर मेरे लिए ढेर सारे गुलाब लाने के लिए कहाँ से पैसे आते आपके पास? और क्या आप समझते हैं कि आप मुझे गुलाब का फूल देते तो मैं खुश हो जाती? जबकि आप जानते हैं कि मेरे घर के बगीचे में गुलाब के फूलों की कोई कमी नहीं थी, हर प्रकार के गुलाब खिलते थे वहाँ पर।"

"अरे भई, 'रोज डे' के दिन प्रेमिका को गुलाब के फूल देना रिवाज है।"

"मतलब ये कि जिसके पास ढेर सारे गुलाब हों उसे भी उपहार में गुलाब ही दो। ये तो वैसा ही हुआ कि भरपेट खाना खाये आदमी को और खाने को दो।"

"तुम नहीं समझोगी इस रिवाज को।"

"हाँ मैं कैसे समझूँगी? मैं तो बेवकूफ हूँ। आप सीधे-सीधे मुझे बेवकूफ कह रहे हैं। जबकि अकल खुद आपमें नहीं है, अगर होती तो आप मुझे गुलाब देने के बदले गोलगप्पे खिलाते।"

मन ही मन हमने सोचा कि कह तो ये ठीक ही रही है, अगर हम में अकल होता तो इससे शादी ही क्यों करते? फिर प्रत्यक्ष कहा, "तुम तो जुबान पकड़ लेती हो, मैंनें तुम्हें बेवकूफ नहीं कहा, मेरी क्या शामत आई है जो तुम्हें बेवकूफ कहूँ? क्या इतना भी मैं नहीं जानता कि जिस तरह से काने को काना नहीं कहना चाहिए उसी तरह से बेवकूफ को भी बेवकूफ नहीं कहना चाहिए। फिर भी अगर तुम्हें ऐसा लगता है कि मैंने कहा है तो माफ कर दो। हाँ फिर 8 फरवरी याने कि प्रपोज डे के दिन मैं तुम्हें प्रपोज करता।"

"हुँह, खाक प्रपोज करते। किसी लड़की से बात तक करने में तो नानी मरती थी आपकी।"

"अरे भई कर ही लेता कैसे भी करके प्रपोज। फिर चॉकलेट डे के दिन मैं तुम्हें चॉकलेट लाकर देता।"

"आप जानते हैं ना कि चॉकलेट मुझे जरा भी पसन्द नहीं है। हाँ चॉकलेट की जगह अगर रसमलाई होता तो शायद मैं खुश हो जाती।"

"पर चॉकलेट डे के दिन चॉकलेट ही दिया जाता है।"

"अगर आप मुझे चॉकलेट देते मैं आपके सामने ही उसे फेंक देती।"

"और फिर किस डे के दिन मैं तुम्हें किस करता।"

"इतनी हिम्मत थी आपमें? और कैसे भी हिम्मत करके शादी से पहले आप मुझे किस करने की कोशिश करते तो किस-विस तो मिलता नहीं उल्टे मेरे हाथ के दो-चार झापड़ जरूर मिल गए होते।"

"तुम वैलेन्टाइन के लायक हो ही नहीं।"

"तो मैंने कब कहा कि मैं हूँ। बड़े आए हैं वैलेन्टाइन वाले। अपनी संस्कृति-सभ्यता भूल कर ऊल-जलूल रिवाज अपनाने वाले। भलाई इसी में है कि आप अपनी खाल में ही रहिये। और अब मेरा टाइम खोटा करने के बजाय जाइये, सब्जी लेकर आइये। और खबरदार जो फिर कभी वैलेन्टाइन-फैलेन्टाइन का नाम लिया मेरे सामने।"

इसके बाद भला हम क्या कर सकते थे? चुपचाप उठकर चले गए सब्जी लेने।

Friday, February 10, 2012

गूगल सर्च बनाये आपके लिए दिल का चित्र

जरा गूगल के सर्च बॉक्स में टाइप करें -

sqrt(cos(x))*cos(300x)+sqrt(abs(x))-0.7)*(4-x*x)^0.01, sqrt(6-x^2), -sqrt(6-x^2)

(आप उपरोक्त सूत्र को यहाँ से कॉपी करके गूगल सर्च बॉक्स में पेस्ट भी कर सकते हैं)

देखा आपने परिणाम में क्या आया?

दिल जैसा ही चित्र है ना!

अब उपरोक्त सूत्र में cos(300x) के 300 को दूसरी संख्याओं जैसे कि 500, 600, 700 आदि में बदल कर देखिए चित्र में कैसे कैसे परिवर्तन होते हैं।

अब मुझसे यह मत पूछिएगा कि ऐसा क्यों हुआ, क्योंकि यह तो मैं भी नहीं जानता। इन्टरनेट में सर्फिंग करते हुए इस बात का मुझे पता चला तो मैंने आपकी जानकारी के लिए इसे पोस्ट कर दिया।

Monday, January 30, 2012

पोस्ट लिखना सिखा दीजिए

"नमस्कार लिख्खाड़ानन्द जी!"

"नमस्काऽऽर! आइये, आइये टिप्पण्यानन्द जी!"

"लिख्खाड़ानन्द जी, टिप्पणी तो हम करते ही रहते हैं, पर कभी-कभी एकाध पोस्ट लिखने की भी इच्छा हो जाती है। सो, आप हमें पोस्ट लिखना सिखा दीजिए।"

"अरे इसमें सिखाने की क्या बात है? आप तो वैसे ही पोस्ट लिख सकते हैं।"

"हम कैसे पोस्ट लिख सकते हैं? हमें तो कोई विषय भी नहीं सूझता जिस पर पोस्ट लिखें।"

"टिप्पण्यानन्द जी, आप और मैं दोनों ही छत्तीसगढ़ के रायपुर शहर में रहते हैं ना! तो जो कुछ भी छत्तीसगढ़ और रायपुर के बारे में आपके पास जानकारी है उसे लिख डालिए। बन गई पोस्ट!"

"हम तो सिर्फ इतना जानते हैं कि रायपुर छत्तीसगढ़ की राजधानी है। बस इतनी सी जानकारी से भला पोस्ट कैसे बनेगा?"

"अच्छा ये बताइये कि छत्तीसगढ़ क्या है?"

"छत्तीसगढ़ तो एक राज्य है।"

"छत्तीसगढ़ राज्य कब बना?"

"01 नवम्बर 2000 को।"

"यह भारत का कौन सा नम्बर का राज्य है?"

"26वाँ।"

"इतना सब जानते हैं आप और कहते हैं कि 'हम तो सिर्फ इतना जानते हैं कि रायपुर छत्तीसगढ़ की राजधानी है'। अभी आप याद करेंगे तो आपको छत्तीसगढ़ और रायपुर के बारे में और भी बहुत सारी बातें याद आ जाएँगी।"

"हाँ, याद आया कि कहीं पढ़ा था कि रायपुर शहर का अस्तित्व नवीं शताब्दी से चला आ रहा है और  14 वीं सदी में रतनपुर राजवंश के राय ब्रह्मदेव ने इसे फिर से बसाया था तथा यहाँ अपनी राजधानी बनाई थी।"

" ये हुई ना बात! याने कि आपने जो पढ़ा है उसके हिसाब से रायपुर एक हजार दो सौ साल पुराना शहर है। पर हम आपको बताएँ कि छत्तीसगढ़ एक अत्यन्त प्राचीन क्षेत्र है, यहाँ पर मौर्य वंश का भी शासन रह चुका है। छत्तीसगढ़ के पाटन ब्लॉक के तर्रीघाट में मौर्ययुगी मृदभांड मिल चुके हैं  इसके अलावा कुषाण सहित अन्य समकालीन वंश के अनेक सिक्के भी प्राप्त हुए हैं। दूसरी से तीसरी शताब्दी तक यहाँ पर सातवाहन राजाओं का राज्य रहा है। चौथी सदी में राजा समुद्रगुप्त ने इस पर विजय प्राप्त कर लिया और पाँचवी-छठवीं सदी तक उनके वंशज यहाँ राज्य करते रहे। पाँचवी-छठवीं सदी में यह क्षेत्र कुछ काल तक शरभपुरी राजाओं में के अधिकार में रहा फिर नल वंश के शासक यहाँ शासन करने लगे। बाद में इस क्षेत्र का नियन्त्रण सोमवंशी राजाओं के हाथ में आ गया जिन्होंने सिरपुर को अपनी राजधानी बनाया था। सोमवंशी राजाओं में महाशिवगुप्त बालार्जुन सर्वाधिक पराक्रमी राजा रहे, उन्हीं की माता रानी वत्सला ने सिरपुर में लक्ष्मण मन्दिर का निर्माण करवाया था। आपको तो मालूम ही होगा कि सिरपुर का प्राचीन नाम 'श्रीपुर' था और 7वीं शताब्दी में चीनी यात्री ह्वेनसांग श्रीपुर आया था जिसने श्रीपुर के 70 मंदिरों व 100 विहारों का उल्लेख किया है।"

"वाह लिख्खाड़ानन्द जी! आपके पास तो नायाब जानकारी है! कहाँ से इकट्ठा कर लेते हैं इसे आप?"

"बस टिप्पण्यानन्द जी, कुछ पुस्तकें पढ़नी पड़ती हैं और कुछ नेट से सर्च कर करना पड़ता है।"

"अच्छा तो अब इसके आगे भी बताइये।"

" देखिये टिप्पण्यानन्द जी, वर्ष 1909 में प्रकाशित इम्पीरियल गजेटियर में लिखा है कि 'ऐसा प्रतीत होता है कि छत्तीसगढ़ एक अत्यन्त प्राचीन क्षेत्र है जहाँ भुइया एवं मुंडा वंश के शासकों का राज्य था जिन पर गोंड वंश ने विजय प्राप्त कर उन्हें सुदूर पहाड़ियों में भाग जाने के लिए विवश कर दिया था। गोंडों ने प्रथम बार इस क्षेत्र को नियमित व्यवस्था वाला शासन प्रदान किया।' साथ ही उसमें यह भी उल्लेख है कि 'विश्वास किया जाता है कि रायपुर नगर का अस्तित्व नौवीं शताब्दी से है तथा प्राचीन रायपुर वर्तमान रायपुर के दक्षिण पश्चिम में बसा था जिसका विस्तार खारून नदी तक था।' आपकी जानकारी के लिये हम आपको यह भी बता दें कि हमें यह पूरा इम्पीरियल गजेटियर नेट में ही मिल गया था जिसका लिंक है - http://dsal.uchicago.edu/reference/gazetteer/ ।"

"हमने रायपुर में किसी किले के बारे में भी कहीं पढ़ा था।"

"हाँ, रायपुर का वह प्राचीन किला अब पूर्णतः नष्ट हो चुका है। उस किले का निर्माण सन् 1460 में किया गया था। किले के दो तरफ दो तालाब थे जो कि आज भी विद्यमान हैं तथा विवेकानन्द सरोवर (बूढ़ा तालाब) एवं महराजबन तालाब के नाम से जाने जाते हैं।"

"अच्छा यह तो बताइये कि रायपुर में हैहयवंशी राजाओं का राज कब हुआ?"

"बहुत खोजने पर भी हमें यह जानकारी नहीं मिल पाई कि रायपुर कब हैहयवंशी शासकों के अधीन आया किन्तु ऐसा लगता होता है कि रायपुर लगभग ग्यारहवीं शताब्दी में रतनपुर से विभाजित होकर अलग राज्य बना और रतनपुर के राजा के कनिष्ठ पुत्र यहाँ के राजा बने।"

"बताते जाइये, मैं ध्यान से सुन रहा हूँ।"

"आगे की जानकारी इस प्रकार से है टिप्पण्यानन्द जी -

  • सन् 1741 में मराठा सेनापति, भास्कर पन्त, ने रतनपुर राज्य पर विजय प्राप्त की और उसे मराठा राज्य में जोड़ दिया।
  • सन् 1750 में रायपुर के राजा अमरसिंह मराठों के द्वारा पराजित हुए।
  • सन् 1750 से 1818 तक रायपुर पर मराठों का शासन रहा।
  • सन् 1818 में रायपुर को अंग्रेजों ने मराठों से हथिया लिया और वहाँ सन् 1818 से 1830 तक अंग्रेजों का शासन रहा। सन् 1818 में ही अंग्रेजों ने रायपुर को छत्तीसगढ़ का मुख्यालय बनाया।
  • सन् 1830 में रायपुर पर फिर से मराठों का अधिकार हो गया जो कि सन् 1853 तक चला।
  • सन् 1853 में पुनः रायपुर अंग्रेजों के अधीन आ गया और स्वतन्त्रता प्राप्ति तक उन्हीं का शासन रहा।
  • इम्पीरियल गजेटियर के अनुसार रायपुर पर अंग्रेजों के अधिकार प्राप्ति के समय रायपुर के प्राचीन मन्दिर दूधाधारी मन्दिर का जीर्णोद्धार हो रहा था।
  • अंग्रेजों के काल में रायपुर कमिश्नर डिवीजन, डिवीजनल जज, इंस्पेक्टर ऑफ स्कूल्स, सुपरिन्टेन्डेन्ट ऑफ पोस्ट ऑफिस तथा इरीगेशन इंजीनियर के प्रतिनिधि आदि का मुख्यालय था। सेन्ट्रल प्राव्हिंसेस के तीन सेन्ट्रल जेलों में से एक जेल रायपुर में ही था।
  • सन् 1861 में बिलासपुर को रायपुर जिला से निकाल कर अलग जिला बनाया गया।
  • सन् 1867 में रायपुर में म्युनिसपालिटी बनाया गया।
  • सन् 1892 रायपुर में जल वितरण के लिए बलरामदास वाटर वर्क्स, जिसके मालिक राजनांदगाँव के राजा बलरामदास थे, की स्थापना हुई जो खारून नदी से पानी के वितरण का कार्य करता था।
  • उस समय पीतल के सामान बनाने का कार्य, लकड़ी पर रोगन लगाने का कार्य, कपड़ा बुनना, सोनारी कार्य आदि रायपुर के प्रमुख व्यवसाय थे।
  • उन दिनों रायपुर में दो प्रिंटिंग प्रेस थे जिनमें अंग्रेजी, हिन्दी, उर्दू और ओड़िया भाषा में छपाई का कार्य होता था।
  • रायपुर में एक संग्रहालय भी था जिसका निर्माण सन् 1875 में हुआ था।
  • शिक्षा के लिए राजकुमार कॉलेज, जहाँ पर राजा, जमींदारों, जागीरदारों एवं रईसों के सन्तानों को ही दाखिला दिया जाता था, के साथ ही गव्हर्नमेंट हाई स्कूल भी था, इसके अलावा अनेक अन्य स्कूल भी थे। चिकित्सा के लिए बहुत सार डिस्पेंसरीज भी थे।
‌और कुछ पूछना है?"

"बस लिख्खाड़ानन्द जी, अभी इतना काफी है। बाद में यदि कुछ शंका हुई तो पूछ लूँगा।"

"अब तो आपके पास काफी मसाला इकट्ठा हो गया है़, अब जल्दी से लिख डालिये अपना पोस्ट।"

"धन्यवाद लिख्खाड़ानन्द जी! अब मैं चलता हूँ, नमस्कार!"

"नमस्काऽर!"

Sunday, January 29, 2012

क्या आप जानते हैं?

  • भारत संसार का सबसे बड़ा अंग्रेजी बोलने वाला (English speaking) देश है।
  • भारत के बेंगलोर नगर में 1,500 से भी अधिक सॉफ्टवेयर कंपनियाँ हैं जिनमें 26,000 से भी अधिक आईटी प्रोफेसनल्स काम करते हैं। इन कम्पनियों के निर्यात से रु.22,000 करोड़ की आय होती है।
  • भारत में संसार का सबसे बड़ा पोस्टल नेटवर्क है जिनके अन्तर्गत 1,50,000 से भी अधिक पोस्ट आफिस हैं।
  • अप्रवासी भारतीयों (NRIs) की वार्षिक आय लगभग $100 बिलियन है जिसमें से वे लगभग  $30 बिलियन भारत भेजते हैं।
  • भारत संसार का सबसे बड़ा आम उत्पादक देश है तथा संसार में पैदा होने वाले आम का 50 प्रतिशत से भी अधिक भारत में ही होता है।
  • भारतीय रेल्वे संसार का सबसे बड़ा नियोक्ता (employer) है।
  • भारत में प्रतिवर्ष लगभग 800 चलचित्र बनते हैं, चलचित्रों की यह संख्या हॉलीवुड को भी निष्प्रभ करती है।
  • संसार भर में निकाले जाने वाले सोने का लगभग पाँचवा हिस्सा भारत में खपता है।
  • यूनाइटेड किंगडम में लगभग 8,500 भारतीय रेस्टॉरेंट्स हैं जो कि वहाँ के समस्त रेस्टॉरेंट्स का 15% है।
  • भारत संसार का तृतीय सड़क नेटवर्क है तथा भारत के सड़कों की लम्बाई 19,00,000 मील से भी अधिक है।
  • समस्त संसार की आबादी के 25% लोग भारत में आरम्भ हुए चार धर्मों (हिन्दू, बौद्ध, सिक्ख और जैन) के अनुयायी हैं।
  • भारत में अंग्रेजों के आगमन से पूर्व भारत संसार का सबसे धनवान देश था।

Saturday, January 28, 2012

वसन्त पंचमी - वसन्त ऋतु का जन्मदिवस

प्रज्वलित अंगारों की भाँति पलाश के पुष्प! पर्णविहीन सेमल के विशाल वृक्षों की फुनगियों पर खिले रक्तवर्ण सुमन! मादकता उत्पन्न करने वाली मंजरियों से सुशोभित आम्रतरु! अनेक रंग के कुसुमों से आच्छादित लता-विटपों से सुशोभित एवं भाँति-भाँति के पक्षियों की मनोहारी स्वर लहरियों से गुंजित वन-उपवन! चहुँ ओर प्रवाहित होती शीतल-मन्द-सुवासित समीर! पवन झकोरों की मार से गिरे रंग-बिरंगे पुष्पों सुशोभित धरा! पीत-प्रसून आच्छादित सरसों के खेत। कहीं दूर से सुनाई देती कोकिला की कूक! कलकल नाद करती मन्द गति से प्रवाहित सरिताएँ! खिले हुए कंज एवं कुमुद से सुशोभित सरोवर!


वसन्त ऋतु की उपरोक्त विशेषताएँ ही उसे ऋतुराज बना देती हैं। समस्त छः ऋतुओं, वसन्त, ग्रीष्म, वर्षा, शरद, हेमन्त और शिशिर, में वसन्त का ही गुणगाण हमारे प्राचीन गंथों में सर्वाधिक मिलता है। वसन्त ऋतु में मानव-हृदय मादकता एवं उद्दीप्त कोमल भावनाओं से भर उठता है। यही कारण है कि प्राचीनकाल से ही हमारे देश में वसन्त ऋतु में वसन्तोत्सव एवं मदनोत्सव मनाने की प्रथा रही है। प्राचीन काल के नगरों में मदनोद्यान बना होता था जिसका निर्माण विशेष रूप से मदनोत्सव मनाने के उद्देश्य से ही करवाया गया होता था। इस मदनोद्यान के मध्य में भगवान कामदेव का मन्दिर हुआ करता था। मदनोत्सव के दिन इसी मदनोद्यान में नगर के समस्त स्त्री-पुरुष एकत्र होते, फूल चुनकर हार बनाते, एक दूसरे पर अबीर-कुंकुम डाल कर क्रीड़ा करते और नृत्य-संगीत आदि का आयोजन कर मनोविनोद किया करते थे। प्रातःकाल से ही लोगों का मदनोद्यान में आना आरम्भ हो जाता था जो कि सांयकाल तक अबाध गति से चलते रहता था। "भवभूति" के "मालती-माधव" में मदनोत्सव का अत्यन्त शान्त-स्निग्ध चित्र दृष्टिगत होता है।  "मालती-माधव" में अमात्य भूरिवसु की कन्या मालती के मदनोद्यान में आकर भगवान कन्दर्प के पूजन का वर्णन आता है। इस वर्णन से स्पष्ट है कि इस मन्दिर में राज परिवार तथा नगर के प्रतिष्ठित परिवारों की कन्यायें भी पूजन हेतु आया करती थीं। उनका मुख्य उद्देश्य भगवान कन्दर्प की कृपा से मनोवांछित वर की प्राप्त करने ही होती थी। मदनोत्सव के वर्णन से ज्ञात होता है कि प्राचीन भारत के लोग मनोविनोद तथा आमोद-प्रमोद में भी कलात्मकता को महत्व दिया करते थे।

मदनोत्सव के दिन ही अन्तःपुर के अशोक वृक्ष में दोहद उत्पन्न किया जाता था। इसके लिए एक सुन्दरी समस्त प्रकार के आभरणों से सुसज्जित होकर एवं महावर लगे पैरों में नूपुर धारण कर अपने बायें चरण से अशोक वृक्ष पर आघात करती थी जिसके परिणामस्वरूप अशोक वृक्ष नीचे से ऊपर तक पुष्प-गुच्छों से आच्छादित हो जाता था। सामान्यतः अशोक वृक्ष में दोहद की क्रिया रानी ही करती थी किन्तु "कालिदास" कृत "मालविकाग्निमित्र" में वर्णन आता है कि रानी के पैर में चोट आ जाने के कारण उसकी परिचारिकाओं में सर्वाधिक अनिंद्य सुन्दरी "मालविका" को इस कार्य के लिए नियुक्त किया गया था। मालविकाग्निमित्र में कालिदास स्पष्ट वर्णन करते हैं -

मालविका की एक सखी बकुलाविका ने उसके पैरों में महावर लगा कर नूपुर पहना दिये। तदोपरान्त मालविका ने अशोक वृक्ष के पास जाकर उसके पल्लवों के एक गुच्छे को हाथ से पकड़ा और दाहिनी ओर झुक कर बायें पैर से अशोक वृक्ष पर मृदु आघात किया जिससे उसका नूपुर झनझना गया और यह कृत्य समाप्त हुआ।

मान्यता है कि ऋतुराज वसन्त का आरम्भ वसन्त पंचमी के दिन से होता है और इसी कारण से वसन्त पंचमी को वसन्त ऋतु का जन्मदिवस भी कहा जाता है। वसन्त पंचमी से लेकर रंग पंचमी तक का समय वसन्त की मादकता, होली की मस्ती और फाग का संगीत से सभी के मन को मचलाते रहता है।

Friday, January 27, 2012

कौन सा नाम गौरवशाली - भारत या इण्डिया?

हमारे देश का नाम भारत है किन्तु समस्त संसार के लोग इसे भारत नहीं बल्कि 'इण्डिया' के नाम से जानते हैं। मूलरूप से हमारे देश का नाम भारत है पर मुगलों ने इसका नाम 'हिन्दुस्तान' रख दिया और हमारा देश भारत से 'हिन्दुस्तान' बन गया। फिर अंग्रेज आए और उन्होंने हमारे देश का नाम 'इण्डिया' रख दिया और हमारा देश 'इण्डिया' कहलाने लगा। स्पष्ट लक्षित होता है कि हमारे देश के नाम को कोई भी विदेशी बदल सकता है। यह ठीक वैसा ही है जैसे कि किसी का नाम उसके माता पिता ने 'कालीचरण' रखा किन्तु दूसरे लोग उसे 'कालू' या 'कल्लू' कहने लगे। कालीचरण को भले ही 'कालू' या 'कल्लू' कहलाना बुरा लगे किन्तु हम भारतीयों को हमारे देश भारत का नाम बदल जाने का कभी भी बुरा नहीं लगता। तभी तो हमारे संविधान के प्रथम पृष्ठ में लिखा है "India, that is Bharat, shall be a union of states." (इण्डिया, जो कि भारत है, राज्यों का संघ होगा)। हमारा संविधान 'इण्डिया' नाम को 'भारत' नाम से अधिक महत्व देता है और सिर्फ 'भारत' नाम को 'इण्डिया' के बिना अधूरा बताता है।

'भारत' एक व्यक्तिवाचक संज्ञा (Proper Noun) है। यह तो प्रत्येक व्यक्ति जानता है कि व्यक्तिवाचक संज्ञा (Proper Noun) को चाहे किसी भी भाषा में बोला या लिखा जाए, उसमें कोई परिवर्तन नहीं होता। क्या 'चन्द्रप्रकाश' नाम को अंग्रेजी में 'Moonlight' या उर्दू में 'रोशनी-ए-माहताब' के रूप में बदला जा सकता है? किन्तु भारत को, व्यक्तिवाचक संज्ञा (Proper Noun) होने के बावजूद भी, अंग्रेजी में 'India' के रूप में बदला जा सकता है। हमें स्वयं को भारतीय कहलाने की अपेक्ष 'इण्डियन' कहलाने में अधिक गर्व का अनुभव होता है। अंग्रेजों तथा अंग्रेजी का हम पर इतना अधिक प्रभाव क्यों है?

अंग्रेजी ने हमारे यहाँ के बहुत सारे नामों को बदल कर रख दिया है, पुण्यसलिला गंगा 'गेंजेस' हो गई हैं, भगवान राम "लॉर्ड रामा" हो गए हैं। यहाँ तक कि हमारे भारतवासी विद्वान भी यदि अपने देश का नाम 'इण्डिया' न लेकर 'भारत' लेते हैं तो बोलते समय उस नाम को 'भारत' न कहकर 'भारता' कहते हैं। हमारे विद्वजन तक "पाटलिपुत्र" को "पाटलिपुत्रा", इतिहास को "इतिहासा" आदि ही कहते हैं। किसी विषय पर जब कभी भी संगोष्ठी का आयोजन होता है तो वहाँ निमन्त्रित अधिकतर विद्वजन अपना शोधपत्र या भाषण अंग्रेजी में ही पढ़ना पसन्द करते हैं।

"बम्बई" बदल कर "मुम्बई" हो गया क्योंकि मुम्बईवासियों को बम्बई नाम की अपेक्षा मुम्बई नाम अधिक गौरवशाली लगता है, "मद्रास" बदल कर "चेन्नई" हो गया क्योंकि चेन्नईवासियों को मद्रास नाम की अपेक्षा चेन्नई नाम अधिक गौरवशाली लगता है, "कलकत्ता" बदल कर "कोलकाता" हो गया क्योंकि कोलकातावासियों को कलकत्ता नाम की अपेक्षा कोलकाता नाम अधिक गौरवशाली लगता है, पर "इण्डिया" बदल कर "भारत" शायद कभी भी न हो क्योंकि भारतवासियों तथा भारत के संविधान को भारत की अपेक्षा इण्डिया नाम ही अधिक गौरवशाली लगता है।

Monday, January 23, 2012

विचित्र कानून-कायदे

  • फ्रांस में किसी मृत व्यक्ति से विवाह करना वैध है।
  • हांग कांग में पति के द्वारा छली गई पत्नी अपने पति की हत्या कर सकती है, किन्तु इसके लिए वह केवल अपने नंगे हाथों का ही प्रयोग कर सकती है। दूसरी ओर वह अपने पति की प्रेमिका की हत्या मनचाहे तरीके से कर सकती है।
  • स्कॉटलैंड में गाय रखने वाले व्यक्ति का मदिरा पीकर मतवाला होना गैरकानूनी है।
  • न्यू यार्क में बच्चों के द्वारा सिगरेट तथा सिगार के टोंटे एकत्रित करना गैरकानूनी है।
  • केन्टुकी Kentucky, यूनाइटेड स्टेट्स में प्रत्येक नागरिक को साल में कम से कम एक बार नहाना जरूरी है।
  • सऊदी अरब में पति के द्वारा पत्नी को कॉफी की आपूर्ति न करने पर पत्नी को पति से तलाक लेने का अधिकार हासिल है।
  • मियामी में किसी जानवर की नकल करना नाजायज है।
  • 1960 तक किसी लंबे बाल वाले व्यक्ति को डिजनीलैंड में जाने की अनुमति नहीं दी जाती थी।
  • आइसलैंड के रेस्टॉरेंट्स में टिप देने को अपमान करना माना जाता है।
  • स्त्रियों को व्होट देने का अधिकार सबसे पहले न्यूजीलैंड में मिला।
  • मास्को में मौसम पूर्वानुमानकर्ता को मौसम के गलत पूर्वानुमान करने पर जुर्माना भरना पड़ सकता है।
  • शंघाई, चीन में लाल रंग की कार रखना अवैधानिक है।
  • एरिजोना में ऊँट का शिकार करना अवैधानिक है।
  • सिंगापुर में चुइंग गम रखना या बेचना अवैधानिक है।
  • फ्लोरिडा में घोड़ा चोरी करने पर फाँसी की सजा हो सकती है।
  • प्राचीन इंग्लैंड में कोई भी व्यक्ति राजा की सहमति न मिलने पर यौनाचार नहीं कर सकता था।

Sunday, January 22, 2012

रविवार!

रविवार अर्थात इतवार सभी का प्यारा दिन होता है, स्कूल की छुट्टी, आफिस की छुट्टी, काम-धंधे की छुट्टी! रविवार याने कि मौज मनाने का दिन, नियम-बंधन से परे होकर मनमाफिक समय बिताने का दिन या फिर लम्बी तान कर सोने का दिन! रविवार याने कि एक लम्बी प्रतीक्षा के बाद आने वाला दिन!

किन्तु कई मुस्लिम देशों में रविवार लम्बी तानकर सोने का दिन नहीं होता क्योंकि वहाँ रविवार का दिन अवकाश का दिन नहीं होता।

अन्तर्राष्ट्रीय मानक के अनुसार रविवार सप्ताह का अन्तिम दिन होता है किन्तु क्रिश्चियन, इस्लामिक तथा हिब्रू कैलेण्डर सहित और भी कई कैलेण्डरों के अनुसार यह सप्ताह का पहला दिन होता है।

सप्ताह के सात दिनों में से पाँच दिन अर्थात् मंगलवार, बुधवार, वृहस्पतिवार, शुक्रवार तथा शनिवार के नाम ग्रहों के आधार पर है, एक दिन अर्थात् सोमवार उपग्रह चन्द्रमा के आधार पर है (यह अलग बात है कि हिन्दू ज्योतिष में चन्द्रमा को भी एक ग्रह ही माना गया है), केवल रविवार ही एक ऐसा दिन है जिसका नाम एक तारे अर्थात् सूर्य पर आधारित है।

मजे की बात है कि ग्रैगेरियन कैलेण्डर की कोई भी शताब्दी रविवार से आरम्भ नहीं होती और कोई भी यहूदी नया साल का पहला दिन, जिसे कि रोश हश्नाह (Rosh Hashanah) कहा जाता है, रविवार से शुरू हो ही नहीं सकता, यहूदी नया साल तो रविवार के अलावा बुधवार और शुक्रवार से भी शुरू नहीं हो सकता।

रविवार याने कि Sunday के आधार पर बहुत से दिनों के नामकरण हुए हैं यथा - Black Sunday, Bloody Sunday,  Cold Sunday, Easter Sunday, Gaudete Sunday, Gloomy Sunday, Good Shepherd Sunday, Laetare Sunday, Low Sunday, White Sunday, Quasimodo Sunday, Divine Mercy Sunday, Palm Sunday, Passion Sunday, Selection Sunday, Super Bowl Sunday आदि।

बहरहाल रविवार अधिकतर लोगों का प्यारा दिन है।

Saturday, January 21, 2012

अंग्रेजों के लिए मुसीबत थे नेताजी सुभाष चन्द्र बोस

वैसे तो भारत के प्रायः क्रान्तिकारियों ने अंग्रेजों के नाम में दम कर दिया था पर नेताजी सुभाष चन्द्र बोस तो अंग्रेजों के लिए साक्षात मुसीबत थे। "सुभाष" नाम सुनते ही अंग्रेजों के कान खड़े हो जाते थे, चाहे वह "सुभाष" नाम का व्यक्ति कोई भी क्यों न हो, बस नाम सुनते ही अंग्रेजी प्रशासन अपने सारे अमले को सतर्क कर दिया करता था। "सुभाष" नाम से अंग्रेजों के इतना घबराने का कारण भी था, नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ने एक नहीं बल्कि अनेक बार भेष बदल कर अंग्रेजी प्रशासन को छकाया था।

द्वितीय विश्वयुद्ध के समय अंग्रेजों ने नेताजी सुभाष चन्द्र बोस को जेल भेज दिया था किन्तु दिसंबर 1940 में उन्होंने अंग्रेजों के मन में आमरण अनशन का  ऐसा भय बिठाया कि अंग्रेजों को विवश होकर उन्हें जेल से मुक्त करके उनके स्वयं के घर में नजरबंद करना पड़ा। नेताजी ने अपने घर के एक कमरे में एकांतवास की घोषणा कर दी और उस कमरे में बंद हो गए, यहाँ तक कि किसी से भी मिलना-जुलना तक छोड़ दिया। इस बीच उन्होंने अपनी दाढ़ी भी बढ़ा ली। जब दाढ़ी खूब बढ़ गई तो एक दिन उन्होंने अपना चश्मा उतार कर स्वयं दर्पण में देखा तो खुद ही खुद को नहीं पहचान पाये। उन्हें विश्वास हो गया कि बढ़ी हुई दाढ़ी में बिना चश्मा के कोई उन्हें नहीं पहचान पाएगा। उनका वह कमरा तो क्या उनका सारा घर पुलिस के पहरे में था पर सुभाष जी उन सबकी आँखों में धूल झोंक कर 17 जनवरी 1941 के दिन उस कमरे से नाटकीय ढंग से गायब हो गए। एक पठान के भेष धर कर तथा अपना नाम मोहम्मद जियाउद्दीन रखकर वे कलकत्ता से दूर गोमोह पहुँच गए, गोमोह पहुँचने में उन्हें शरद बाबू के ज्येष्ठ पुत्र शिशिर ने पूरी सहायता पहुँचाई। गोमोह से फ्रंटियर मेल पकड़कर वे पेशावर पहुँ गए जहाँ पर उन्होंने फॉरवर्ड ब्लॉक के मियाँ अकबर से मुलाकात की। अकबर मियाँ के माध्यम से उनका परिचय कीर्ति किसान पार्टी के भगतराम तलवार से हुआ। भगतराम को साथ लेकर वे पेशावर से अफगानिस्तान की राजधानी काबुल के लिए कूच कर गए। भगतराम तलवार, रहमतखान नाम के पठान बन गए  थे और सुभाषबाबू उनके गूंगे-बहरे चाचा। उन्होंने काबुली वेशष-भूषा बी धारण कर ली ताकि कोई उन पर शक नहीं कर सके। पासपोर्ट और नागरिकता की पहचान से बचने के लिए वे टेढ़े-मेढ़े रास्तों से पैदल गए। दुर्गम पहाडियों में रात-दिन भूखे प्यासे मीलों पैदल चलकर वे काबुल पहुँचे। जिस प्रकार से उन्होंने सर्द मौसम सर्द मौसम और कड़कड़ाती ठंड में रात-दिन एक कर अपना सफर पूरा किया उससे आप अनुमान लगा सकते हैं कि उनके भीतर राष्ट्रभक्ति की भावना कैसे उफान मार रही थी। काबुल में सुभाषबाबू ने छुपकर दो महिने उत्तमचंद मल्होत्रा नाम के एक भारतीय व्यापारी के घर में बिताए। 1941 की अप्रैल महने की शुरुआत में वे अफगानिस्तान से ओर्लांदो मात्सुता नामके एक इटालियन व्यक्ति बनकर रूस की राजधानी मॉस्को होते हुए जर्मनी की राजधानी बर्लिन जा पहुँचे और जर्मनी पहुँचकर उन्होंने अपने आप को प्रकट कर दिया। नेताजी के घर से गायब होने से लेकर बर्लिन में स्वयं को प्रकट करने तक उनके बारे में अग्रेजी पुलिस तथा गुप्तचर सेवा को भनक तक नहीं लगी।

तो ऐसे थे नेताजी सुभाष चन्द्र बोस!

Thursday, January 19, 2012

भाषा से सम्बन्धित कुछ रोचक जानकारी!

  • वर्तमान में विश्व भर में प्रचलित लगभग 41,806 अलग-अलग भाषाएँ हैं।
  • हवायन (Hawaiian) वर्णामाला में केवल 12 अक्षर होते हैं।
  • उर्दू और अंग्रेजी दोनों के ही वर्णमालाओं में 26 अक्षर होते हैं।
  • अंग्रेजी का शब्द 'News' चार दिशाओं North, East, West, और South के प्रथम अक्षरों को मिला कर बना है।
  • अमेरिका की अपेक्षा चीन में अधिक लोग अंग्रेजी भाषा बोलते हैं।
  • राजभाषा अधिनियम के अनुसार हिन्दी भाषा के लिए देवनागरी लिपि तथा भारतीय अंकों का अंतर्राष्ट्रीय रूप प्रयोग किया जाता है।
  • ‘racecar,’ ‘kayak’ और ‘level’ अंग्रेजी के ऐसे शब्द हैं जिन्हें चाहे बायें से दायें पढ़ें कि दायें से बायें, वे एक जैसे ही पढ़े जाते हैं।
  • WAS IT A CAR OR A CAT I SAW. अंग्रेजी का ऐसा वाक्य है जो उल्टा सीधा एक समान है।
  • अंग्रेजी शब्द Stressed को उल्टा पढ़ने पर अंग्रेजी का ही एक दूसरा शब्द Desserts बन जाता है।
  • अंग्रेजी का सबसे छोटा पूर्ण वाक्य है - 'Go'।
  • अंग्रेजी के केवल चार शब्द ऐसे हैं जिसके अन्त में “dous” आता है, वे हैं - hazardous, horrendous, stupendous, and tremendous।
  • "The quick brown fox jumps over a lazy dog." वाक्य में अंग्रेजी के सभी अक्षर प्रयुक्त होते हैं।
  • बगैर कोई स्वर (vowel) वाला अंग्रेजी का सबसे बड़ा शब्द है "Rhythms"!
  • "uncopyrightable" अंग्रेजी का एक ऐसा शब्द है जिसमें प्रयुक्त कोई भी अक्षर दो बार नहीं आता।
  • अंग्रेजी में 'E' का प्रयोग सबसे अधिक होता है और 'Q' का सबसे कम।
  • अंग्रेजी का सबसे लंबा शब्द है - pneumonoultramicroscopicsilicovolcanoconioses! (न्युमोनोअल्ट्रामाइक्रोस्कोपिकसिलिकोव्होल्कानोकोनिओसेस)

Monday, January 16, 2012

भारत की प्रथम महिला छायाचित्रपत्रकार - होमाई व्यारावाल उर्फ "डालडा 13"

क्या आपको पता है कि भारत की प्रथम महिला छायाचित्रपत्रकार (photo journalist) - होमाई व्यारावाल उर्फ "डालडा 13" हैं? 1913 में जन्मीं व्यारावाला ने सन् 1938 में फोटोग्राफी के क्षेत्र में पदार्पण किया। उन दिनों फोटोग्राफी को पुरुषों का क्षेत्र माना जाता था और इस क्षेत्र में व्यारावाला, जो कि महिला थीं, की सफलता एक बहुत बड़ी उपलब्धि थी। उल्लेखनीय है कि भारत में फोटोग्राफी की शुरुवात 1840 में हुई और चूँकि यह कला भारत में ब्रिटेन से आई थी, अधिकतर भारतीय फोटोग्राफर फोटोग्राफी के लिए ब्रिटिश फोटोग्राफर्स की शैली को ही अपनाया करते थे। भारत में फोटोग्राफी उन दिनों अभिजात्य वर्ग के लोगों का शौक हुआ करता था, आजीविका के लिए इसका प्रयोग यदा-कदा ही देखने को मिलता था। भारत में फोटोग्राफी को पेशेवर तौर पर अपनाया जाना बीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ के बाद से ही शुरू हुआ और उन दिनों यह क्षेत्र पुरुषप्रधान ही था। यद्यपि उन्नीसवी शताब्दी के द्वितीय दशक के आरम्भ से महिलाएँ भी शौकिया फोटोग्राफी के क्षेत्र में कदम रखने लगी थीं किन्तु इस पुरुषप्रधान क्षेत्र में एक पेशेवर के रूप में होमाई व्यारावाला का आना उनका एक साहसपूर्ण कदम था। होमाई व्यारावाला भारत की प्रथम महिला प्रेस फोटोग्राफर बनीं और वे इस क्षेत्र में 1938 से1973 तक सफलतापूर्वक कार्य करती रहीं। उन्होंने अपना फोटोग्राफिक कैरियर का आरम्भ बम्बई (वर्तमान मुम्बई) से किया।


होमाई व्यारावाला अपने मूलनाम की अपेक्षा अपने छद्रमनाम "डालडा 13" से अधिक जानी जाती रहीं। व्यारावाला ने जब पहली बार अपनी कार का रजिस्ट्रेशन करवाया तो उन्हें कार का नम्बर मिला था - "DLD 13"। कार के इस नम्बर से ही उन्हें अपना छद्मनाम "डालडा 13" रखने की प्रेरणा मिली और उन्हें उनके इस छद्मनाम ने बहुत लोकप्रियता दिलाई।

होमाई व्यारावाला को स्वतंत्र भारत के पहले प्रधानमंत्री के शपथ ग्रहण समारोह, भारत-पाकिस्तान के विभाजन पर विचार के लिए हुई निर्णायक बैठक तथा अन्य अनेक ऐतिहासिक पलों की फोटोग्राफी के लिए याद किया जाता है।

यद्यपि होमाई व्यारावाला आज हमारे बीच नहीं हैं किन्तु उनके द्वारा खींचे गए चित्रों ने उन्हें अमर बना दिया है।

होमाई व्यारावाल उर्फ "डालडा 13" के द्वारा खींचे गए कुछ लोकप्रिय चित्र

भूगोल से सम्बन्धित कुछ रोचक तथ्य

  • समस्त महाद्वीपों के नाम अंग्रेजी के जिस अक्षर से शुरू होते हैं, उसी अक्षर से खत्म भी होते हैं (America के North और South को छोड़ने पर)। स्वयं देख लीजिए - Asia, Africa, North America, South America, Antarctica, Europe, और Australia।
  • अन्टार्टिका में पानी इतना ठंडा है कि उसके अन्दर की कोई भी वस्तु कभी भी सड़ती-गलती नहीं है।
  • यदि अन्टार्टिका में जमी बर्फ की सारी पत्तरें गल जाएँ तो संसार के सभी सागर 60 से 65 मीटर अर्थात 200 से 210 फुट तक और भर जाएँगे।
  • अब तक के रेकार्ड के अनुसार अन्टार्टिका का सर्वाधिक गर्म तापमान 3 डिग्री फैरनहीट है।
  • एक औसत हिमशैल (ice berg) का वजन लगभग दो करोड़ टन होता है।
  • विश्व के समस्त वन क्षेत्र का 25% से भी अधिक भाग साइबेरिया में हैं।
  • समुद्र की एक बूंद पानी को भाप बनकर पूरे विश्व में प्रसारित होने में 1000 साल से भी अधिक समय लग जाता है।
  • टैक्सास का होस्टन नगर धसान (दलदल) में बसा हुआ है और धीरे-धीरे धँसकते जा रहा है।
  • विश्व में उत्पन्न होने वाले समस्त ऑक्सीजन का 20% से भी अधिक भाग अमेजान के वर्षावनों में उत्पन्न होता है।
  • समुद्र के एक घन मील (One cubic mile) पानी में लगभग 50 पौंड सोना घुला होता है।
  • संसार में प्रतिवर्ष 50,000 से भी अधिक भूकंप आते हैं।
  • स्टेट ऑफ फ्लोरिडा पूरे इंग्लैंड से भी बड़ा है।
  • अमेरिका का 'माम्मोह केव्ह सिस्टम' (Mammoth Cave System) संसार का सबसे लंबा खोह है जो कि5,60,000 मीटर गहरा है।
  • इजराइल का मृत सागर समुद्र सतह से 1,312 फुट नीचे में है।
  • एक पूर्ण रूप से विकसित रक्त दारु वृक्ष (redwood tree) के पत्तों से 2 टन से भी अधिक पानी निष्कासित होता है।
  • जंगल में लगी आग नीचे की अपेक्षा ऊपर की ओर तेजी से फैलती है।
  • अलास्का में प्रतिवर्ष लगभग 5,000 भूकंप आते हैं।
  • यूरोप एकमात्र ऐसा महाद्वीप हैं जिसमें कोई भी मरुस्थल नहीं है।
  • चन्द्रमा के सिर के ठीक ऊपर आने पर उसके गुरुत्वाकर्षण के कारण आपका वजन जरा सा कम हो जाता है।
  • अटलांटिक महासागर प्रशान्त महासागर से अधिक खारा है।
  • एक ज्वालामुखी में राख को 50 किलोमीटर से भी ऊपर फेंकने की शक्ति होती है।

Saturday, January 14, 2012

टूटती हैं मस्जिद क्यूँ जल रहे शिवाले क्यूँ?

डॉक्टर हातिम जावेद की गज़ल
सरज़मीं मुहब्बत की ज़ुल्म के हवाले क्यूँ?
वक्त की हथेली में नफरतों के छाले क्यूँ?
प्रेम की पवित्र भूमि अत्याचार के अधिकार में क्यों है? वक्त की हथेली पर नफरतों के छाले क्यों हैं?
अम्न की जंजीर पे खौफ की हुकुमत है
क़ैद है तअस्सुब में ज़हन के उजाले क्यूँ?


शान्ति पर भय शासन कर रहा है। बुद्धिरूपी सूर्य से निकलने वाला प्रकाश अधर्म, अन्याय, भय, घृणा, उपेक्षा आदि के अन्धकार में कैद क्यों है?
रो रही है भूखी माँ दो जवान बेटों को
जिसके पास जन्नत है उसके लब पे नाले क्यूँ?


दो जवान बेटों के होते हुए भी माँ भूखी है। जिसे स्वर्ग का सुख मिलना चाहिए उसके होठों पर आह क्यों है?
आलमे सियासत में बसने वाले लोगों के
ताबनाक चेहरे है दिल मगर हैं काले क्यूँ?


राजनीति के आलम में बसने वाले लोगों के चेहरे तो चमकीले हैं पर उनके दिल काले क्यों हैं?
सब उसी के बंदे हैं सब उसी के सेवक हैं
टूटती हैं मस्जिद क्यूँ जल रहे शिवाले क्यूँ?


चाहे हिन्दू हो, चाहे मुस्लिम, चाहे सिख हो, चाहे ईसाई हो, सब तो एक ही ईश्वर के सेवक हैं। फिर मस्जिदें क्यों टूटती हैं और शिवालय क्यों जल रहे हैं?
सोच का परिंदा हर जंग जीत सकता था
होंसलों के पर "हातिम" तुमने काट डाले क्यूँ?


विचाररूपी पक्षी प्रत्येक युद्ध को जीत सकता था, पर उसके साहसरूपी पंख को क्यों काट डाला गया है?

Friday, January 13, 2012

राष्ट्रगीत "वन्दे मातरम्" से सम्बन्धित तथ्य

  • देशभक्त साहित्यकार बंकिमचन्द्र चटर्जी ने 7 नवम्वर 1876 को बंगाल के कांतल पाडा गाँव में "वन्दे मातरम्" की रचना की।
  • "वन्दे मातरम्" के प्रथम दो पद संस्कृत में तथा शेष पद बंगाली भाषा में थे।
  • बंकिमचन्द्र जी ने सन् 1882 में अपनी इस रचना "वन्दे मातरम् को अपने उपन्यास "आनन्द मठ", जिसकी कथावस्तु सन्यासी विद्रोह पर आधारित है, में सम्मिलित किया।
  • रवीन्द्र नाथ टैगोर ने "वन्दे मातरम्" को स्वरबद्ध करके सन् 1896 में पहली बार कलकत्ता (वर्तमान कोलकाता) के कांग्रेस अधिवेशन में गाया।
  • सबसे पहले "वन्दे मातरम्" का अंग्रेजी अनुवाद अरविन्द घोष ने किया।
  • दिसम्बर 1905 में कांग्रेस कार्यकारिणी की बैठक में "वन्दे मातरम्" को राष्ट्रगीत का दर्जा प्रदान किया गया।
  • बंग भंग आन्दोलन में "वन्दे मातरम्" राष्ट्रीय नारा बना।
  • 1906 में "वन्दे मातरम्" को देवनागरी लिपि में प्रस्तुत किया गया।
  • 1923 के कांग्रेस अधिवेशन में "वन्दे मातरम्" के विरोध में स्वर उठे।
  • जवाहर लाल नेहरू, मौलाना अब्दुल कलाम आजाद, सुभाष चन्द्र बोस और आचार्य नरेन्द्र देव की समिति, जिसका मार्गदर्शन रवीन्द्र नाथ टैगोर ने किया था, 28 अक्टूबर 1937 को कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन में पेश किए गए अपने अपने रिपोर्ट में "वन्दे मातरम्" के गायन को अनिवार्य बाध्यता से मुक्त रखते हुए कहा कि इस गीत के आरम्भ के दो पद ही प्रासंगिक है।
  • 14 अगस्त 1947 की रात्रि में संविधान सभा की पहली बैठक का आरम्भ "वन्दे मातरम्" तथा समापन "जन गण मन..." के साथ हुआ।
  • 1950 में "वन्दे मातरम्" राष्ट्रगीत तथा "जन गण मन..." राष्ट्रगान बना।
  • 2002 के बीबीसी के एक सर्वेक्षण के अनुसार "वन्दे मातरम्" विश्व का दूसरा सर्वाधिक लोकप्रिय गीत है।
वन्दे मातरम् - सम्पूर्ण गीत

वन्दे मातरम्।
सुजलाम् सुफलाम् मलयज् शीतलाम्
शस्यश्यामलाम् मातरम्।
वन्दे मातरम्।

शुभ्रज्योत्स्नांपुलकितयामिनीम्
फुल्लकुसुमितद्रुमदलशोभिनीम्
सुहासिनीम् सुमधुर भाषिणीम्
सुखदाम् वरदाम् मातरम्॥
वन्दे मातरम्।
  
कोटि-कोटि-कण्ठ कल-कल-निनाद-कराले
कोटि-कोटि-भुजैघृत-खरकरवाले
अबला केन माँ एत बले।
बहुबलधारिणीम् नमामि तारिणीम्
रिपुदलवारिणीम् मातरम्॥
वन्दे मातरम्।
  
तुमि विद्या तुमि धर्म
तुमि ह्रदि, तुमि मर्म
त्वं हि प्रणाः शरीरे
बाहूते तुमि माँ शक्ति
ह्दये तुमि माँ भक्ति
तोमारइ प्रतिमा गडि मन्दिरे मन्दिरे॥
वन्दे मातरम्।
  
त्वं हि दुर्गादशप्रहरमधारिणी
कमला कमलदलविहारिणी
वाणी विद्यादायिनी
नमामि त्वं नमामि कमलाम्
अमलाम् अतुलाम् सुजलाम् सुफलाम् मातरम्॥
वन्दे मातरम्।
  
श्यामलाम् सरलाम् सुष्मिताम् भूषिताम्
धारिणीम् भारिणीम् मातरम्॥
वन्दे मातरम्।

Wednesday, January 11, 2012

स्वामी विवेकानन्द के द्वारा दिये गए सन्देश


"भाइयों और बहनों, लंबी रात्रि अपनी अन्तिम अवस्था में पहुँच चुकी है। दुःख और उदासी समाप्त हो रहे हैं। हमारा देश एक पवित्र देश है। मातृभूमि शनैः-शनैः जाग रही है। चहुँ ओर प्रवाहित होने वाली स्वच्छ समीर को धन्यवाद। मातृभूमि को कोई हमसे दूर नहीं कर सकता।"

"क्या आप मातृभूमि के लिए सर्वस्व न्यौछावर करने के लिए तैयार हैं? यदि हाँ, तो आप गरीबी और उपेक्षा से छुटकारा पा सकते हैं। क्या आप जानते हैं कि लाखों की संख्या में हमारे देशवासी दुःख तथा भूख से पीड़ित हैं? क्या उनके दुःख को आप अनुभव कर सकते हैं? क्या आप उनके आँसू पोछना चाहते हैं?"

"क्या आपमें बाधाओं, भले ही वे कितनी भी विकट हों, से लड़ने का साहस है? क्या आपमें अपने लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए, भले ही आपके अपने इसके विरुद्ध हों, दृढ़ निश्चय है? आप एक स्वतन्त्र व्यक्ति तभी बन सकते हैं जब आपमें भरपूर आत्मविश्वास हो। आपको सशक्त बनना है। अध्ययन तथा आध्यात्म के द्वारा आपको अपनी बुद्धि विकसित करनी है। तभी आपकी विजय होगी।"

"अमेरिका और इंग्लैंड जाने के पूर्व मैं अपनी मातृभूमि को प्रेम करता था। वापस आने के बाद मुझे मातृभूमि का एक एक धूलिकण पवित्र प्रतीत हो रहा है।"

मूल अंग्रेजी सन्देशः

"Brothers and sisters, the long night is at last drawing to a close. Miseries and sorrows are disappearing. Ours is a sacred country. She is gradually waking up, thanks to the fresh breeze all around. Her might no one can overcome."

"Are you prepared for all sacrifices for the sake of our motherland? If you are, then you can rid the land of poverty and ignorance. Do you know that millions of our countrymen are starving and miserable? Do you feel for them? Do you so much as shed a tear for them?"

"Have you the courage to face any hurdles, however formidable? Have you the determination to pursue your goal, even if those near and dear to you oppose you? You can be free men only if you have confidence in yourselves. You should develop a strong physique. You should shape your mind through study and mediation. Only then will victory be yours."

"I loved my motherland dearly before I went to America and England. After my return, every particle of the dust of this land seems sacred to me."

Sunday, January 8, 2012

वर्ष 1925 से अब तक सोने की कीमतें ऐसे बढ़ी हैं

स्वर्ण....कंचन....
कनक....

क्या ही विचित्र वस्तु है यह सोना! देखते ही इसे पाने की इच्छा होने लगती है और पाते ही इसका नशा चढ़ने लगता है। अन्य नशीली वस्तुओं का नशा तो उसे खाने या पीने के बाद चढ़ता है पर सोने का नशा उसे पाते ही चढ़ने लगता है; इसीलिए तो कहा है -





"कनक कनक ते सौगुनी मादकता अधिकाय।
वे खाए बौरात हैं ये पाए बौराय॥"

यह सोना जितना लुभावना है, उतना ही क्रूर भी है। न जाने इसने कितनी हत्याएँ करवाई हैं, न जाने कितने युद्ध लड़े गए हैं इसके लिए। न जाने कितने भाइयों ने भाइयों की, पतियों ने पत्नियों की, मित्रों ने मित्रों की हत्या कर दी है इस सोने के लिए।

फिर भी यह सोना आदिकाल से अब तक मनुष्यों के लिए सबसे बड़ा आकर्षण बना चला आ रहा है। कैसी भी कीमत देकर लोग इस सोने को पाना चाहते हैं। इसी कारण से सामान्यतः सोने की कीमत साल दर साल बढ़ती ही चली जाती है। मेरी दादी माँ बताती थीं कि उन्होंने मेरे पिताजी की शिक्षा के लिए अठारह रुपये तोले की कीमत में सोना बेचा था। आज तो दस ग्राम सोने, जो कि तोले से भी कम मात्रा है, की कीमत रु.27000/- से भी ऊपर पहुँच गई है।

सोने तथा इसकी कीमत पर पोस्ट लिखने के लिए मुझे प्रेरित किया मेरे हिन्दी वेबसाइट के स्नेही पाठक श्री रतन लाल श्रीवास्तव जी ने, जिन्होंने मुझे वर्ष 1925 से 2011 तक की सोने की कीमतों का चार्ट उपलब्ध करवाया। श्रीवास्तव जी इलाहाबाद के निवासी हैं किन्तु वर्तमान में चण्डीगढ़ में कार्यरत हैं। नीचे प्रस्तुत है श्रीवास्तव जी द्वारा भेजा गया सोने की कीमतों के आकड़े वाला चार्ट -

पोस्ट के आरम्भ में मैंने सोने के तीन और पर्यायवाची शब्द दिए हैं किन्तु संस्कृत ग्रंथ अमरकोष के अनुसार सोने के नाम हैं, जो इस प्रकार हैं -


  • सुवर्ण
  • कनक
  • हिरण्य
  • हेम
  • हाटक
  • तपनीय
  • शातकुम्भ या शातकौम्भ
  • गांगेय
  • भर्म
  • कर्बुर या कर्बूर
  • चामीकर
  • जातरूप
  • महारजत
  • काञ्चन
  • रुक्म
  • कार्तस्वर
  • जाम्बूनद
  • अष्टापद
चलते-चलते

"सुवरन को खोजत फिरै कवि व्यभिचारी चोर।"

उपरोक्त पंक्ति श्लेष अलंकार का एक सुन्दर उदाहरण है जिसमें "सुवरन" शब्द के तीन अर्थ हैं। आप समझ ही गए होंगे कि कवि सुन्दर शब्दों (सुवरन) को, व्यभिचारी सुन्दर स्त्री (सुवरन) को और चोर सोने (सुवरन) को खोजता फिरता है।

Sunday, January 1, 2012

फिर एक नया साल आएगा और फिर नई उम्मीदें जागेंगीं

आज से साल भर पहले आज के ही दिन अर्थात् 1 जनवरी 2011 को हमने उमंग और उल्लास के साथ नये साल का स्वागत् किया था। आज उस वाले नये साल का अवसान हो चुका है। आज हम फिर से एक नये साल अर्थात 2012 का उसी उमंग और उल्लास के साथ स्वागत् कर रहे हैं और आज से ठीक एक साल के बाद इस नये साल का भी अवसान हो चुका होगा। यही प्रकृति का नियम है, जिस किसी का भी उदय होता है उसका अवसान होना भी अवश्यम्भावी है।

यदि हम याद करें याद आयेगा कि पिछले साल अर्थात 2011 के स्वागत् करने के साथ ही हमने उससे बहुत सारी उम्मीदें भी बाँध ली थीं और यह सोच कर खुश थे कि वह नया साल हमारी उन उम्मीदों को पूरी कर देगा। समय बीतने के साथ ही वह साल हमारे लिये पुराना होने लगा और हम उन उम्मीदों को भी भूलते गए। और अन्ततः 2011 के चले जाने तक हम उन सारी उम्मीदों को भूल गए। अब 2012 के इस नये साल में फिर से उम्मीदों का वही सिलसिला शुरू हो गया,  2012 के समाप्त होते तक हम फिर इन उम्मीदों को भूल जाएँगे। फिर एक नया साल आएगा और फिर नई उम्मीदें जागेंगीं, उस नये साल के जाते तक हम फिर हम उन उम्मीदों को भूल जाएँगे। यह चक्र न जाने कितनी सदियों से चला आ रहा है और न जाने कब तक चलता रहेगा। पर यह भी सच है कि यदि नई उम्मीदें आदमी के भीतर ना जागें तो उसका जीना दूभर हो जाएगा। हर नया साल कुछ दे या न दे पर मनुष्य के जीवन को आसान बनाने के लिए उम्मीदें अवश्य देता है, यह बात अलग है कि वह उन उम्मीदों को पूरा करता है या नहीं।

चलते-चलते


नया साल तुम क्या लाये हो?

(स्व. श्री हरिप्रसाद अवधिया रचित कविता)

नया साल तुम क्या लाये हो?
विश्व-शान्ति है क्या तुममें?
या उर में विस्फोट छियाये हो?
नया साल तुम क्या लाये हो?

उल्लास नया है,
आभास नया है,
पर थोड़े दिन के ही खातिर,
फिर तो दिन और रात बनेंगे
बदमाशी में शातिर
वर्तमान में तुम भाये हो,
नया साल तुम क्या लाये हो?

असुर न देव बनेंगे,
जो जो हैं वे वही रहेंगे,
शोषण कभी न पोषण बनेगा
रक्त पियेगा बर्बर मानव
जो चलता था वही चलेगा।
फिर क्यों जग को भरमाये हो?
नया साल तुम क्या लाये हो?

पिछला वर्ष गया है,
आया समय नया है।
क्या भीषण आघातों से
मानवता का किला ढहेगा?
बोलो, तुम क्यों सकुचाये हो?
नया साल तुम क्या लाये हो?

(रचना तिथिः 01-01-1981)